रंडी की मस्जिद? रंडी? कितना अजीब शब्द लगता है, अजीब ही नहीं अजीब घृणा से भरा हुआ शब्द लगता है। मगर यह भी दुर्भाग्य है कि दिल्ली के बीचों बीच महिला कार्यकर्ताओं की भीड़ से घिरा यह नाम अभी तक गूँज रहा था। न जाने कितने महिला आयोग बने और कितनी अध्यक्षाएं बनीं और चली गईं, मगर यह रंडी की मस्जिद (Rundi ki masjid) इसी तरह से बुलाई जाती रही। कहने को यह मस्जिद मुबारक बेगम की थी, कौन मुबारक बेगम? और मुबारक बेगम कैसे रंडी बनीं? यह सब दरअसल इतने आपस में गुंथे हुए हैं कि उन्हें सुलझाना मुश्किल और इससे भी ज्यादा हैरान और परेशान करने वाला तथ्य यह है कि रंडी अर्थात मुबारक बेगम एक ब्राह्मण लड़की थी, जिसका धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बना लिया था और फिर डेविड ऑक्टरलॉनी की बेगम बनना!
यह कहानी धर्म परिवर्तन कर एक पहचान गायब कर देने की वह कहानी है जो आज पश्चिम बंगाल की प्रज्ञा देबनाथ तक जारी है, जिसकी पहचान बदल कर उसे पहले आयशा बनाया गया और फिर उसे आतंकवादी बना दिया गया।
ऐसे ही एक बारह बरस की लड़की, जिसने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया और जिसे या तो बेच दिया गया या फिर अपहरण कर लिया गया। नाचने वाली माने रंडी बनाने के लिए उसका पहले धर्म बदला गया और फिर उसे नाचने के बाज़ार में उतारा गया। जिस नाम से उसे नवाजा गया, वह पेशा उसने खुद नहीं चुना था, खैर उसे बारह वर्ष की उम्र में ही ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के डेविड ऑक्टरलॉनी को या तो बेच दी गयी या फिर उसे तोहफे के रूप में दे दिया गया, जैसा व्हाईट मुगल्स, लव एंड बिट्रेयल इन एटीन सेंच्युरी इंडिया में विलियम डारिम्पल (William Dalrymple) लिखते हैं। उन्होंने इस तथ्य को अपने ट्विटर हैंडल में भी बताया है।
सारे ऐतिहासिक तथ्यों को देखा जाए तो यह पता चलेगा कि जिस नाम से उसे बुलाया जाता था, उसने वह कम कितने साल किए थे? क्योंकि यदि इस किताब और विलियम के ट्वीट को पढ़ते हैं तो पाते हैं कि उसका निकाह बारह वर्ष की उम्र में ही हो गया था और डेविड की तेरह बेगमें थीं। उन दिनों चूंकि ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन था और अंग्रेज सेनापति ही मुग़ल सेनापतियों की तरह बर्ताव करने लगे थे और उन्हें अपनी खाल के सफ़ेद रंग का बहुत ही ज्यादा गुरूर था। डेविड का जीवन युद्ध, अय्याशियों और बीवियों का ही चलता फिरता दस्तावेज है।
डेविड की तेरह बेगम थीं। जी हाँ, तेरह! जो अंग्रेज खुद को समाज सुधारक कहने के लिए आगे आगे चलते रहते हैं, वह भी दरअसल उसी कबीलाई तहजीब को ही आगे बढ़ा रहे थे, जिसे मुग़ल लेकर आए थे और नए नए शासक भी मुगलों की उसी अय्याशी की नक़ल करना चाहते थे। डेविड की बेगमों में से सबसे महत्वपूर्ण जगह मुबारक बेगम की ही थी। मुबारक बेगम के हाथों में बहुत ताकत थी। और इसे अंग्रेज पसंद नहीं करते थे, अंग्रेजों के हिसाब से डेविड को अपनी अंग्रेज बीवियों पर ध्यान देना चाहिए था, वहीं डेविड ने अपनी सारी ताकत जनरली बेगम के हाथों में दे दी थी। एक वेबसाईट के अनुसार वह खुद को Lady Ochterlony भी कहलवाती थी। विलियम भी लिखते हैं कि मुबारक बेगम ने एक खत कम्पनी को भेजा था कि Lady Ochterlony हज के लिए जाना चाहती हैं।
देखा जाए, तो यह एक ऐसी सशक्त लड़की की कहानी है, जिसे बचपन में एक ऐसे धंधे और मजहब में धकेला गया, जो उसकी मर्जी नहीं थी। मगर उसके बाद जैसे ही उसमें चेतना आती है वैसे ही वह अपनी शक्ति दिखाती है, वह डेविड के प्रति और डेविड उसके प्रति इतना समर्पित है कि एक तरह से वह ही उसकी तरफ से काफी फैसले लेती है। मुबारक बेगम ने जीवन से हार नहीं मानी थी। मुबारक बेगम के कारण मगर डेविड के अंग्रेज अधिकारी ही उसके दुश्मन हो गए थे।
डेविड ने कम्पनी के लिए कई युद्ध जीते थे और उसने दिल्ली में कई स्मारकों का निर्माण भी कराया। जिनमें से मुबारक बाग़ भी है, जो उसने मुबारक बेगम के लिए दिल्ली के उत्तर में बनाया था।
मगर चूंकि जैसा होता है कि एक सफल लड़की को गिराने के लिए उसके चरित्र पर ही सवाल उठने लगते हैं, ऐसा ही विलियम भी अपनी किताब में लिखते हैं कि चूंकि मुबारक बेगम की उम्र डेविड की उम्र से काफी कम थी, तो उसने अपनी इच्छाओं की पूर्ती करने के लिए कई और लोगों से रिश्ते बना लिए थे। वह लिखते हैं कि एक देखने वाले ने यह कहा कि डेविड की रखैल अब दीवारों के भीतर रहने वाले सभी की रखैल थी।
यही एक जगह है जहाँ पर लड़की को नीचा दिखाने की कोशिश होती है, परन्तु सवाल दिल्ली में रहने वाले इतिहासकारों और स्त्री अधिकारों के लिए लड़ने वालों से है कि आखिर उन्होंने मस्जिद मुबारक बेगम को रंडी की मस्जिद क्यों इतने बरस कहलाने दिया।
डेविड की मृत्यु के बाद मुबारक बेगम ने एक मुसलमान सेनापति से निकाह कर लिया था, जिसने उन्हीं अंग्रेजों के खिलाफ 1857 की क्रान्ति में तलवार उठाई थी, जिन अंग्रेजों के साथ कभी मुबारक बेगम रिश्ता हुआ करता था।
मुबारक बेगम ने जाहिर है यह पेशा अपने आप नहीं चुना था मगर उसे इस पेशे में उस समाज ने उसे हमेशा बनाए रखा और उसी पेशे से इतिहास में जिन्दा रखा जो सबसे निकृष्ट समझा जाता है जबकि वह समाज चाहता तो वह अपनी नायिका के रूप में पेश कर सकता था कि उसने कभी हिम्मत नहीं हारी!
क्या इसलिए उसे अब तक रंडी बनाए हुए थे क्योंकि उसने दूसरे मज़हब में जन्म लिया था या फिर क्या? मैं कारम समझ नहीं पा रही हूँ? वह उसे अभी तक अपना नहीं मान पाए हैं? या फिर क्या? मैं भ्रमित हूँ? शायद बिजली इसी लिए गिरी होगी कि अब उसका नाम फिर से मस्जिद मुबारक बेगम हो जाए क्योंकि वहां जाने वालों को तो शायद उस लड़की पर तरस नहीं आए, मगर कुदरत को तो आता है! कुदरत शायद महिला आयोग और इतिहासकारों और हमारे लेखकों को जगाने के लिए ही ऐसे कदम उठाती है, आप क्या कहते हैं? अवश्य बताइयेगा?
मेरा ये मानना है कि समाज में बहुत तरह के लोग हैं, पर नीच प्रवृत्ति के लोगों ने मुबारक बेग़म को इस दलदल से बाहर नहीं आने दिया ताकि वो खुद के नीच कृत्यों को, अपनी अश्लीलता की पिपासा को पूरा कर सकें। क्योंकि और कोई कारण नहीं हो सकता कि एक महिला के ऊपर किए गए अत्याचार को नज़रअंदाज कर के उसके अपमान, तीरस्कार और शोषण को ही उसका जीवन बताया जाता रहा और ये भी कम लगा तो “रंडी” नाम का संबोधन दे दिया।
यह अत्यंत दुःखद है।
जी, धन्यवाद
अंग्रेज़ जब भारत आये तो उन्हें बहुत गुरूर था अपनी बुद्धि और रंग पे और हिंदुओं को अपने से बुद्धिमान पाकर वो कुंठित हुए ज़रूर हुए होंगे इसमें उन्हें मुसलमान भी अपनी कतार में खड़े दिखे बस यही कारण रहा होगा एक ब्राह्मण कन्या को मलिन से और मलिन करने का।
यह हो सकता है. मुझे कारण समझ नहीं आ रहा इसमें! धन्यवाद
बहुत बेहतरीन लेख सोनाली जी,,,साधुवाद__/__
बहुत धन्यवाद manoj जी! बहुत आभार आपका
बेहतरीन विश्लेषणात्मक लेख।वामपंथियो के द्वारा विकृत साहित्य के अंधकार से निकालने का छोटा लेकिन सशक्त प्रयास। साधुवाद आपके प्रयास को।
बहुत धन्यवाद
बहुत बेहतरीन लेख। आजकल शम्सुर्रहमान फारूकी का एक उपन्यास पढ़ रहा हूँ जिसमे बेगम मुबारकुन्निसा का जिक्र था। गूगल पर खोजबीन के दौरान आपका ये लेख पढ़ने का मौका मिला। इस बेहतरीन लेख के लिए सोनाली जी का बहुत धन्यवाद।
Masjit ki jagah ek smarak bna dena chachiye unka sabhi ke liye misal hogi ki har nahi manni chachiye wese bhi apni marzi se unhone dharam nahi badla tha