भाजपा के पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अपने कार्यकर्ता के यहाँ खाने को बीबीसी राजनैतिक नौटंकी करार दे रहा है।
बीबीसी के पत्रकारों को पत्तल, दोनों में खाना खाना व मिटटी के गिलास पानी पीना दिखावा लगता है अपने इसी औपनिवेशिक मानसिकता में जन्मे ब्रिटिश मीडिया संस्थान के अंदर इतनी अधिक कुंठा व्याप्प्त है कि आँखों में पट्टी बाँध कर लेखन किया है। दोहरी पत्रकारिता के एजेंडे पर काम करने वाले यह वही लोग है जो राहुल गाँधी के किसी दलित महिला के घर खाने को जोर शोर से महिमावर्णन करते हैं जबकि यहाँ शाह और योगी ने जिसके घर खाना खाया वह उनकी पार्टी का कार्यकर्त्ता था। यदि इसी कार्यकर्ता के घर चांदी के बर्तनों में खाना खाते दिखते तो शाह पर आरोप लगाते कि पिछड़ी जाति के कार्यकर्त्ता पर अपनी आवभगत के लिए आर्थिक बोझ डाल दिया!
बीबीसी से इसे बीजेपी की सोशल इंजीनिरिंग बताती है लेकिन में इसे केवल भारतीय संस्कृति के साथ जोड़ता हूँ। गांव में आज भी पत्तलों, दोनों और मिटटी के कुल्हड़ों का प्रयोग होता है! जहाँ प्रधानमंत्री स्वरोजगार और स्वदेशी की बात करते हैं तो उनके कार्यकर्ताओं ने स्वदेशी तरीके से स्वदेसी निर्मित कुल्हड़ और पत्तलों में खाना खाया तो इसमें हैरानी की बात क्या है? मेरे हिसाब से यह सोशल इंजीनिरिंग नहीं स्वदेशी अपनाओ संस्कृति बचाओ की नीति लगती है।
अपने कार्यकर्ता के घर खाना खाना या किसी दलित महिला के पाँव छूने की राजनीति कोई नहीं हैं और कांग्रेस के युवराज तो इसमें पारंगत भी है। चुनाव के दौरान इस तरह के ड्रामे लोग देखते रहते हैं। जिस तरह से उत्तरप्रदेश में बीजेपी की आंधी ने सपा कांग्रेस गठजोड़ और बसपा को तितर-बितर कर दिया उसमें कहीं न कहीं इन कार्यकर्ताओं का भी हाथ है कार्यकर्ताओं के प्रति कृतघ्नता जताने के लिए उनके घर खाना खाने का राजनीतिकरण करना कहीं से भी तर्क संगत नहीं लगता है!
अब बीबीसी को इसमें सोशल इंजनियरिंग और राजनैतिक नौटंकी लगती है तो उन्हें इलाज की आवश्यकता है।