Sara Kumari
इंद्री द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना॥
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी॥
भावार्थ:-इंद्रियों के द्वार हृदय रूपी घर के अनेकों झरोखे हैं। वहाँ-वहाँ (प्रत्येक झरोखे पर) देवता थाना किए (अड्डा जमाकर) बैठे हैं। ज्यों ही वे विषय रूपी हवा को आते देखते हैं, त्यों ही हठपूर्वक किवाड़ खोल देते हैं॥
मित्रो, देहधारी जीवात्मा नौ द्वारों वाले नगर में वास करता है, शरीर अथवा नगर रूपी शरीर के कार्य प्राकृतिक गुणों द्वारा स्वतः सम्पन्न होते हैं, शरीर की परिस्थतियों के अनुसार रहते हुये भी जीव इच्छानुसार इन परिस्थतियों के परे भी हो सकता है, अपनी परा प्रकृति को विस्तृत करने के ही कारण वह अपने को शरीर समझ बैठता है और इसीलिये कष्ट पाता है।
भगवद्भक्ति के द्वारा वह अपनी वास्तविक स्थिति को पुनः प्राप्त कर सकता है और इस देह-बन्धन से मुक्त हो सकता है, अतः ज्योंही कोई भगवद्भक्ति को प्राप्त होता है तुरन्त ही वह शारीरिक कार्यों से सर्वथा विलग हो जाता है, ऐसे संयमित जीवन में, जिसमें उसकी कार्यप्रणाली में परिवर्तन आ जाता है, वह नौ द्वारों वाले नगर में सुखपूर्वक निवास करता है, ये नौ द्वार श्वेताश्वतर उपनिषद् 3/18 के अनुसार इस प्रकार है –
नवद्वारे पुरे देही हंसो लेलायते बहिः।
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च।।
यानी, जीव के शरीर के भीतर वास करने वाले भगवान् ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों के नियन्ता है, यह शरीर नौ द्वारों (दो आँखे, दो नथुने, दो कान, एक मुँह, गुदा तथा उपस्थ) से युक्त है, बद्धावस्था में जीव अपने आपको शरीर मानता है, किन्तु जब वह अपनी पहचान अपने अन्तर के भगवान् से करता है तो वह शरीर में रहते हुये भी भगवान् की भाँति मुक्त हो जाता है, अतः भगवद्भक्तिभावित व्यक्ति शरीर के बाह्य तथा आन्तरिक दोनों कर्मों से मुक्त रहता है।
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।।14।।
शरीर रूपी नगर का स्वामी देहधारी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिये प्रेरित करता है और न ही कर्मफल की रचना करता है, यह सब तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है।
सज्जनों! जैसा कि गीता के सातवें अध्याय में बताया गया है, कि जीव तो परमेश्वर की शक्तियों में से एक है, किन्तु वह भगवान् की अपरा प्रकृति है जो पदार्थ से भिन्न है, संयोगवश परा प्रकृति या जीव अनादिकाल से प्रकृति (अपरा) के सम्पर्क में रहा है, जिस नाशवान शरीर या भौतिक आवास को वह प्राप्त करता है वह अनेक कर्मों और उनके फलों का कारण है, ऐसे बद्ध वातावरण में रहते हुये मनुष्य अपने आपको (अज्ञानवश) शरीर मानकर शरीर के कर्मफलों का भोग करता है, अनन्त काल से उपार्जित यह अज्ञान ही शारीरिक सुख-दुख का कारण है।
ज्योंही जीव शरीर के कार्यों से पृथक् हो जाता है त्योंही वह कर्मबन्धन से भी मुक्त हो जाता है, जब तक वह शरीर रूपी नगर में निवास करता है तब तक वह इसका स्वामी प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में वह न तो इसका स्वामी होता है और न इसके कर्मों तथा फलों का नियन्ता ही, यह तो इस भवसागर के बीच जीवन-संघर्ष में रत प्राणी है, सागर की लहरें उसे उछालती रहती है, किन्तु उन पर उसका वश नहीं चलता, उसके उद्धार का एकमात्र साधन है कि दिव्य भगवद्भक्ति द्वारा समुद्र के बाहर आये, इसी के द्वारा समस्त अशान्ति से उसकी रक्षा हो सकती है।
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।।15।।
परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करते हैं, न पुण्यों को, किन्तु सारे देहधारी जीव उस अज्ञान के कारण मोहग्रहस्त रहते हैं, जो उनके वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किये रहता है।
सज्जनों! विभु का अर्थ है परमेश्वर जो असीम ज्ञान, धन, बल, यश, सौन्दर्य तथा त्याग से युक्त है, वह सदैव आत्मतृप्त और पाप-पुण्य से अविचलित रहता है, वह किसी भी जीव के लिये विशिष्ट परिस्थिति उत्पन्न नहीं करता, अपितु जीव अज्ञान से मोहित होकर जीवन की ऐसी परिस्थिति की कामना करता है, जिसके कारण कर्म तथा फल की शृंखला आरम्भ होती है, जीव परा प्रकृति के कारण ज्ञान से पूर्ण है, तो भी वह अपनी सीमित शक्ति के कारण अज्ञान के वशीभूत हो जाता है।
भगवान् सर्वशक्तिमान् है, किन्तु जीव नहीं है, भगवान् विभु अर्थात् सर्वज्ञ है, किन्तु जीव अणु है, जीवात्मा में इच्छा करने की शक्ति है, किन्तु ऐसी इच्छा की पूर्ति सर्वशक्तिमान् भगवान् द्वारा ही की जाती है, अतः जब जीव अपनी इच्छाओं से मोहग्रहस्त हो जाता है तो भगवान् उसे इच्छापूर्ति करने देते हैं, किन्तु किसी परिस्थिति विशेष में इच्छित कर्मों तथा फलों के लिये उत्तरदायी नहीं होते, इसलिये मोहग्रहस्त होने से देहधारी जीव अपने को परिस्थितिजन्य शरीर मान लेता है और जीवन के क्षणिक दुख तथा सुख को भोगता है।
भगवान् परमात्मा रूप में जीव का चिरसंगी रहते हैं, अतः वे प्रत्येक जीव की इच्छाओं को उसी तरह समझते है जिस तरह फूल के निकट रहने वाला फूल की सुगन्ध को, इच्छा जीव को बद्ध करने के लिये सूक्ष्म बन्धन है, भगवान् मनुष्य की योग्यता के अनुसार उसकी इच्छा को पूरा करते हैं, “आपन सोची होत नहिं प्रभु सोची तत्काल” व्यक्ति अपनी इच्छाओं को पूरा करने में सर्वशक्तिमान् नहीं होता, किन्तु भगवान् इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हैं।
वे निष्पक्ष होने के कारण स्वतन्त्र अणुजीवों की इच्छाओं में व्यवधान नहीं डालते, किन्तु जब कोई श्रीकृष्ण की इच्छा करता है तो भगवान् उसकी विशेष चिन्ता करते हैं और उसे इस प्रकार प्रोत्साहित करते हैं कि भगवान् को प्राप्त करने की उसकी इच्छा पूरी हो और वह सदैव सुखी रहें, अतएव कौषीतकी उपनिषद् 3/8 का वैदिक मन्त्र पुकार कर कहते हैं –
एष उ ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते।
एष उ एवासाधु कर्म कारयति यमधो निनीषते।।
यानी, भगवान् जीव को शुभ कर्मों में इसलिये प्रवृत्त करते हैं जिससे वह ऊपर उठे, एवम् भगवान् उसे अशुभ कर्मों में इसलिये प्रवृत्त करते हैं जिससे वह नरक जायें।
ॐ नमः शिवाय