विपुल रेगे। केंद्र सरकार सन 1952 से बना सिनेमेटोग्राफ एक्ट बदलने जा रही है। नए नियमों के तहत अब भारत सरकार के पास देश, राज्य और नागरिकों के हित में अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता पर रोक लगाने का ठोस विकल्प होगा। इसका अर्थ ये होता है कि सभी भाषाओं के फिल्म उद्योग मनमानी फ़िल्में नहीं बना सकेंगे। विशेष रुप से भारत विरोधी या भारत की छवि को प्रभावित करने वाली कृति अब स्वतंत्र होकर विष नहीं फैला सकेगी। पाइरेसी रोकने के लिए भी इस एक्ट में परिवर्तन किया जाएगा।
केंद्र सरकार के इस निर्णय का स्वागत होना चाहिए। हालाँकि फिल्म उद्योग की ओर से इसे लेकर असहमति के स्वर आना शुरु हो गए हैं। अब फिल्म उद्योग का एक धड़ा भारतीय वायु सेना की छवि ख़राब करने वाली फिल्म बनाने से पूर्व सौ बार सोचेगा। अब किसी कृति या फिल्म को लेकर न्यायालय की अवमानना नहीं की जा सकेगी।
भारत की संप्रभुता और अखंडता के खिलाफ कोई भी सामग्री समीक्षा के लिए केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को वापस भेजी जा सकती है या अवरुद्ध की जा सकती है। निश्चित ही ये संशोधन पहले ही कर दिया गया तो समाज विभिन्न प्रकार के विषवमन से बच सकता था।
ये निर्णय एक दैत्याकार जिन्न को बोतल में बंद करने में सफल होगा या नहीं, ये तो भविष्य ही तय करने वाला है। गत वर्ष जब कैबिनेट में केंद्र एक्ट में परिवर्तन का प्रस्ताव लाई थी तो उसके महत्वपूर्ण भाग को मीडिया में प्रचारित नहीं होने दिया गया था। एक और महत्वपूर्ण परिवर्तन ये होने जा रहा है कि फिल्म सर्टिफिकेट देने के लिए आयु की श्रेणियों को भी बदला जाएगा।
अब U/A 7+, U/A 12 + और U/A +16 जैसे आयु आधारित वर्गीकरण किये जाएंगे। ये परिवर्तन फिल्म निर्माता-निर्देशकों को संकट में डाल देगा। इस तरह के श्रेणी विभाजन से वयस्क और बाल दर्शक की कैटेगिरी में बड़ा अंतर आएगा। इसको देखते हुए फिल्मकारों को अपनी फिल्मों में कंटेंट डालना होगा। इसका सीधा अर्थ ये होगा कि सपरिवार देखने वाली फिल्मों में मामूली से वयस्क दृश्य भी नहीं डाले जा सकेंगे।
ये परिवर्तन दर्शक वर्ग के लिए निश्चित ही सुखद रहेगा। हालाँकि आदत से मजबूर फिल्मकारों के पास गंदगी परोसने के लिए ओटीटी प्लेटफॉर्म है, जहाँ विष्ठावमन पर किसी तरह की रोक नहीं है। फिल्म उद्योग इस परिवर्तन का स्वागत नहीं करने वाला है। वह इस पर रोक लगाने के लिए संगठित होकर कोर्ट की शरण अवश्य लेगा।
हालांकि कर्नाटक उच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार केंद्र सेंसर बोर्ड द्वारा पहले से प्रमाणित फिल्मों के संबंध में पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकता है, लेकिन संशोधन का प्रस्ताव है कि अगर सरकार ऐसा करना आवश्यक समझती है, तो बोर्ड के अध्यक्ष को निर्देश दे सकती है किसी विशेष फिल्म की फिर से जांच करें।
निश्चित ही न्यायालय के रुख से स्पष्ट हो जाता है कि एक्ट में परिवर्तन के लिए केंद्र को बहुत से मोर्चो पर जूझना पड़ सकता है। संघर्ष इसलिए तय है कि परिवर्तन के बाद फिल्मों के कंटेंट में बदलाव लाना होगा और फिल्म उद्योग का एक धड़ा इसके लिए तैयार नहीं दिखता। इसका ठोस कारण है कि वे अब एजेंडे वाली फ़िल्में कैसे बना सकेंगे। एक्ट को लेकर संग्राम न्यायालय के अंदर मचने जा रहा है।