सुमंत विद्वांस। मंडल कथा (भाग 1) आजादी के कुछ ही वर्षों बाद 1950 के दशक में, पिछड़ी जातियों के कुछ नेताओं ने नेहरू जी से सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग की। उनकी मांग को टालने के लिए नेहरू सरकार ने सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों की स्थिति का अध्ययन करने के लिए 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में पहला पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया।
इस आयोग ने 1955 में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इसमें 2,399 जातियों को पिछड़ा बताया गया और केंद्र सरकार की सेवाओं में उनके लिए 25–40 प्रतिशत नौकरियां आरक्षित करने की सिफारिश की गई।
जब कालेलकर रिपोर्ट आई, तो आंध्र प्रदेश के कुछ ओबीसी नेता नेहरू जी से मिलने गए और उन्होंने यह रिपोर्ट लागू करने की मांग की। नेहरू जी ने बड़े ध्यान से उनकी पूरी बात सुनी और फिर उन्हें टालने के लिए गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत के पास भेज दिया।
पंत जी की राय थी कि कालेलकर रिपोर्ट लागू करने से समाज बंट जाएगा। इसलिए उस रिपोर्ट को न तो कभी संसद में पेश किया गया और न ही उस पर चर्चा हुई। स्वयं कालेलकर जी ने भी जाति को पिछड़ेपन का पैमाना बनाने का विरोध किया था। इसलिए रिपोर्ट पर सहमति नहीं बन पाई और सरकार को भी इसे ठंडे बस्ते में डालने का अच्छा बहाना मिल गया।
यह रिपोर्ट तो लागू नहीं हुई लेकिन 1961 में सरकार ने निर्णय लिया कि आरक्षण किसे मिलना चाहिए, इसका फैसला राज्य सरकारों को लेने दिया जाएगा। लेकिन केंद्र सरकार ने ओबीसी के लिए आरक्षण से इनकार कर दिया गया।
अब राज्य सरकारों ने अपने-अपने आयोग गठित किए। अगले कुछ ही वर्षों में ऐसे पंद्रह आयोग बन गए। दक्षिणी राज्यों ने इस दिशा में पहल की। सब राज्यों ने अपने-अपने कोटे तय किए, जैसे कर्नाटक ने 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया, जबकि पंजाब ने 5 प्रतिशत का।
1977 में जब जनता पार्टी का गठन हुआ, तो उसने अपने घोषणा पत्र में कालेलकर आयोग की रिपोर्ट को लागू करने का वादा किया, पर चुनाव जीतने के बाद उसने भी इस मुद्दे को भुला दिया।
लेकिन मार्च 1978 में बिहार से जनता पार्टी के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने ओबीसी आरक्षण लागू करने का फैसला किया। उन्होंने बिहार में मुंगेरी लाल आयोग की सिफारिशों को लागू करते हुए ओबीसी के लिए 26 प्रतिशत सरकारी नौकरियां आरक्षित करने का निर्णय लिया।
कर्पूरी ठाकुर को उम्मीद थी कि उनका आरक्षण का यह निर्णय कदम जनता पार्टी की खंडित सरकार पर उनकी पकड़ मजबूत करने में मदद करेगा। लेकिन इसके बजाय, उनकी समस्याएं बढ़ गई क्योंकि इस निर्णय से प्रदेश में व्यापक हिंसा शुरू हो गई। तब पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व ने इस मुद्दे को ठंडा करने के लिए एक और समिति गठित कर दी।
अंततः एक समझौता हुआ। कर्पूरी ठाकुर ने अपनी नीति में संशोधन करने पर सहमति दी। उन्होंने सभी जातियों की महिलाओं के लिए 3 प्रतिशत और सभी जातियों के गरीबों के लिए 3 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया। इससे ओबीसी आरक्षण की सीमा 26 से घटकर 20 प्रतिशत रह गई। उन्होंने यह भी तय किया कि ओबीसी में क्रीमी लेयर रहेगी और जिनकी मासिक आय 1,000 से अधिक है, उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।
आरक्षण के समर्थक इससे भड़क गए और जनता पार्टी अंदर से दो हिस्सों में बंट गई। अब आरक्षण का यह मुद्दा इतना विवादास्पद बन गया कि प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इस पर विचार करने के लिए 1979 में दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल को इसका अध्यक्ष नियुक्त किया। इस कारण यह आयोग मंडल आयोग के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
दिसंबर 1980 में जब तक मंडल आयोग की रिपोर्ट तैयार हुई, तब तक इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री बन चुकी थीं और जनता पार्टी अब विपक्ष में थी।
अब विपक्ष ने मांग उठाई कि इस रिपोर्ट को संसद में पेश किया जाए। जब दबाव बढ़ गया, तो इंदिरा गांधी ने अपनी राजनीतिक मामलों की समिति की बैठक बुलाई। इस बैठक में पी. वी. नरसिम्हा राव, कमलापति त्रिपाठी, आर. वेंकटरमन, प्रणब मुखर्जी और ज़ैल सिंह मौजूद थे।
ज़ैल सिंह के अलावा सभी ने रिपोर्ट को लागू करने का विरोध किया क्योंकि यह पिछड़ेपन की पहचान के लिए जाति पर आधारित थी। इंदिरा गांधी दुविधा में थीं। भले ही वे ऊंची जातियों के समर्थन से ही सत्ता में वापस आई थीं, लेकिन उन्हें यह भी पता था कि पिछड़ी जातियों को भी नाराज नहीं किया जा सकता।
उन्होंने घोषणा की कि सरकार मंडल आयोग की सिफारिशों को ‘सैद्धांतिक रूप से’ स्वीकार करती है, लेकिन इसके सभी पहलुओं पर विचार करने के लिए एक ‘मंत्रिस्तरीय समिति’ का गठन कर रही है। इसके अलावा, रिपोर्ट के निष्कर्षों की जांच के लिए एक आधिकारिक समिति बनाने का भी निर्णय लिया गया।
अगले कुछ महीनों तक कुछ नहीं हुआ। फिर एक दिन इंदिरा गांधी ने नरसिंहराव को समिति का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। नरसिंहराव निर्णय न लेने में माहिर थे। वे जिस चीज़ के खिलाफ होते, उसके निर्णय को टालते रहते थे।
इस समिति की बैठकें साल में दो बार होती थी, लेकिन इन बैठकों से कुछ हासिल नहीं होता था। जब भी समिति में कोई विषय उठाया जाता, तो नरसिंहराव अधिकारियों से कहते थे कि उसके प्रभावों का अध्ययन किया जाए। अब अगले एक साल तक अधिकारी इसका अध्ययन करते रहते थे। इसी तरह यह सिलसिला चलता रहा।
इस प्रकार इंदिरा गांधी ने भी ओबीसी के आरक्षण को ठंडे बस्ते में डाल दिया था। यह समिति उनके निधन के बाद भी अस्तित्व में रही और उनके जाने के पांच साल बाद तक भी इसने कोई निर्णय नहीं लिया। इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। वह भी आरक्षण के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने तो पंचायती राज संस्थानों में पिछड़ी जातियों के आरक्षण के प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया था, फिर उनके शासन में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने का तो सवाल ही नहीं था।
जिन वीपी सिंह ने अंततः मंडल आयोग को लागू किया, वे स्वयं भी शुरू में इसके पक्ष में नहीं थे। उनका कहना था कि यदि आरक्षण 100% भी कर दिया जाए तो भी कुछ नहीं होगा क्योंकि जब नौकरियों की संख्या ही सीमित है तो आखिर कितने लोगों को नौकरियां मिलेंगी? इसलिए आरक्षण बढ़ाने की बजाय वे नौकरियां बढ़ाने की बात करते थे।
वीपी सिंह जब से प्रधानमंत्री बने, उसी समय से वे देवीलाल से परेशान थे। अंततः 1 अगस्त 1990 को उन्होंने देवीलाल को अपनी केबिनेट से बाहर निकाल दिया। इसके बाद उन्हें अपनी सरकार बचाने की चिंता करनी थी। इसलिए उन्होंने अब अपनी चाल चलना शुरू किया।
सबसे पहले वीपी सिंह ने अपने कपड़ा मंत्री शरद यादव को फोन लगाया। देवीलाल की बर्खास्तगी के बारे में सुनते ही शरद यादव को लगा कि अब देवीलाल के बिना जनता दल में अपनी स्थिति मजबूत बनाए रखने के लिए उन्हें कुछ करना पड़ेगा। जनता दल उस समय दो गुटों में बंटा हुआ था। एक तरफ वीपी सिंह, आरिफ मोहम्मद खान और सत्यपाल मलिक जैसे पूर्व कांग्रेसी नेता थे और दूसरी ओर देवीलाल व शरद यादव जैसे समाजवादी नेता थे।
वीपी सिंह ने शरद यादव को आश्वासन दिया कि सरकार में जो महत्व पहले देवीलाल को मिलता था, वह अब शरद यादव को मिलेगा। शरद यादव ने भी अपनी योजना बनाई। उन्होंने तय किया कि यदि वीपी सिंह मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने पर सहमत होते हैं तो वे देवीलाल को छोड़कर वीपी सिंह का साथ देंगे और खुद को भी ओबीसी वर्ग के नेता के रूप में स्थापित कर लेंगे। उन्होंने नीतीश, मुलायम और लालू जैसे साथियों को अपना निर्णय भी बता दिया।
देवीलाल 9 अगस्त को दिल्ली में सरकार के खिलाफ एक महारैली करने वाले थे। पूरी संभावना थी कि उस रैली में वे मंडल आयोग की बात उठाएंगे क्योंकि राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार ने मंडल आयोग के बारे में पहले जो समिति बनाई थी, उसके अध्यक्ष भी देवीलाल ही थे। इसलिए वीपी सिंह को 9 अगस्त से पहले अपनी चाल चलनी थी।
2 अगस्त को ही वीपी सिंह ने राष्ट्रीय मोर्चे के संसदीय दल की बैठक बुलाई। दो-तीन सांसदों को उन्होंने पहले ही निर्देश दे दिया था कि वे मंडल आयोग का मुद्दा बैठक में उठाएं और उसके समर्थन में बोलें। तय योजना के अनुसार सांसदों ने इसके पक्ष में आवाज उठाई। शरद यादव ने भी कहा कि 9 अगस्त की देवीलाल की रैली से पहले ही इसकी घोषणा की जाए। अंततः यह तय हुआ कि 7 अगस्त को संसद का सत्र शुरू होते ही इसकी घोषणा कर दी जाएगी।
6 अगस्त को केबिनेट की बैठक बुलाई गई। बैठक के पूर्व निर्धारित एजेंडे को एक तरफ हटाकर वीपी सिंह सीधे ही मंडल का मुद्दा सामने रखा। मुख्य सचिव ने आपत्ति जताई कि उन्हें नहीं बताया गया था कि इस मुद्दे पर चर्चा करनी है, इसलिए उन्हें तैयारी के लिए कुछ दिनों का समय दिया जाए। लेकिन वीपी सिंह ने उनको अनदेखा कर दिया और अपने सामाजिक कल्याण मंत्री रामविलास पासवान को संकेत किया।
पासवान को वीपी सिंह ने पहले ही बता दिया कि केबिनेट की बैठक में इस मुद्दे पर बात करने के लिए तैयारी कर लें। पासवान ने दस मिनट तक मंडल के समर्थन में अपनी बात रखी। फिर शरद यादव, अजीत सिंह, मुफ्ती मोहम्मद सईद जैसे मंत्रियों ने अपनी-अपनी बात कही। विरोध में भी एक-दो स्वर उठे, लेकिन उन्हें तुरंत दबा दिया गया। अंत में वीपी सिंह ने घोषणा कर दी कि केबिनेट ने मंडल आयोग को लागू करने का प्रस्ताव आम सहमति से पारित कर दिया है।
उस समय वीपी सिंह की सरकार भाजपा और वाम दलों के समर्थन पर टिकी हुई थी। इसलिए उनके नेताओं को भी बताना जरूरी था। तब वीपी सिंह ने हरकिशन सिंह सुरजीत और आडवाणी जी को फोन करके यह बताया कि अगले दिन संसद में वे इस बात की घोषणा करने वाले हैं कि केंद्र सरकार की नौकरियों में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होंगी और ओबीसी को 27% आरक्षण मिलेगा।
आडवाणी जी ने आपत्ति उठाई पर वीपी सिंह नहीं माने। उन्होंने अपने सहयोगी सोम पाल को आडवाणी जी से मिलने भेजा। आडवाणी जी ने भी सोमपाल से कह दिया कि वीपी सिंह अगर मंडल पर अड़े रहेंगे, तो फिर भाजपा भी मंदिर (अयोध्या का राम मंदिर) के मुद्दे पर जाएगी।
अगले दिन 7 अगस्त को संसद के दोनों सदनों में प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने घोषणा कर दी कि सरकार मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करेगी।
उसके बाद से भारत की राजनीति हमेशा के लिए बदल गई।
(समाप्त)
(स्रोत: नीरजा चौधरी की पुस्तक हाऊ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड)
साभार: सुमंत विद्वांस के फेसबुक वॉल से।