श्वेता पुरोहित:-
वाणी का प्रयोग कैसे करें – बृहस्पति जी हमें यह शिक्षा देते हैं कि लोकव्यवहार में वाणी का प्रयोग बहुत ही विचार पूर्वक करना चाहिये । बृहस्पति जी स्वयं भी अत्यन्त मृदुभाषी एवं संयतचित्त हैं। वे देवराज इन्द्रसे कहते हैं – राजन् ! आप तो तीनों लोकोंके राजा हैं, अतः आपको वाणीके विषयमें बहुत सावधान रहना चाहिये; क्योंकि जो व्यक्ति दूसरोंको देखकर पहले स्वयं बात करना प्रारम्भ करता है और मुसकराकर ही बोलता है, उसपर सब लोग प्रसन्न हो जाते हैं-
यस्तु सर्वमभिप्रेक्ष्य पूर्वमेवाभिभाषते ।
स्मितपूर्वाभिभाषी च तस्य लोकः प्रसीदति ॥
(महा०शान्ति० ८४।६)
इसके विपरीत जो सदा भौहें टेढ़ी किये रहता है, किसीसे कुछ बातचीत नहीं करता, बोलता भी है तो टेढ़ी या व्यंग्यमय वाणी बोलता है, शान्त-मधुर वचन न बोलकर कर्कश वचन बोलता है, वह सब लोगोंके द्वेषका पात्र बन जाता है-
यो हि नाभाषते किञ्चित् सर्वदा ध्रुकुटीमुखः ।
द्वेष्यो भवति भूतानां स सान्त्वमिह नाचरन् ॥
(महा०शान्ति० ८४।५)
जीवका सच्चा साथी कौन है – एक बार धर्मराज युधिष्ठिरने बृहस्पतिजी से कहा- भगवन् ! आप सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता, कालकी गतिको जानने वाले तथा सब शास्त्रों के विद्वान् हैं, अतः बताइये कि माता-पिता, पुत्र, पत्नी, गुरु, मित्र तथा बन्धु-बान्धव-इनमें से मनुष्य का सच्चा साथी कौन है? लोग अपने प्रियजनके मृत शरीर को काष्ठ तथा ढेलेके समान त्यागकर चले जाते हैं, तब इस जीवके साथ कौन जाता है?
इसपर बृहस्पतिजी ने कहा- राजन् ! प्राणी अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही दुःखसे पार होता है और अकेला ही दुर्गति भोगता है। पिता-माता, भाई-बन्धु कोई उसके सहायक नहीं होते। केवल किया हुआ धर्माचरण ही जीवात्माके साथ जाता है, अतः धर्म ही सच्चा सहायक है, मनुष्यों को सदा धर्म का ही सेवन करना चाहिये-
तैस्तच्छरीरमुत्सृष्टं धर्म एकोऽनुगच्छति ॥
तस्माद्धर्मः सहायश्च सेवितव्यः सदा नृभिः ।
(महा० शान्ति० १११। १४-१५)
सज्जनों का ही साथ करें – गरुडपुराण के आचारकाण्ड में बृहस्पतिजी द्वारा देवराज इन्द्र को दिया गया उपदेश सुभाषितोंका आकर है, कुछ वचन यहाँ प्रस्तुत हैं। पहले ही सुभाषित में सज्जनोंके सहवास (संगति) की महिमा बताते हुए कहा गया है कि जो मनुष्य पुरुषार्थचतुष्टय की सिद्धि चाहता है, उसे सदैव सज्जनोंका ही साथ करना चाहिये। दुर्जनों के साथ रहने से इहलोक तथा परलोक में भी हित नहीं है-
सद्भिः सङ्गं प्रकुर्वीत सिद्धिकामः सदा नरः ।
नासद्भिरिहलोकाय परलोकाय वा हितम् ।।
(गरुडपु० आ० १०८।२)
नित्य स्मरण रखने योग्य बात क्या है – बृहस्पति जी बताते हैं कि मनुष्यों को दुर्जनों की संगति का परित्याग करके साधुजनों की संगति करनी चाहिये और दिन-रात पुण्य का संचय करते हुए अपनी एवं सांसारिक भोगों की अनित्यता का नित्य स्मरण करते रहना चाहिये-
त्यज दुर्जनसंसर्ग भज साधुसमागमम् ।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यताम् ॥
(गरुडपु० आ० १०८।२६)