जम्मू प्रांत की विश्व प्रसिद्ध बसोहली पेंटिंग को जीआई टैग(भौगोलिक संकेत) ३१ मार्च, २०२३ को दिया गया | जीआई टैग के इतिहास में पहली बार जम्मू क्षेत्र के किसी उत्पाद के लिए जीआई टैग दिया गया है |
जीआई टैग क्या है ?
जीआई टैग बौद्धिक संपदा अधिकार का एक रूप है, जो एक विशिष्ट भौगोलिक स्थान से उत्पन्न होने वाले और उस स्थान से जुड़ी विशिष्ट प्रकृति, गुणवत्ता और विशेषताओं वाले सामान की पहचान करता है। यह टैग मिलने से केवल अधिकृत उपयोगकर्ता के पास इन उत्पादों के संबंध में भौगोलिक संकेत का उपयोग करने का विशेष अधिकार होता है । कोई व्यक्ति अपने भौगोलिक क्षेत्रों से बाहर इसकी नकल नहीं कर सकता है। यह तीसरे पक्ष द्वारा पंजीकृत भौगोलिक संकेतक उत्पादों के अनधिकृत उपयोग को रोकने के साथ इनके निर्यात को बढ़ावा देता है |
क्या है जीआई टैग पर विवाद?
बसोहली चित्रों के लिए मिला जीआई टैग, सरकारी दस्तावेज़ीकरण में गलत तथ्यों के कारण विवादों में फंस गया है। इन दस्तावेज़ों में उल्लेख है कि बसोहली चित्रकला शैली ‘मुगलों द्वारा प्रारंभ की गई थी’, यह हिंदू पौराणिक कथाओं मुगल तकनीकों और स्थानीय पहाड़ियों की लोक कला का एक मिश्रण है, और यह 17-18वीं शताब्दी में अस्तित्व में आया, जो तीनों तथ्यात्मक रूप से असत्य हैं।
जीआई टैग पर विवाद को और भी बल मिल रहा क्यों कि बसोहली की वंशावली को जीआई रजिस्ट्री जर्नल में गलत तरीके से प्रलेखित किया गया है | उसमे लिखा गया है की राजा भूपत पाल ने 1635 में बसोहली की स्थापना की थी | उसके पहले की वंशावली, या बसोहली राज्य के प्राचीन होने का कोई ज़िक्र नहीं है |
बसोहली लघु चित्रकारी क्या है, और इसका इतिहास क्या है?
बसोहली मिनिएचर पेंटिंग्स या बसोहली लघु चित्रकारी एक विश्व प्रसिद्ध कला रूप है, जिसकी उत्पत्ति स्वतंत्र पश्चिमी हिमालयी पहाड़ी राज्य बसोहली में हुई, जो अब जम्मू और कश्मीर के कठुआ जिले की एक तहसील है। यह अपने जीवंत रंगों, विशिष्ट शैली और जटिल विवरण के लिए जाना जाता है, जिसने पहाड़ी लघु कला को प्रेरित किया और भारतीय कला परंपरा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। सदियों से दुनिया भर के कला प्रेमियों द्वारा इसकी प्रशंसा और सराहना की जाती रही है। दुनिया के कई बड़े संघ्रालयों में बसोहली चित्रकला के दुर्लभ नमूने हैं, जो ज़्यादातर हिन्दू देवी देवताओं, रसमंजरी, गीता गोविंदा, कृष्णा लीला, रामायण, तब के राजाओं पे आधारित हैं |
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की 1918-19 की रिपोर्ट में पहली बार बसोहली चित्रकला शैली का उल्लेख किया गया था, जिसके अनुसार केंद्रीय संग्रहालय, लाहौर के पुरातत्व अनुभाग ने पंजाब के डीलरों से कुछ बसोहली लघु चित्रों का अधिग्रहण किया और उनके क्यूरेटर ने निष्कर्ष निकाला था कि स्कूल मुगल-पूर्व मूल का है | कला से अनजान, पंजाब के डीलर इन्हे तिब्बती चित्रकला बोलते थे | लाहौर म्यूजियम के क्यूरेटर के अनुसार तिब्बती चित्रकला बसोहली चित्रकला का ही बाद में विकसित हुआ एक रूप है |
इस रिपोर्ट के बाद भारत और भारत के बहार के कई कला इतिहासकारों ने इस कला का अध्ययन किया और इसके सौंदर्यशास्त्र और विशिष्टता की प्रशंसा की। उन्होंने इसके इतिहास का पता लगाने का प्रयास किया | भारत के जाने माने क्यूरेटर और इतिहासकार अजित घोस के अनुसार उन्होंने रिपोर्ट के आने से लगभग दस साल पहले ही बसोहली चित्रकला की अनमोल पेंटिंग्स संजोना शुरू कर दिया था, जो लाहौर म्यूजियम की पेंटिंग्स से कई पुरानी ज्ञात होती हैं |
इतिहासकारों और कला को समझने वालों की माने तो इस तरह की विकसित कला शैली की उत्तमता और प्रवीणता पाने में कलाकारों को कई सौ साल लगे होंगे | बसोहली में कला की पुरानी परंपरा और कला के प्रति प्रेम से ही ऐसा संभव है | यह चित्रकला इतनी ख़ास और किसी भी और चित्रकला से भिन्न है, की इतिहासकारों ने इसको अलग स्कूल ऑफ़ पेंटिंग का स्थान देने के विचार को समर्थन दिया |
इतिहासकारों, जैसे स्टीवन कोस्साक व अन्य ने तो बसोहली चित्रकला को कई कारकों के लिए मुगल प्रभाव से मुक्त पाया है। १७वी शताब्दी में पश्चिमी हिमालयी पहाड़ी राज्यों में वैष्णव धर्म का पुनः प्रवर्तन उनमें से एक बड़ा कारण हो सकता है | उस समय के बसोहली के राजा संग्राम पाल ने कई कलाकारों, चित्रकारों को, जो मुग़लों के बढ़ते अत्याचारों से भाग के यहां आ गए थे, उन्हें शरण दी | उन्हें अपने राज्य के शिल्पशालाओं में बसोहली चित्रकारों के साथ काम करने की अनुमति भी दी |
अजित घोस ने अपने शोध में पाया है की बलौरिया राजपूत, जिन्हें उपनाम पाल से जाना जाता था, ने 8 वीं शताब्दी में बलौर या वल्लापुरा राजधानी स्थापित करी थी | वल्लापुरा का उल्लेख राजतरंगिणी में भी मिलता है | घोस लिखते हैं की बसोहली एक स्वतंत्र पश्चिमी हिमालयी पहाड़ी राज्य था, जिसकी राजधानी का नाम भी बसोहली था | पिछली शताब्दी के मध्य तक बसोहली इसकी राजधानी थी | राजधानी को बलौर से बसोहली स्थानांतरित करने की प्रक्रिया शायद १६वी शताब्दी में की गयी थी |
इतिहासकारों द्वारा किये गए अन्वेषण से संकेत मिलता है कि 17 वीं शताब्दी में बसोहली के राजा भूपत पाल को नूरपुर के राजा ने मुगल शासक जहांगीर की सहायता से कैद करवा दिया था। 14 साल जेल में रहने के बाद, भूपत पाल 1627 में न सिर्फ जेल से भाग निकले बल्कि अपना राज्य भी पुनः हासिल किया | १९३५ में उन्होंने मुगल सम्राट शाहजहाँ से मिलने और सम्मान प्रकट करने के लिए दिल्ली की यात्रा की, जहाँ कथित तौर पर नूरपुर के राजा और मुगलों की मिलीभगत से उनकी हत्या कर दी गई थी।
स्थानीय लोगो का क्या कहना है ?
सालों के प्रयास के बाद मिले इस प्रतिष्ठित जीआई टैग में गलत दस्तावेज़ीकरण से बसोहली और पूरे जम्मू क्षेत्र के लोग आक्रोशित हैं | उनकी जीआई टैग मिलने की ख़ुशी आक्रोश में बदल गयी है |
बसोहली चित्रकारी जम्मू क्षेत्र ही नहीं पूरे भारतवर्ष की सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, और कोई भी गलत दस्तावेज, विशेष रूप से जीआई टैग में, बसोहली और उसकी चित्रकला की वास्तविक स्थिति को तोह गलत तरीके से पेश करता ही है, जीआई टैग की प्रामाणिकता को भी कमजोर करता है।
वे लगातार सरकार से बसोहली पेंटिंग्स की विशिष्टता, इतिहास और महत्व को संरक्षित करने का आग्रह करते आ रहे हैं, लेकिन इस तथ्यात्मक रूप से गलत सरकारी दस्तावेज़ीकरण से उनके दिल को बहुत ठेस पहुंची है | उन्हें डर है की बसोहली की कला, संस्कृति, और इतिहास को आगे से हमेशा इन्ही दस्तावेजों के आधार पर देखा जाएगा जो की खुद गलत है |
लोग की मांग हैं कि जम्मू की विरासत का सही तरीके से दस्तावेज़ीकरण किया जाए, और इसकी पहचान आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित की जाए।
साभार Quick Read for actual historical background of Basohli Paintings