शिवेन्द्र राणा. भाजपा के सांगठनिक पुनर्गठन की प्रक्रिया में हुए व्यापक फेरबदल चर्चा में है. संसदीय बोर्ड से नितिन गडकरी, शिवराज सिंह चौहान जैसे वरिष्ठ नेताओं को बाहर करने के साथ ही महाराष्ट्र, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल आदि कई राज्यों में महत्वपूर्ण बदलाव हुए. इसे 2024 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर संगठनात्मक मुद्दों एवं उभरती राजनीतिक चुनौतियों से निपटने तथा सामाजिक और क्षेत्रीय रूप से अधिक समावेशी बनाने की कार्ययोजना बताया जा रहा है. हालांकि इसके गहरे परोक्ष निहितार्थ हैं.
पूर्व सांसद सुब्रमण्यम स्वामी का कहना था, ‘प्रारंभ में पदाधिकारियों का चयन आतंरिक चुनाव से होता था. लेकिन आज हर पद पर चयन हेतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अनुमति आवश्यक है. स्वामी की राजनीतिक महत्त्वकांक्षा और सरकार से नाराजगी छुपी नहीं है. फिर भी उनका बयान अन्यथा नहीं लिया जा सकता 2014 में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के चार मुख्य दावेदार नरेन्द्र मोदी, सुषमा स्वराज, नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह एक तरह से पार्टी में विभिन्न शक्ति केंद्र थे.
हालांकि इनमें मोदी की लोकप्रियता निर्विवाद रूप से सर्वाधिक थीं. लेकिन तब भी असुरक्षा तो बनी ही थीं. सुषमा स्वराज के स्वर्गवास, जनाधार विहीन राजनाथ सिंह के मैदान छोड़ने के बाद एकमात्र नितिन गडकरी ही थे, जिनसे नरेन्द्र मोदी को चुनौती मिलने की संभावना थी. गडकरी के पास वृहत जनाधार है. पार्टी कॉडर में उनका सम्मान है. उन्हें संघ का भी पूर्ण समर्थन रहा है. केंद्रीय मंत्री के रूप में उनकी कार्यशैली प्रभावित करती है जिसके प्रशंसक विपक्षी नेता भी हैं. उन्होंने अपने व्यक्तित्व को ‘मोदी सरकार के आभामंडल’ में विलीन नहीं होने दिया.
बल्कि उनके बेबाक बयान एवं समालोचना से मोदी सरकार को कई बार रक्षात्मक होना पड़ा हैं. मोदी की अब तक की राजनीतिक यात्रा को करीब से देखने वाले जानते हैं, वे अपने समक्ष कोई चुनौती बर्दाश्त नहीं करते और ना ही अपने विरोधियों को माफ करते हैं. पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव संजय जोशी का हश्र इसका बेहतरीन उदाहरण है. 2012 में उनको संगठन से बाहर करवाने के लिए नरेन्द्र मोदी ने जैसा अमर्यादित आचरण दिखाया था उस समय मोहन भागवत, एमजी वैद्य जैसे संघ के पदाधिकारियों से लेकर राजनाथ सिंह, सुशील मोदी आदि भाजपा नेताओं ने भी आपत्ति जाहिर की थी.
अतः गडकरी को हासिये पर धकेलने की कोशिशों पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए. यही स्थिति शिवराज चौहान, योगी आदित्यनाथ की है. इनकी लोकप्रियता नरेन्द्र मोदी के बरक्स कम नहीं रही है. दोनों ने ही मुख्यमंत्री के रूप में अपनी विशिष्ट कार्यशैली से सम्मान अर्जित किया है. दोनों की छवि बेदाग हैं. भाजपा के वर्तमान मुख्यमंत्रियों में मात्र चौहान और योगी आदित्यनाथ ही ऐसे हैं, जो मोदी-शाह की अनुकंपा के बजाय अपनी काबिलियत एवं व्यापक जनाधार के बलबूते सत्ता में हैं. इन्हें अनदेखा करना अभी भी मोदी-शाह लॉबी के लिए दुष्कर है.
अतः इनके समक्ष प्रतिपक्ष खड़ाकर इनका मार्ग बाधित करने का प्रयास हो रहा है. बताते चलें कि 2014 में लालकृष्ण आडवाणी ने प्रधानमंत्री पद के लिए जो नाम सुझाए थे, उनमें शिवराज चौहान भी थे. अतः उनका शीर्ष नेतृत्व के निशाने पर होना अचरज की बात नहीं है. इसी प्रकार आम जनमानस योगी आदित्यनाथ को 2024 में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में देख रही है. मध्य प्रदेश में सत्यनारायण जटिया विकल्प बने हैं. जिनके नरेंद्र मोदी से मधुर संबंध हैं. आश्चर्यजनक है, जटिया एक लंबे समय से सक्रिय राजनीतिक धारा में उपेक्षित थे.
उनकी 76 वर्ष की आयु भी नई जिम्मेदारी का समर्थन नहीं करती. यह आयु तो मार्गदर्शक मंडल के लिए निर्धारित थीं, फिर भी केंद्रीय नेतृत्व उन्हें आगे ला रहा है तो अवश्य इसका विशेष आधार होगा. वही उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में ऐसे नेता शामिल किये गये जो पूरे कोरोना काल में योगी जी को हटाने की मुहिम चलाते रहे थे. उत्तर प्रदेश में समानांतर सत्ता संचालनकर्ता संगठन महासचिव सुनील बंसल, जिनके योगी आदित्यनाथ से मतभेद जगजाहिर हैं, उन्हें तेलंगाना, बंगाल और ओडिशा का प्रभारी बनाकर शीर्ष नेतृत्व ने अपने प्रति वफ़ादारी को तरजीह देने का संदेश पार्टी काडर को दिया है.
भूपेंद्र चौधरी को उत्तर प्रदेश भाजपा की कमान सौंपने के पीछे बड़ा कारण उनका अमित शाह का विश्वस्त होना है. मार्गदर्शक मंडल की व्यवस्था भी निष्कंटक एकाधिकार स्थापना के छद्म उपायों में शामिल है. जिसके अंतर्गत 70-75 साल की आयु पूरी कर चुके नेताओं को चुनावी राजनीति एवं सरकार में भागीदारी से हटाकर मार्गदर्शक मंडल भेजने की नई परंपरा स्थापित हुई. इसके माध्यम से लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार जैसे वरिष्ठ नेताओं से पीछा छुड़ाया गया.
इसके नियम भी केंद्रीय नेतृत्व के अनुकूल परिवर्तित होते रहे हैं. उस आयु सीमा पर पहुंच चुके मोदी जी अब तक सत्ता त्यागने की मंनःस्थिति में नहीं दिख रहे हैं. वर्तमान में प्रचलित एकांगी निर्णयन की प्रथा भाजपा के अब तक के इतिहास में कभी भी नहीं रहीं है. उदाहरणस्वरुप 2002 के गुजरात दंगों के बाद अटल जी के नेतृत्व में एक वर्ग द्वारा नरेन्द्र मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के निर्णय के बावजूद वे अपने पद पर बने रहे क्योंकि आडवाणी जी के नेतृत्व में दूसरा वर्ग इसका विरोधी था. तात्पर्य यह है कि भाजपा का नेतृत्व कभी भी एकध्रुवी नहीं रहा है.
यहाँ तक कि किसी विषय पर असहमत होने पर भाजपा नेता कई बार सार्वजनिक रूप से भी अपनी नाराजगी व्यक्त करते थे. किंतु वर्तमान परिस्थिति यह है कि केंद्रीय नेतृत्व से असहमति जताने वालों को केंद्र या राज्य सरकारें तो छोड़िये पार्टी में रहना कठिन है. यह एकांगी नेतृत्व रणनीतिक रूप से स्थापित हुआ. 2014 की पहली पारी में मोदी जी के विश्वासपात्रों को संगठन के महत्वपूर्ण पदों पर ‘फिट’ किया जाने लगा. जैसे अमित शाह पार्टी अध्यक्ष बना दिये गये.
दूसरे कार्यकाल तक जनाधार वाले नेताओं को हासिये पर धकेला जाने लगा, जैसे सुमित्रा महाजन, मुरली मनोहर जोशी, हुकुमदेव नारायण, करिया मुंडा, बैस, कोशयारी आदि. साथ ही ऐसे लोग पार्टी एवं सरकार में भर्ती किये गये जिनका जनाधार तो छोड़िये, आम जनता नाम तक नहीं जानती. असल में इस समय भाजपा में ‘यस मैन’ की माँग सर्वाधिक है. केंद्रीय मंत्रिमंडल में एस. जयशंकर, अश्विनी वैष्णव, हरदीप पुरी, आर.के. सिंह जैसे भूतपूर्व नौकरशाह भरे है. अनायास ही नहीं पार्टी में नौकरशाहों को प्राथमिकता मिलने लगी है, जिन्हें ना लोकतांत्रिक आंदोलनों के संघर्ष की समझ है और ना जमीनी मुद्दों से जुड़ाव.
इन आयातित जनप्रतिनिधियों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि राजनीतिक सत्ता द्वारा स्थापित अपने वजूद की वास्तविकता को ये भलीभांति जानते हैं. सत्ता की जी-हुजूरी का हुनर इनमें विशेष गुण होता है. मोदी-शाह जैसे नेताओं के विरोध की क्षमता इनमें नहीं है. बगैर जनाधार के लोकसभा-विधानसभाओं एवं विभिन्न मंत्रालयों में घुस चुके इन भूतपूर्व नौकरशाहों को पता हैं कि उनकी कुर्सी मोदी-शाह की कृपा का प्रतिफल है. अतः ये कभी भी सत्तासीन नेतृत्व के समक्ष संकट बन भी नहीं सकते.
बल्कि इनका पूरा जोर अपनी संरक्षक सत्ता को सुरक्षित करने पर होता है. आश्चर्य है कि लोकतंत्र की उन्नति एवं विकास के मानक स्थापित करने के लिए जनप्रतिनिधि के तौर पर उस नौकरशाही को थोपा जा रहा है जो इस जम्हूरियत की दुरावस्था के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी हैं. ये मूल रूप से उसी प्रशासनिक व्यवस्था के नुमाइंदे हैं जिसे इस देश में कार्यअक्षमता, भ्रष्टाचार, लालफीताशाही तथा आम जनता के प्रति निकृष्ट व्यवहार के लिए जाना जाता है.
हर लोकसभा या विधानसभा चुनाव में जनता मतदान द्वारा जब सरकारें बदलती है तो उसका ध्येय किसी दलीय सत्ता का परिवर्तन नहीं बल्कि प्रशासनिक रवैये में बदलाव होता है. आज उसी अभिकरण के सदस्य पिछले दरवाजे से भारतीय जनतंत्र पर लादे जा रहें हैं. इसी संदर्भ में भाजपा के कार्यक्रमों पर ध्यान दीजिये. पहले की तरह श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पं. दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी की नजर आने वाली तस्वीरें दुर्लभ हो चुकी है. बल्कि अब तो सबकुछ ‘मोदीमय’ नजर आने लगा है.
भाजपा नेताओं के बातचीत के तरीके अब कांग्रेस एवं क्षेत्रीय दलों के नेताओं की वाक् शैली से होड़ कर रही है, जिसमें वे सिर्फ अपने पार्टी नेतृत्व का महिमामंडन करने में लगे रहते थे. अर्थात् जो कुछ अच्छा है वो हमारे प्रधानमंत्री-गृहमंत्री की देन है और कुछ बुरा हुआ तो दोषारोपण के लिए पार्टी के दूसरे नेता एवं नौकरशाही तो है ही. यह भाजपा में चाटुकारिता की नई परंपरा की शुरुआत है. पार्टी के आतंरिक विषय के लिए तो यह ठीक हो सकता है लेकिन एक लोकतांत्रिक सरकार के नजरिये से सर्वथा अनुचित है.
जैसा कि डॉ. आंबेडकर ने ‘व्यक्ति पूजन की भावना’ के विरुद्ध कभी चेतावनी दी थीं. ‘पार्टी विद डिफरेंस’ की वर्तमान हालत धीरे धीरे कांग्रेस एवं क्षेत्रीय दलों की भांति होती जा रहीं है जिनमें आतंरिक लोकतंत्र का अभाव है. जहाँ पद पाने की एकमात्र योग्यता शीर्ष नेतृत्व का ‘यस मैन’ होना है. वरना क्या वज़ह थीं कि उच्च शिक्षित एवं अनुभवी नेताओं के होते हुए भी मानव संसाधन मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय) जैसे महत्त्वपूर्ण संस्थान को इंटरमीडियट पास स्मृति ईरानी को सौंप दिया गया तथा गृह राज्यमंत्रालय अजय मिश्र को दिया गया जो गंभीर किस्म के आपराधिक मामलों के आरोपी हैं.
रहीं बात संघ की, जो अब तक भाजपा नेताओं की नकेल कसता रहा है, बहुत हद तक नरेन्द्र मोदी के समक्ष बेबस नजर आ रहा है. भाजपा की स्थापना के पश्चात् ऐसा पहली बार हो रहा है, ज़ब पार्टी विशुद्ध रूप से एकाधिकार की ओर बढ़ चुकी है. अब मोदी और शाह की मंशा क्या है, ये तो ईश्वर जाने. परन्तु इतिहास की सीख है किसी व्यक्तित्व को दल से बड़ा एवं राष्ट्र के समानांतर खड़ा करने का प्रयास लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण नहीं है. भारत ऐसी ही कोशिशों का दुष्परिणाम 80 के दशक में भुगत चुका है.