
भाजपा के लिए हिंदू चेतना व हित की बात मानो मुखौटा है!
भाजपा और संघ भी नेहरूवाद से भयाक्रांत रही है, और सत्ता में आने के बाद भी उसी मार्ग पर चलती रही है। हिंदू हितैषी वैकल्पिक मार्ग को चुनना, उसकी अंदर की कुंठा का द्योतक है। भाजपा के लिए हिंदू चेतना व हित की बात ही मानो मुखौटा है। पीछे असल चेहरा नेहरू-गांधी का ही है। पढ़िए शंकर शरण का एक ज्वलंत और विचारणीय लेख….
शंकर शरण। घटना अक्तूबर 1997 की है। किसी बात-चीत में भाजपा के एक युवा नेता ने अटल बिहारी वाजपेयी को ‘मुखौटा’ बताया। यह कह कर कि असल नेता तो अन्य हैं। इस का वाजपेयी ने बुरा माना और पार्टी-अध्यक्ष को लिखा। फलतः नेता को पार्टी से कर्म-निकाला सा दे दिया गया। तब से आज तक गंगा-सरयू में बहुत जल बह चुका है।
आज तो कहना होगा कि चेहरा और मुखौटा बताए गए नेताओं में कोई मौलिक भेद न था। बल्कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बाद से ही राष्ट्रवादी राजनीति के सार और रूप, देह और वेश, अंतः और बाह्य, का मामला ही उलट सा गया है। वाजपेयी ही इस के अच्छे प्रमाण थे।
वाजपेयी के वचन-कर्म में अंतर्विरोध नहीं था, जो आरोप उन पर मार्क्सवादी लगाते थे। वे वाजपेयी को ‘क्लोजेट फासिस्ट’ कहते थे, कि उन की उदारता दिखावा है। सत्ता में आने पर असल रूप दिखेगा, जब मुसलमानों को मानो समुद्र में डुबा दिया जाएगा, चौतरफा ‘हिन्दू फासिज्म’ का आतंक होगा, आदि। प्रो. रोमिला थापर ने तो कहा था कि वाजपेयी के सत्तासीन होने पर भारत दशकों पीछे चला जाएगा! लेकिन वाजपेयी सत्ता में आकर वैसे ही उदार रहे। जॉर्ज फर्नांडिस, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, अरुण शौरी, मनोहर जोशी तथा फारुख अब्दुल्ला जैसे नाना रंग-रूप सहयोगियों को वाजपेयी ने स्वतंत्रता से अपनी कहने, करने का अवसर दिया।
बल्कि वाजपेयी शासन में यदि कोई वर्ग रंज हुआ, तो हिन्दू राष्ट्रवादी ही! उन्होंने पाया कि किसी न्यायोचित आशा को पूरी करने या हिन्दू-विरोधी ‘सेक्यूलर’ चलन को खत्म करने पर वाजपेयी ने सोचा भी नहीं। उलटे आर.एस.एस. तक को किनारे करने की प्रवृत्ति दिखाई। इसीलिए जब 2004 के चुनाव में भाजपा अप्रत्याशित पराजित हुई, तो संघ के कई लोग लगभग खुश दिखे। यह कहते हुए कि “अपने लोगों की उपेक्षा करने पर तो यह होना ही था।”
पर वाजपेयी का स्वभाव, विचार तो शुरू से नेहरूवादी झुकाव के जग-जाहिर थे! जनसंघ के सर्वोच्च नेता हो जाने पर भी दिल्ली में प्रतिदिन उन का अधिक समय कम्युनिस्ट पार्टी ऑफिस में वामपंथी दोस्तों के साथ बीतता था। वाजपेयी द्वारा लोक सभा में नेहरू को दी गई श्रद्धांजलि अतुलित प्रशंसा से भरी थी। जबकि नेहरू सदैव खुले इस्लाम-परस्त और हिन्दू-विरोधी रहे थे। ऐसे नेहरू यदि वाजपेयी के आदर्श थे, तो आशा वृथा थी कि वे सत्ता में आकर कोई हिन्दू दुःख दूर करेंगे। क्या वामपंथियों की तरह राष्ट्रवादी भी वाजपेयी से दोहरे चरित्र की अपेक्षा करते थे?
यदि ऐसा था, तो सार और रूप का पूरा मामला समस्या बन जाता है। चेहरा कौन है, मुखौटा कौन ? यह हिन्दू राष्ट्रवादियों का अपना दिग्भ्रम है। वाजपेयी भी इस के उदाहरण थे। अपनी कविता ‘मेरा परिचय’ में वे अपने को ‘हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू’’ कहते हैं। इस में वेद, ब्रह्म-ज्ञान, अकबर की धूर्तता, चित्तौड़ में सहस्त्रों माताओं के जल मरने वाली आग, अपने आराध्य के नाम पर दूसरों को न सताने, आदि कई बातों का उल्लेख है। लेकिन यह कविता, और भगवान राम से नेहरू की तुलना करने वाली श्रद्धांजलि में सीधा अंतर्विरोध है।
किन्तु अधिकांश राष्ट्रवादियों की तरह वाजपेयी ने यह अंतर्विरोध कभी न देखा। इस से उठने वाली समस्याओं का समाधान करना तो दूर रहा! वे अपने सदभाव और कल्पना को ही हिन्दू-चरित्र का आदि-अंत समझते रहे। मानो इसी से सारे दुःख दूर होंगे, और हिन्दू धर्म-समाज के दुश्मन अंततः पराभूत हो जाएंगे। यह गाँधीजी वाली दुराशा थी, जो अनेक दूसरे हिन्दू नेता, विद्वान, आदि भी पालते, दुहराते रहे हैं। संघ-भाजपा के अनेक लोग इस से ग्रस्त रहे हैं। इसीलिए वाजपेयी के वचन और कर्म से परिचित होकर भी उन में वाजपेयी के प्रति उत्साह बना रहा। कुछ ने निराधार कल्पना कर ली कि वाजपेयी की वक्तृता व लोकप्रियता से उन्हें भाजपा का ‘मुकुट’ कहा तो जा रहा है, पर असली नेतृत्व हिन्दू-चेतन है।
यह राष्ट्रवादियों की सामूहिक आत्म-छलना थी, जो आज और अच्छी तरह दिख रही है। सत्ता में उन के एक राष्ट्रपति, दो प्रधान मंत्री, असंख्य मुख्य मंत्री, राज्यपाल, सैकड़ों मंत्रियों, सासंदों, आदि के लंबे अनुभव के बाद भी यह दूर नहीं हुई। उन की आम चेतना वाजपेयी की कविता की तरह भावना में हिन्दू है। उस में सचाई है, कपट नहीं। पर उन की राजनीतिक चेतना नेहरूवादी है। इस में भी कोई छल नहीं।
इसी कारण वाजपेयी ने पार्टी-पत्र ‘आर्गेनाइजर’ में हिन्दू इतिहासकार सीताराम गोयल की महत्वपूर्ण लेख-मालाओं को दो-दो बार हस्तक्षेप करके बंद कराया था। दूसरी बार तो ‘आर्गेनाइजर’ के लब्ध-प्रतिष्ठित संपादक के. आर. मलकानी को भी पद छोड़ना पड़ा। यह वाजपेयी के सीधे हस्तक्षेप से हुआ था। गोयल की लेखमाला पाठकों और कार्यकर्ताओं को सही इतिहास से परिचित कराते हुए रामायण, महाभारत की शिक्षा के अनुरूप सच्ची हिन्दू चेतना दे रही थी। वामपंथी मिथ्या-प्रचारों के प्रति सचेत कर रही थी। इसी पर वाजपेयी नाराज हुए, और गोयल की लेखमाला और मलकानी की कुर्सी, दोनों गई।
बाद में, मलकानी के निधन (2003) पर वाजपेयी ने कहा भी कि ‘हम ने उन के साथ न्याय नहीं किया।’ पर उन्होंने सीताराम गोयल के प्रति किए अन्याय पर कभी अफसोस नहीं जताया। यह हिन्दू-भावना के ऊपर नेहरूवादी-चेतना का, सार के ऊपर रूप का, भारी पड़ना ही था। गाँधी-नेहरू की तरह वाजपेयी भी अपने सचेत आलोचकों के प्रति अनुदार थे। हालाँकि, न्याय के लिए कहना होगा कि यह केवल वाजपेयी की कमी नहीं थी। वरना उन्हें जनसंघ-भाजपा ने सदैव सिर-आँखों पर न रखा होता। न ही सभी भाजपा नेताओं ने सीताराम गोयल जैसे बिरले हिन्दू विद्वानों, शिक्षकों को उपेक्षित किया होता।
इस प्रकार, सत्ता में भाजपा नेताओं का भी नेहरूवादी मार्ग पर चलना सहज स्वभाविक रहा है। उन्होंने कभी वैकल्पिक नीतियों पर माथा-पच्ची नहीं की। फलतः हिन्दुओं के विरुद्ध कानूनन भेदभाव, हिन्दू-विरोधी शिक्षा, मंदिरों व मस्जिदों-चर्चों पर दोहरी नीति, इस्लाम को विशेषाधिकार, अंग्रेजी को सत्ताधिकार, भारतीय भाषा-साहित्य की उपेक्षा, पश्चिम उन्मुखता, गरीब-पक्षी व अमीर-विरोधी होने का भड़कीला दंभ, दलित-ओबीसी-ब्राह्मण जैसे भेदों पर जोर देते हुए हिन्दू समाज को तोड़ना, समाज के बदले पार्टी को प्रमुखता, पार्टी नेताओं की अंध-पूजा, तथा लफ्फाजी-आडंबर का बोलबाला, आदि भाजपा शासनों में भी जारी रहे। यह सब नेहरूवाद का ही अनुकरण है। वाजपेयी ने भाजपा का लक्ष्य ‘गाँधीवादी समाजवाद’ अनायास नहीं रखवाया था। उसे नेहरूवादी समाजवाद का ही दूसरा नाम मानना चाहिए।
वह सब भाजपा ने आमूल स्वीकारा है। इसीलिए संसद में पहुँच कर या सत्ता में आकर उस से भिन्न कुछ करने, बोलने की नहीं सोचती। वरना, उपर्युक्त कुनीतियों में कई सरलता से, बिना विवाद या खर्च के बदली जा सकती थीं। वस्तुतः, यदि चेतना व दृढ़ता हो तो विपक्ष में भी कोई छोटी पार्टी तक उन में कई चीजें बदलवा सकती थी। जबकि भाजपा तो दशकों से देश की दूसरी सब से बड़ी पार्टी रही है!
अतः हिन्दू चेतना व हित की बात ही मानो मुखौटा है। पीछे असल चेहरा नेहरू-गाँधी का ही है। सज्जन, किन्तु अचेत, आत्म-विस्मृत, पश्चिम-प्रभावित, सदभावपूर्ण हिन्दू का चेहरा। इसीलिए वाजपेयी आजीवन भाजपा के प्रतीक बने रहे। वे कभी मुखौटा नहीं थे। वे अपनी पार्टी की वास्तविकता थे।
(जिन्होंने वाजपेयी जी को मुखौटा कहा था वे थे परम आदरणीय श्री गोविन्दाचार्य जी पर यह निजी वार्ता में कहा था , जिसे सार्वजानिक कर दिया पांचजन्य के एक पूर्व संपादक भानुप्रताप जी ने और अंतत: गोविन्द जी को भाजपा से अध्ययन अवकाश लेना पडा .जिनको चेहरा कहा था उन्होंने , वे थे श्री लाल कृष्ण अडवानी जो पक्के अटल पंथी ही निकले! जिन दोनों को और बहुतों को शंकर शरण जी नेहरूपंथी ही साबित कर रहे हैं , उनका लेख अनुद्विग्न चित्त से पढ़ें और मनन करें!
साभार: रामेश्वर मिश्र पंकज के फेसबुक वाल से
url: BJP’s political consciousness is Nehruvian
keywords: BJP, bhartiya Janta Party, nehruvian, hinduism, atal bihari vajpayee, बीजेपी, भारतीय जनता पार्टी, नेहरूवादी, हिंदूवाद, अटल बिहारी वाजपेयी
ज्ञान अनमोल हैं, परंतु उसे आप तक पहुंचाने में लगने वाले समय, शोध, संसाधन और श्रम (S4) का मू्ल्य है। आप मात्र 100₹/माह Subscription Fee देकर इस ज्ञान-यज्ञ में भागीदार बन सकते हैं! धन्यवाद!
Select Subscription Plan
OR
Make One-time Subscription Payment

Select Subscription Plan
OR
Make One-time Subscription Payment

Bank Details:
KAPOT MEDIA NETWORK LLP
HDFC Current A/C- 07082000002469 & IFSC: HDFC0000708
Branch: GR.FL, DCM Building 16, Barakhamba Road, New Delhi- 110001
SWIFT CODE (BIC) : HDFCINBB
Paytm/UPI/Google Pay/ पे / Pay Zap/AmazonPay के लिए - 9312665127
WhatsApp के लिए मोबाइल नं- 8826291284