Sonali Misra. ऐसा प्रतीत होता है कि इतिहास अध्ययन के क्षेत्र में अब तक इस सरकार से जो शिकायतें थीं, सरकार ने उन पर ध्यान दिया है और कार्य भी किया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्नातक में इतिहास का जो मसौदा पाठ्यक्रम आया है, वह कम से कम यही कह रहा है कि अब बच्चों को भारत का विचार अर्थात आइडिया ऑफ इंडिया से ही शुरुआत करनी होगी।
यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि एनसीईआरटी की इतिहास की पुस्तकें पढ़कर बच्चा पहले ही भारत से दूर हो जाता है, उसके सामने इतिहास की पुस्तक में पितृसत्ता, ब्राह्मणवाद जैसे शब्द परोस दिए जाते हैं। आत्मनिर्णय का अधिकार और बौद्ध धर्म से ही भारत का विकास हुआ है जैसे तथ्य प्रस्तुत कर दिए जाते हैं और वह उन्हीं में फंसकर रह जाता है।
परन्तु स्नातक में इतिहास में जो अभी मसौदा पाठ्यक्रम सामने आया है, उसने संभवतया उन सभी क्षतियों की भरपाई करने का प्रयास किया है, जो अब तक हो चुकी हैं। सबसे महत्वपूर्ण है, प्रथम खंड और जो है आईडिया ऑफ भारत। जी हाँ, भारत न कि इंडिया।
जब भी हम भारत की बात करते हैं तो हम एक भौगोलिक सीमा में बंधे हुए इस भारत की बात नहीं करते, बल्कि हम एक दर्शन की बात करते हैं, जो भारत है। जो किसी भी भौगोलिक सीमा में बंधा हुआ नहीं है और न ही वह किसी पश्चिमी ईसाई शक्ति द्वारा दिए गए छद्म नाम का पर्याय है।
यह दर्शन भौगोलिक इंडिया नहीं बल्कि भारत हैं। जैसे ही इसकी घोषणा हुई है वैसे ही स्पष्ट है कि भगवाकरण के आरोप भी हवाओं में तैरने लगे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के सहायक प्रोफ़ेसर जितेन्द्र सिंह मीणा का कहना है कि यह नया पाठ्यक्रम धार्मिक अध्ययन को प्रोत्साहित करता है, जबकि धर्मनिरपेक्ष पुस्तकों जैसे कौटिल्य रचित अर्थशास्त्र जैसे ग्रन्थों पर बात नहीं करता है।
स्वाभाविक है कि एक समय तक भारत के अस्तित्व को नकारने वाले लोग अब कैसे भारत के विचार को स्वयं में समाहित कर पाएँगे? परन्तु जब हम प्रथम पेपर पर दृष्टि डालते हैं तो हमें कई ऐसे विषय प्राप्त होते हैं जिन पर वाकई न केवल बात होनी चाहिए बल्कि साथ ही यह भी प्रश्न उठाना चाहिए कि इन विषयों पर अब तक बात क्यों नहीं हुई?
आज जब सनौली में हुए उत्खनन में रथ प्राप्त हुआ है तो क्या हमें इस पर बात नहीं करनी चाहिए कि आज से चार हज़ार साल पहले का हमारा विज्ञान कैसा रहा होगा? कैसा हमारा दर्शन रहा होगा कि हमारे यहाँ अंतिम संस्कार की पृथक पृथक पद्धतियाँ थीं और आज से चार हज़ार साल पहले भी स्त्री योद्धा हुआ करती थीं।
परन्तु स्पष्ट है कि जब भी हम भारतीय साहित्य या वैदिक साहित्य की बात करेंगे तो कांग्रेस उसके विरोध में आ जाएगी। कांग्रेस के मुखपत्र नेशनल हेराल्ड में भी इस बात को लेकर आपत्ति जताई है कि Eternity of Synonyms Bharat और धार्मिक साहित्य जैसे वेद, उपनिषद, स्मृति और पुराणों को दिल्ली विश्व’विद्यालय में इतिहास (ऑनर्स) के प्रथम प्रश्नपत्र में सम्मिलित किया गया है।
इसके साथ ही इस पाठ्यक्रम में तीसरा प्रश्नपत्र है उसमें “सिन्धु-सरस्वती सभ्यता” पर भी एक टॉपिक है। नेशन हेराल्ड के अनुसार सिन्धु एक काल्पनिक नदी है तो उसके विषय में बात करना पाठ्यक्रम को साम्प्रदायिक रंग देना है।
इसी के साथ इसमें प्रथम प्रश्नपत्र में धर्म और दर्शन के विषय में भारतीय परिप्रेक्ष्य, वसुधैव कुटुम्बकम, नीति एवं प्राशासन, जनपद और गरमा स्वराज्य जैसे विषयों के लिए भी एक इकाई है। इसके साथ ही जो एक वर्ग विशेष को, अर्थात भारत को नकारने वालों को परेशान कर रहा है वह है प्राचीन भारत में विज्ञान और तकनीक, पर्यावरणीय संरक्षण के विषय में भारतीय विचार और आयुर्वेद एवं प्राकृतिक चिकित्सा के साथ भारतीय अंक प्रणाली और गणित का अध्ययन।
जितेन्द्र सिंह मीणा जैसे लोगों को और जो बातें परेशान कर रही हैं वह है मुग़ल काल के इतिहास को एक इकाई में ही समेट देना। जहां पहले मुगल काल को ही भारत का पूरा इतिहास बनाकर प्रस्तुत कर दिया जाता था और उसके लिए तीन यूनिट प्रदत्त थीं। यही कारण है कि मीणा जी का कहना है कि मुगल इतिहास को अनदेखा किया गया है।
परन्तु यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि क्या केवल मुग़ल इतिहास ही भारत का इतिहास है? परन्तु इनकी पीड़ा यहीं तक सीमित नहीं है क्योंकि इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण शब्द आया है वह है आक्रान्ता अर्थात invasion। तैमूर के लिए भी आक्रमण का प्रयोग किया गया है एवं बाबर के लिए भी। हालांकि हूण और यूनानी आक्रमण का भी उल्लेख है, परन्तु मीणा जी को यह आपत्ति है कि केवल मुस्लिम आक्रमणकारियों के लिए invasion शब्द का प्रयोग किया गया है और ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए नहीं। तो ऐसे में लगता है कि उन्होंने इसे पूरा पढ़ा नहीं है और केवल विरोध करने के लिए ही विरोध कर रहे हैं। इसके साथ ही इसमें आर्य आक्रमण के झूठ पर भी अध्याय है।
एक प्रश्न इस विषय पर प्रश्न उठाने वालों से है कि क्या बाबरनामा में यह उल्लेख नहीं है? क्या इन आक्रमणों का उल्लेख बाबर नामा में नहीं है? क्या हिन्दुओं को मारने का उल्लेख और मंदिर तोड़ने का उल्लेख बाबर नामा में नहीं है? पर वह बाबरनामा के प्रमाणों को स्वीकार न करके केवल उन तर्कहीन तथ्यों पर चलते हैं जिन्हें इरफ़ान हबीब ने एक एजेंडे के अंतर्गत स्थापित किया है कि बाबर यहाँ पर आया था। वह क्या करने आया था? इस विषय पर मौन हैं?
खैर, इनकी पीड़ा और टेलीग्राफ की पीड़ा यहीं पर समाप्त नहीं होती है, इन्हें समस्या है कि उन इतिहासकारों की पुस्तकों को क्यों सम्मिलित किया गया जो भारत के हिन्दू इतिहास में विश्वास करते हैं। जिनके लिए इतिहास हड़प्पा की खुदाई से शुरू नहीं होता है।
इसके साथ ही टेलीग्राफ के लेख से ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह एक पक्ष बनकर स्वयं बात कर रहा है और सैंट स्टीफंस कॉलेज के कथित छात्र के मुख से अपनी बातें रख रहा है। Cultural Heritage of India नामक इकाई में रामायण और महाभारत को सम्मिलित किया गया है और यही टेलीग्राफ की पीड़ा है। वह उस विद्यार्थी के हवाले से लिखता है कि इन्हें पढ़ाए जाने से आपत्ति नहीं है परन्तु इनका अनावश्यक वीरता प्रदर्शन कड़वाहट में वृद्धि करेगा।
यह हास्यास्पद है कि आप मुगलों द्वारा किए गए कत्लोआम का उल्लेख वीरता से कर सकते हैं, पर रामायण महाभारत का नहीं। इनके दोगले मानकों का विरोध होना चाहिए और एक प्रश्न यह भी पूछा जाना चाहिए कि यदि इरफ़ान हबीब को आप महान इतिहासकार मान सकते हैं, जिनकी विचारधारा मार्क्सवादी है, परन्तु भारतीयता का समर्थन करने वाले व्यक्ति इनकी दृष्टि में संघ के लोग हैं? यह कैसी दोहरी मानसिकता है?
जबकि सभी जानते हैं कि यह इतिहासकार न केवल एकपक्षीय दृष्टि रखे हुए हैं बल्कि भाई भतीजावाद का समर्थन करने वाले हैं, सत्ता के संरक्षण में रहकर सत्ता के पक्ष में आवाज़ उठाने वाले हैं। परन्तु निष्पक्ष नहीं हैं। आज जब सत्ता के बदलने के छ वर्ष उपरान्त भारतीयता की दृष्टि से सही इतिहास पर कार्य हो रहा है तो इनका बिलबिलाना स्वाभाविक है क्योंकि भारतीय दृष्टि को जानकर विद्यार्थी नकली आज़ादी की बात न करके अपने देश, भारत से जुड़े रहेंगे, जो इनके देश तोड़क एजेंडे के खिलाफ है, इसलिए टेलीग्राफ को दर्द है, इसलिए नेशनल हेराल्ड के बहाने से कांग्रेस को दर्द है और वामपोषित मीडिया और प्रोफेसरों को दर्द है।
स्वागत किया ही जाना चाहिए, अपने इतिहास का, अपनी दृष्टि का! बस यही देखना है कि भगवाकरण के आरोपों से डर कर यह कदम वापस न हों। क्योंकि इनमें हर क्षेत्रीय शक्ति का विवरण है, आत्मगौरव का इतिहास यह प्रतीत हो रहा है। क्योंकि जिन चोल, पल्लव, पांड्य आदि वंशों को छोड़ दिया गया था, वह सब इसमें सम्मिलित हैं। इसमें 1857 की क्रान्ति को महज़ क्रान्ति या सैन्य विद्रोह न कहकर स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम कहा गया है।
इनमें स्वतंत्रता संग्राम के हर नायक को स्थान देने का प्रयास किया गया है तथा यदि यह कदम पहले उठाए जाते तो और बेहतर होता। परन्तु जब जागे तभी सवेरा, हर भारत प्रेमी की आकांक्षा को पूर्ण करने के लिए हाल फिलहाल सरकार को धन्यवाद दिया जा सकता है, यदि यह ड्राफ्ट पर भगवाकरण के आरोपों से विचलित न हों तो! यह स्वागतयोग्य कदम है
सराहनीय पहल। सरकार को निडर होकर इसे लागू करना चाहिए।?