पृथ्वीराज चौहान की असफलता पर आत्ममंथन करने की जगह इसके निदेशक डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी भारत की संस्कृति, भाषा और इतिहास को ही नकारने के रास्ते पर चल पड़े हैं। पृथ्वीराज चौहान में अत्यधिक ऊर्दू के प्रयोग को लेकर चंद्रप्रकाश द्विवेदी जी का दुराग्रह ‘जयपुर डायलॉग’ के साक्षात्कार में खुलकर प्रकट हो गया। ज्यों-ज्यों उनका साक्षात्कार सुनता जा रहा था, उनकी हठधर्मिता पर दया आती जा रही थी!
‘चाणक्य’ धारावाहिक के शोध के कारण मैं उन्हें उन्नत श्रेणी का शोधकर्ता समझता था, लेकिन पृथ्वीराज चौहान सिनेमा में ऊर्दू की उनकी हठधर्मिता और प्रस्तुत साक्ष्य देखकर पता चला कि वह तो ‘विकिपीडिया विद्वान’ हैं! ऊर्दू-हिंदी को लेकर उनके सारे नरेशन उसी विकृत ‘पंचमक्कार थ्योरी’ के आसपास घूमते हैं, जिसको पढ़ और सुनकर अब हंसी आती है!
द्विवेदी जी ने यह साबित करने का भरपूर प्रयास किया कि हिंदी का अपना कोई शब्द ही नहीं है। उन्हें न संस्कृत और हिंदी के संबंधों का इतिहास पता है, और न तत्सम-तद्भव शब्दों का अन्नोनाश्रित संबंध। व्यावसायिकता या फिर यह जो ‘सबका विश्वास जीतने’ की यूटोपियाई थ्योरी चली है, उसमें फंस कर ‘धारावाहिक वाले चाणक्य’ की यह दुर्गति हो जाएगी, यह सोचा नहीं था कभी।
चूंकि काफी सारे भारतीयों का मन अभी भी औपनिवेशिक दासता में फंसा है, इसलिए पहले विदेशी विद्वानों का उद्धरण देता हूं। बिना विदेशी सर्टिफिकेट के एक खास तरह के हिंदुओं का आत्मविश्वास ही नहीं जगता! सर W.W हंटर के अनुसार, ‘ यूरोपीयन के द्वारा संस्कृत के अध्ययन के साथ ही वर्तमान भाषा शास्त्र का उदय हुआ।’ अर्थात संस्कृत भाषा के पूर्व कोई भाषा शास्त्र दुनिया में था ही नहीं।
सर W जोन्स का कहना है कि ‘देवनागरी (पुरानी नगरी, ब्राह्मी) लिपि ही वह मूल स्रोत है जिससे पश्चिम एशिया की सारी वर्णमाला उत्पन हुई।’ डॉ द्विवेदी जिन शब्दों को फारसी, अरबी भाषा का बता रहे हैं, वह लिपि भी ब्राह्मी से विकसित हुई है, यही जोन्स कह रहे हैं, और आगे इसका एक और विस्तृत संदर्भ देता हूं।
विदेशी विद्वान प्रीटचर्ड का मानना है कि ‘ग्रीक भाषा, प्राचीन फारसी और संस्कृत के बीच घनिष्ठ संबंध है। सजातीय मुहावरों का प्रयोग यह सिद्ध करता है कि वो सब एक ही स्रोत से निकले हैं। इस तथ्य को कोई नहीं नकारेगा कि ग्रीक लोगों का धर्म किसी पूर्व के स्रोत से उत्पन्न हुआ था। अतः हमें मान लेना चाहिए कि ग्रीस का धर्म और भाषा भी बहुत अधिक अंशों में पूर्व(अर्थात पूर्व के देश यानी भारतवर्ष) से ही उत्पन्न हुई।’
इसे आगे बढ़ाते हुए विदेशी भाषाशास्त्री पोकॉक कहते हैं कि ‘ग्रीक भाषा संस्कृत से व्युत्पन्न हुई है।’ एक समय संपूर्ण विश्व ही सनातन धर्मी था, यही प्रीटचर्ड और पोकॉक के कथन से स्पष्ट है। फारसी की लिपि ब्राह्मी से कैसे अलग हुई उसे संस्कृत के उद्भट विद्वान पंडित मधुसूदन ओझा ने अपनी पुस्तक ‘इंद्रविजय’ (प्रथम संस्करण 1930) में बताया है।
डॉ ओझा के अनुसार, ‘प्राचीन भारत में ऋज्राश्व नामक एक ऋषि थे। उनका एक दौहित्र(नाती) जरथुष्ट्र (पारसी धर्म और उसके धर्म ग्रंथ जेंदावस्था के उद्घाटक) था, जो ब्राह्मणों से घृणा करता था। ब्राह्मणों से अपने इसी द्वेष के कारण उसने ‘ब्राह्मी लिपि’ को त्याग कर विपरीत अर्थात उल्टे क्रम में ‘खरोष्ठी लिपि’ की रचना की।’
आज भी फारसी, अरबी और भारत में ही विकसित ऊर्दू की लिपि देवनागरी और पुरानी देवनागरी अर्थात ब्राह्मी लिपि से विपरीत दिशा में लिखी जाती है। इन भाषाओं का कोष संस्कृत और ब्राह्मी की ही देन है। जरथुष्ट्र ने बलपूर्वक आसुर धर्म को लोक में चलाया। यह लंबी कथा है, इस पर फिर कभी। लेकिन मेरा मानना है कि अपने मूल स्रोत को बिना देखे और परखे, ‘पंचमक्कारों’ की थ्योरी से ही घुमाफिरा कर अपनी अज्ञानता को ढंकने की जिद अहंकार की श्रेणी में आता है, न कि विद्वता की श्रेणी में।
डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी जी पंचमक्कारों के साहित्य और विकिपीडिया से बाहर निकलिए, भारत का शास्त्र बहुत समृद्ध है, उसका अध्ययन कीजिए। सबका विश्वास अर्जित करने के प्रयास में आप अपने अंदर का विश्वास भी खो रहे हैं और लोगों का भरोसा भी तोड़ रहे हैं। जय जनार्दन! 🙏