
नेहरू युग का आधार गांधी जी का ग्राम स्वराज नहीं, बल्कि रूसी समाजवाद था।
सुमंत विद्वांस। मैं अगर कहूं कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरूजी थे, तो आप अवश्य ही मुझसे सहमत होंगे। मैं अगर कहूं कि वे कांग्रेस के नेता थे, तो भी आप मुझसे अवश्य ही सहमत होंगे। लेकिन अगर मैं कहूं कि नेहरूजी वामपंथी थे, तो आप सहमत होंगे? अगर मैं कहूं कि नेहरूजी भारत के सबसे बड़े कम्युनिस्ट थे, तो आप मानेंगे? शायद आप मुझे अज्ञानी कहेंगे या मूर्ख समझेंगे। लेकिन अगर वास्तव में यही सच हो, तो?
इस बारे में अपनी पुरानी राय पर अड़े रहने या आंख मूंदकर मेरी बात मान लेने की बजाय आपको लेखक श्री संदीप देव (Sandeep Deo) की पुस्तक ‘कहानी कम्युनिस्टों की’ पढ़नी चाहिए। कुछ ही दिनों पहले मैंने यह पढ़ी। इसलिए आज इसी के बारे में लिख रहा हूं। पुस्तक १९१७ की रूसी क्रांति से शुरू होती है और 1964 में नेहरूजी के अवसान पर जाकर खत्म होती है। यह पुस्तक निरपराधों के खून से सने लाल झंडे वाले कम्युनिस्टों के काले कारनामों का कच्चा चिठ्ठा खोलने वाली पहली किश्त है। पुस्तक के परिचय में बताया गया है कि यह तीन भागों में आएगी। अब मैं पुस्तक के अगले भाग की प्रतीक्षा में हूं।
ISD 4:1 के अनुपात से चलता है। हम समय, शोध, संसाधन, और श्रम (S4) से आपके लिए गुणवत्तापूर्ण कंटेंट लाते हैं। आप अखबार, DTH, OTT की तरह Subscription Pay (S1) कर उस कंटेंट का मूल्य चुकाते हैं। इससे दबाव रहित और निष्पक्ष पत्रकारिता आपको मिलती है। यदि समर्थ हैं तो Subscription अवश्य भरें। धन्यवाद।
संदीप जी गंभीर लेखक हैं, लेकिन उनका व्यक्तित्व सहज-सरल है। वे जब मिलते हैं, तो सामने वाले पर अपनी विद्वत्ता, ज्ञान या लोकप्रियता का बोझ नहीं डालते। ठीक यही बात उनके लेखन में भी परिलक्षित होती है। बड़े गंभीर और महत्वपूर्ण विषयों को भी वे एकदम सहज-सरल शब्दों में समझा देते हैं और पढ़ने वाले पर भारी शब्दों या क्लिष्ट शैली का बोझ नहीं डालते। सामान्य व्यक्ति को कठिन विषय भी सरल शब्दों में समझा देना भी एक दुर्लभ गुण है और संदीप जी में यह गुण भरपूर मात्रा में है। यह बात उनकी लिखी सभी पुस्तकों में स्पष्ट दिखाई देती है और ‘कहानी कम्युनिस्टों की’ भी इसका अपवाद नहीं है।
मुझे यह कहने में दुख तो है, लेकिन झिझक नहीं है कि भारत के अधिकांश लोग राजनीति के बारे में जागरुक नहीं हैं। राजनीति में सक्रिय तो लाखों लोग हैं, चुनाव में मतदान भी करोड़ों लोग करते हैं, लेकिन ज्यादातर लोगों के लिए किसी नेता या पार्टी के समर्थन या विरोध का कोई मज़बूत वैचारिक आधार नहीं है, बल्कि केवल सुनी-सुनाई बातों, मीडिया में आने वाली सतही खबरों या फिर प्रचार के प्रभाव में ही अधिकतर लोग अपनी राय बनाते हैं। दूसरी तरफ एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है, जो इस मामले में पूरी तरह उदासीन है। उस वर्ग के लोगों को पता ही नहीं होता कि देश-दुनिया में क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है और उनके जीवन पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। बहुत ही कम लोग ऐसे हैं, जो विषय के हर पहलू का अध्ययन कर पाते हैं और सोच-समझकर अपनी राय बनाते हैं। भारत के लोग बड़े गर्व से अपने आप को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं। मुझे लगता है कि इतिहास और राजनीति के बारे में जागरुक रहना भी हम सबका पहला लोकतांत्रिक कर्तव्य है क्योंकि लोग जागरुक रहेंगे, तो ही लोकतंत्र भी सुरक्षित रहेगा। इसलिए मेरी राय है कि इस तरह की पुस्तकें हर किसी को पढ़नी चाहिए और मैं तो ये भी चाहता हूं कि भारत की हर शहर में कम से कम एक पुस्तकालय अवश्य होना चाहिए और उसमें इस तरह की पुस्तकें भी अवश्य होनी चाहिए।
प्रारंभिक भूमिका और प्रस्तावना के बाद पुस्तक की शुरुआत वामपंथी शब्दावली के साथ होती है। इसे बहुत ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि वामपंथ, साम्यवाद, समाजवाद, अधिनायकवाद, भौतिकवाद, वर्गसंघर्ष से लेकर अंतरराष्ट्रीयतावाद और नेहरूवाद तक कई महत्वपूर्ण अवधारणाओं के अर्थ इसी शब्दावली से आपको पता चलेंगे। नेमकॉलिंग और विक्टिम कार्ड जैसे वामपंथी हथियारों का भी परिचय मिलेगा और उनके बारे में पढ़ते-पढ़ते अवश्य ही खुद को गरीबों का मसीहा बताने वाले कुछ लोगों के नाम भी आपको अपने आप याद आ जाएंगे।
यह कहना गलत नहीं होगा कि आधुनिक वामपंथ का प्रारंभ कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजिल्स द्वारा लिखित ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ के साथ हुआ। राष्ट्र विरोध इसके बुनियादी विचारों में से एक है। लेकिन यह विचार भी वामियों की सुविधा के अनुसार बदलता रहता है। जहां वे कमज़ोर हैं, वहां राष्ट्र को तोड़ने और समाज को बिखेरने का प्रयास करते हैं; जब सत्ता पर कब्जा हो जाता है, तो तानाशाह बन जाते हैं। रूस और चीन में यही लेनिन, स्टालिन और माओ के राज में हुआ था और भारत में भी बंगाल, त्रिपुरा और केरल की वामपंथी सरकारों के दौर में लगभग यही देखने को मिला है। हत्यारे नक्सलियों की हिंसा का समर्थन और आतंकियों के मानवाधिकारों के नाम पर वामपंथियों का रुदन भी इसी का नमूना है।
राष्ट्र की अवधारणा के वामपंथी विरोध के कुछ उदाहरण भी संदीप जी ने इस पुस्तक में दिए हैं। प्रथम विश्वयुद्ध में लेनिन अपने ही देश की हार के लिए प्रयासरत था और इसके लिए उसने जर्मनी से भी हाथ मिला लिया था। 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन को विफल बनाने के लिए सीपीआई ने भी अंग्रेज़ों के साथ समझौते किए, अपनी पत्रिका के कार्टूनों में नेताजी सुभाषचंद्र बोस को गधे और कुत्ते के रूप में दिखाकर लगातार अपमानित किया। यही राष्ट्र-विरोध आज भी भारतीय सेना के जवानों की मौत पर वामपंथी संस्थानों में होने वाले जश्न और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारों में प्रकट होता रहता है। इसी प्रकार सरदार पटेल से भी वामपंथी हमेशा ही घृणा करते रहे और यही नेहरूजी के आचरण से भी स्पष्ट दिखता रहा है।
लेकिन नेहरूजी का वामपंथ से भला क्या संबंध हो सकता है? यह समझने के लिए आपको इतिहास में लगभग 100 साल पीछे जाना पड़ेगा 1917 में रूस में कम्युनिस्ट शासन की स्थापना के बाद 1919 में मास्को में एक सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसमें विश्व के ३० देशों से कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि आए थे। इसी सम्मेलन में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का गठन हुआ, जिसे संक्षेप में कॉमिन्टर्न कहा जाता है और यह सोवियत रूस की विदेश नीति का एक मुख्य अंग था।
नेहरूजी भी 1924-25 में कॉमिन्टर्न में शामिल हुए और आजीवन उनका आचरण उसी के अनुरूप रहा। यहां तक कि वे उसके एक सम्मेलन के मानद अध्यक्ष भी बनाए गए थे! वामपंथी विचारधारा के प्रति उनकी गहरी निष्ठा थी। यही कारण है कि प्रधानमंत्री के रूप में उनकी नीतियों में भी गांधीवाद नदारद था और समाजवाद ही छाया हुआ था। वास्तव में यही उनकी सरकार की घोषित नीति थी। यहां तक कि अपनी पुस्तकों में भी उन्होंने गांधीवाद की आलोचना और मार्क्सवाद की प्रशंसा ही की है। विचारधारा के मामले में गांधीजी के साथ उनके विवाद के कई लिखित प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं। वैसे भी प्रमाणों की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि नेहरू युग के कार्यों को देखते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका आधार गांधी जी का ग्राम स्वराज नहीं, बल्कि रूसी समाजवाद ही था।
भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए कॉमिन्टर्न ने तीन समूह बनाए थे, जिनमें से एक समूह का नेतृत्व नेहरू जी के हाथों में सौंपा गया। इस समूह का उद्देश्य भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस की पूरी दिशा को वामपंथ की ओर मोड़ने का था और आज अगर हम तटस्थता से विश्लेषण करें, तो यह स्पष्ट दिखता है कि उन्हें इसमें लगभग पूरी सफलता भी मिली।
एडविना माउंटबेटन और नेहरूजी के घनिष्ठ संबंधों के बारे में प्रमाण सहित बहुत-कुछ लिखा जा चुका है, लेकिन एडविना के वामपंथी कनेक्शन और भारत का वायसरॉय बनने से भी पहले की उनके पति की और नेहरूजी की मित्रता के बारे में शायद कभी चर्चा नहीं हुई। इसी तरह माउंटबेटन को भारत के वायसरॉय नियुक्त करने के बारे में 1946 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री स्टैफर्ड क्रिप्स और नेहरूजी के सहयोगी कृष्ण मेनन के बीच लंदन में हुई गुप्त बैठक या स्वतंत्रता के बाद सोवियत रूस में भारत के राजदूत बनाए गए डॉ. राधाकृष्णन द्वारा विश्व-भर में कम्युनिस्ट रूस के पक्ष में चलाए गए अभियान के बारे में भी शायद बहुत ही कम लोगों को जानकारी है।
मुझे मालूम है कि इस पुस्तक के खुलासों को पढ़कर बहुतों की भावनाएं आहत होंगीं और वर्षों से मन में जमी हुई धारणाओं पर करारी चोट लगेगी। लेकिन अक्सर ही सत्य कठोर और इतिहास निष्ठुर होता है। व्यापक दृष्टि रखकर सत्य का अन्वेषण करना है या अपने पूर्वाग्रहों से चिपटे रहना है, यह तो हर व्यक्ति को स्वयं ही तय करना होता है।
वास्तव में यह पूरी पुस्तक ही नई जानकारियों और खुलासों से भरी पड़ी है। लेकिन यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि लेखक ने कहीं भी अपनी कल्पनाओं या धारणाओं को थोपने का प्रयास नहीं किया है, बल्कि हर दावे के साथ ऐतिहासिक तथ्य और कई पुस्तकों से अनेक उद्धरण भी प्रस्तुत किए हैं, जिनमें से कई तो वामपंथी लेखकों या नेहरूजी की पुस्तकों में से ही हैं। मेरे ख्याल से यह इस पुस्तक की विश्वसनीयता को परखने का सबसे अच्छा पैमाना है। इसके अलावा पुस्तक के अंत में लेखक ने लगभग ५० से भी अधिक पुस्तकों के नाम संदर्भ सूची में दिए हैं। अगर कोई चाहे, तो उन पुस्तकों के द्वारा भी इस पुस्तक के दावों की पुष्टि कर सकता है।
लगभग ४०० पन्नों की इस पुस्तक में लिखी गई सभी बातों और तथ्यों का उल्लेख एक संक्षिप्त लेख में कर पाना असंभव है। उसके लिए तो आपको यह पुस्तक ही पढ़नी पढ़ेगी और पढ़नी भी चाहिए। विशेष रूप से उन लोगों को तो अवश्य ही पढ़नी चाहिए, जो राजनीति में रुचि रखते हैं और इस क्षेत्र में आगे कुछ करना चाहते हैं। आपकी राजनैतिक विचारधारा चाहे जो भी हो, लेकिन अगर आप केवल अपनी ही विचारधारा के अध्ययन तक स्वयं को सीमित रखेंगे, तो आप कभी भी निर्णायक विजय नहीं पा सकेंगे क्योंकि अपने विरोधी को पराजित करने और फिर अपनी जीत को सुरक्षित व कायम रखने के लिए आपको विरोधी के गुण-दोषों, उसके वैचारिक आधार, उसके प्रेरणास्रोतों, उसकी चालों और इतिहास को समझना ही होगा। इसके लिए ऐसी उपयोगी पुस्तकों को पढ़ना बहुत महत्वपूर्ण है। ज्ञान से ही वास्तविक शक्ति मिलती है और ज्ञान पुस्तकों व अनुभवों से ही मिलता है। सादर!
साभार: सुमंत विद्वांस की फेसबुक वाल से|
ज्ञान अनमोल हैं, परंतु उसे आप तक पहुंचाने में लगने वाले समय, शोध, संसाधन और श्रम (S4) का मू्ल्य है। आप मात्र 100₹/माह Subscription Fee देकर इस ज्ञान-यज्ञ में भागीदार बन सकते हैं! धन्यवाद!
Select Subscription Plan
OR Use Paypal below:
Select Subscription Plan
OR
Make One-time Subscription Payment

Bank Details:
KAPOT MEDIA NETWORK LLP
HDFC Current A/C- 07082000002469 & IFSC: HDFC0000708
Branch: GR.FL, DCM Building 16, Barakhamba Road, New Delhi- 110001
SWIFT CODE (BIC) : HDFCINBB
Paytm/UPI/Google Pay/ पे / Pay Zap/AmazonPay के लिए - 9312665127
WhatsApp के लिए मोबाइल नं- 8826291284