कमलेश झा । भारत की विविध संस्कृति का एक अभिन्न अंग यहां के पर्व हैं। भारत में ऐसे कई पर्व मनाए जाते हैं जो बेहद कठिन माने जाते हैं और इन्हीं पर्वों में से एक है छठ पर्व। छठ को सिर्फ पर्व नहीं महापर्व कहा जाता है। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व में व्रति को लगभग तीन दिन का व्रत (उपवास) रखना होता है जिसमें से दो दिन तो निर्जली व्रत रखा जाता है।
छठ षष्ठी का अपभ्रंश है। छठ पर्व कार्तिक मास की अमावस्या को दिवाली मनाने के ठीक छः दिन बाद कार्तिक शुक्ल षष्ठी को होती है इसी कारण इस व्रत का नामकरण छठ व्रत हो गया। छठ पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र (अप्रैल-मई) में और दूसरी बार कार्तिक (अक्टूबर-नवम्बर) में। चैत्र शुक्लपक्ष षष्ठी को मनाए जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्लपक्ष षष्ठी को मनाए जाने वाले छठ को कार्तिकी छठ व ‘डाला छठ’ कहा जाता है।
क्यों मनाते हैं छठः-
छठ पर्व की परंपरा सदियों से चली आ रही है। यह परंपरा कैसे शुरू हुई, इस सन्दर्भ में एक कथा का उल्लेख पुराणों में मिलता है। इसके अनुसार प्रियव्रत नामक एक राजा की कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्ति के लिए महर्षि कश्यप ने उन्हें पुत्रयेष्ठी यज्ञ करने का परामर्श दिया। यज्ञ के फलस्वरूप महारानी ने एक शिशु को जन्म दिया किंतु वह शिशु मृत था। इस समाचार से पूरे नगर में शोक व्याप्त हो गया तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। आकाश से एक ज्योतिर्मय विमान धरती पर उतरा और उसमें बैठी देवी ने कहा, मैं षष्ठी देवी और विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूं। इतना कहकर देवी ने शिशु के मृत शरीर को स्पर्श किया, जिससे वह बालक जीवित हो उठा। इसके बाद से ही राजा ने राज्य में यह त्योहार मनाने की घोषणा दी।
दूसरी पौराणिक मान्यता के अनुसार कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी के सूर्यास्त और सप्तमी के सूर्योदय के मध्य वेदमाता गायत्री का जन्म हुआ था। प्रकृति के षष्ठ अंश से उत्पन्न षष्ठी माता बालकों की रक्षा करने वाले विष्णु भगवान द्वारा रची माया हैं। बालक के जन्म के छठे दिन छठी मैया की पूजा-अर्चना की जाती है, जिससे बच्चे के ग्रह-गोचर शांत हो जाएं और जिंदगी में किसी प्रकार का कष्ट नहीं आए। अतः इस तिथि को षष्ठी देवी का व्रत होने लगा।
इसके साथ-साथ यह भी कहा जाता है कि जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत किया। इससे उसकी मनोकामनाएं पूरी हुई तथा पांडवों को राजपाट वापस मिल गया। इसके अलावा छठ महापर्व का उल्लेख रामायण काल में भी मिलता है।
एक मान्यता यह भी है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मानकर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी, तालाब या पोखर के किनारे यह पूजा की जाती है।
कैसे मनाते हैं छठ महापर्वः-
चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व की शुरुआत नहाय-खाय के साथ ही शुरू हो जाती है। सूर्य उपासना का यह पर्व पूरे बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और पड़ोसी देश नेपाल में अपार श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इस पर्व में नियम-निष्ठा, पवित्रता-शुचिता, सफाई का बहुत खयाल रखा जाता है। पूजा में तनिक भी भूल होने पर अपशकून होने की आशंका से लोग भयभीत रहते हैं। यूं तो एक मात्र प्रत्यक्ष देवता सूर्य की पूजा भारत ही नहीं पूरे विश्व में किसी न किसी रूप में वर्ष भर मनाई जाती है, लेकिन छठ पूजा के मौके पर सूर्य की उपासना का ढंग निराला है। इसमें न केवल उगते, बल्कि डूबते सूर्य को भी अर्घ्य दिया जाता है। वैसे तो छठ पर्व व्रति की हर मनोकामना को पूरा करने वाला है, पर लोग इसे सबसे ज्यादा पुत्र प्राप्ति की कामना से करते हैं।
यही कारण है कि उत्तर प्रदेश के गोंडा, कानपुर और आस-पास के जगहों पर लोग पुत्र की प्राप्ति हो जाने के बाद भादव या भाद्रपद (अगस्त-सितम्बर) के महिने में कृष्ण जन्माष्टमी से दो-तीन दिन पहले ‘ललई छठ’ भी मनाते हैं।
छठ पर्व का केवल धार्मिक महत्व ही नहीं, बल्कि ऊर्जा के अक्षय स्त्रोत सूर्य की पूजा और उन्हें अपसंस्कृत वस्तुओं का भोग लगाया जाना पर्यावरण संरक्षण के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। छठ पूजा में प्रसाद के रूप में नई फसलों का उपयोग किया जाता है। इसमें गन्ना, सिंघाड़ा, नींबू, हल्दी, अदरक, नारियल, केला, सेब, संतरा के अलावा आटा, चीनी एवं घी के मिश्रण से बनी ‘ठेकुआ’ जैसी वस्तुएं प्रकृति के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने के इस पर्व के महत्व को स्पष्ट करती है। छठ पूजा में मिट्टी के बने हाथी चढ़ाए जाते हैं, जो इस पर्व के माध्यम से प्रकृति प्रदत्त इस अद्भूत जीव के संरक्षण का संदेश देती है। मिट्टी के बने हाथी को नई तैयार धान की फसल चढ़ाई जाती है।
चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व के पहले दिन (नहाय-खाय) महिलाएं अपने बाल धोकर चावल, लौकी और चने की दाल का भोजन करती हैं और अपने घर में देवकरी (पूजा-स्थल) में सारा सामान रखकर दूसरे दिन आने वाले व्रत की तैयारी करती हैं। छठ पर्व पर दूसरे दिन (जिसे आमतौर पर खड़ना कहा जाता है) पूरे दिन व्रत रखा जाता है और शाम को गन्ने के रस की खीर बनाकर देवकरी में पांच जगह कोशा (मिट्टी के बर्तन) में रखकर उसी से हवन किया जाता है। बाद में प्रसाद के रूप में खीर का ही भोजन किया जाता है और सगे-संबंधियों को बांटा जाता है।
तीसरे यानी छठ के दिन 24 घंटे का निर्जला व्रत रखा जाता है। पूरे दिन पूजा की तैयारी की जाती है और पूजा के लिए एक बांस की बनी हुई बड़ी टोकरी, जिसे ‘दौरी’ कहते हैं, में पूजा के सभी सामान डालकर देवकरी में रख दिया जाता है। देवकरी में गन्ने के पेड़ से एक छत्र बनाकर और उसके नीचे मिट्टी का एक बड़ा बर्तन, दीपक तथा मिट्टी के बने हाथी रखे जाते हैं और उसमें पूजा का सामान भर दिया जाता है। अब इस दौरी को घर के पुरुष अपने सिर पर लेकर नदी, समुद्र, पोखर या तालाब पर ले जाते हैं। नदी किनारे जाकर नदी से मिट्टी निकालकर छठ माता का चौरा बनाते हैं, वहीं पूजा का सारा सामान रखकर नारियल चढ़ाते हैं और दीप जलाते हैं। उसके बाद टखने भर पानी में जाकर खड़े होते हैं और डूबते हुए सूर्य देव की पूजा के लिए सूप में सारा सामान लेकर पानी से अर्घ्य देते हैं और पांच बार परिक्रमा करते हैं। सूर्यास्त होने के बाद सारा सामान लेकर सोहर गाते हुए घर आ जाते हैं और देवकरी में रख देते हैं। इसके बाद श्रद्धालू अलसुबह सूर्योदय से दो घंटे पहले पूजा का नया सामान लेकर नदी किनारे जाते हैं। पूजा का सामान फिर उसी प्रकार नदी से मिट्टी निकालकर चौक बनाकर उस पर रखा जाता है और पूजन शुरू होता है।
सूर्य देव की प्रतीक्षा में महिलाएं हाथ में सामान से भरा सूप लेकर सूर्य देव की आराधना और पूजा नदी में खड़े हो कर करती हैं। जैसे ही सूर्य की पहली किरण दिखाई देती है, सब लोगों के चेहरे पर एक खुशी दिखाई देती है और महिलाएं अर्घ्य देना शुरू कर देती हैं। शाम को पानी से अर्घ्य देते हैं, लेकिन सुबह दूध से अर्घ्य दिया जाता है। इस समय सभी लोग नदी में नहाते हैं तथा गीत गाते हुए पूजा का सामान लेकर घर आ जाते हैं। घर पहुंच कर देवकरी में पूजा का सामान रख दिया जाता है और महिलाएं प्रसाद लेकर अपना व्रत खोलती हैं तथा प्रसाद परिवार व सभी परिजनों में बांटा जाता है।
छठ पूजा में कोशी भरने की मान्यता है। अगर कोई अपने किसी अभिष्ट के लिए छठ मां से मनौती करता है, तो वह पूरी करने के लिए कोशी भरी जाती है। इसके लिए छठ पूजन के साथ-साथ गन्ने के बारह पेड़ से एक समूह बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा, जिस पर 6 दिए होते हैं, देवकरी में रखे जाते हैं और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी किनारे पूजा की जाती है। नदी किनारे गन्ने का एक समूह बनाकर छत्र बनाया जाता है, उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है । कोशी की इस अवसर पर काफी मान्यता है। यही कारण है कि छठ के एक गीत, “कांचही बांस के डलवा बुनाओल कोशिया भराओल रे…….” में बताया गया है की छठ मां को कोशी कितनी प्यारी है। इस तरह से छठ का महापर्व की समाप्ति होती है और फिर से आने वाले साल का इंतजार किया जाता है।
URL: Chhath Mahaparv: Legends, rituals and scientific significance
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