वर्ष 2020 मे चीन अमेरिका को पीछे छोड़ यूरोपीय संघ का सबसे बड़ा व्यापारिक सांझेदार बन गया है. कोरोना महामारी के चलते यूरोप के प्रमुख सांझेदार देशों के बीच व्यापार घटा लेकिन चीन ने इस ट्रेंड को किसी प्रकार से रोक लिया.
पिछले साल चीन और यूरोपीय संघ के बीच व्यापर 709 अरब डॉलर का रहा, जबकि इसकी तुलना में यूरोपीय संघ के साथ अमेरिका का व्यापार वर्ष 2020 में 671 अरब डॉलर ही रहा.
तो ये जो व्यापार का मुद्दा है चीन और यूरोपीय संघ के बीच, यही एकमात्र ऐसा मुद्दा है जिसके चलते यूरोपीय संघ जितना हो सके, चीन से जुड़े ऐसे मुद्दों से खुद को दूर रखता है, जिनपर खुलकर बोलने से उसके और चीन के व्यापारिक संबंधो पर कोई आंच आये.
हालांकि यूरोपीय देश अब बोलने तो ज़रूर लगे हैं चीन के विरुद्ध विभिन्न अंतराष्ट्रीय मुद्दों को लेकर, क्योंकि चाहे वह हाँग कांग का मुद्दा हो या फिर चीन मे ही एक समुदाय विशेष के मानवधिकार हनन का मुद्दा हो, लेकिन वे बहुत ही दबी दबी आवाज़ मे उसकी आलोचना करते हैं और अमेरिका के विपरीत उस पर किसी भी प्रकार के प्रतिबंध लगाने से कतराते हैं.
और इस दबी दबी आलोचना की मुख्य वजह व्यापार ही है. चीन के व्यापारिक प्रलोभनों के जाल में यूरोपीय देश दिन ब दिन फंसते चले जा रहे हैं. अब इन देशों की सारी पहचान ही लिबरल मूल्यों पर आधारित है – स्वतंत्त्रता, मानवधिकार, यही सब मूल्य. और चीन जैसा देश इसके उलट मानवधिकारों को कुछ मानता ही नही. बल्कि उसके लीडर्ज़ तो अन्तराष्ट्रीय मंचों पर ये खुल्लम खुल्ला कहते दिखाई देते हैं कि ये जो मानवधिकारों का कांसेप्ट है, ये बड़ा ही दुर्भाग्य्पूर्ण कांसेप्ट है, एक छलावा है. ऐसा कोई कांस्पेट तो होना ही नही चाहिये!
तो अब ये अपने आप मे आश्चर्य की बात है कि एक इतना लिब्रल कांटिनेंट यूरोप एक चीन जैसे तानाशाह देश के साथ न सिर्फ अपनी व्यापारिक सांझेदारी बढा रहा है बल्कि अमेरिका के साथ अपने संबंधों & चीन के साथ अपने संबंधों के बीच तालमेल बिठाने की कोशिश कर रहा है कि कहीं उसे दोनों मे से किसी एक को न चुनना पड़े. लेकिन ऐसा भला कब तक संभव हो पायेगा?
दिसम्बर 2020 मे चीन और यूरोपीय संघ के बीच एक व्यापार समझौते को लेकर सहमति बनी थी. China EU Comprehensive Agreement on Investment नाम से ये समझौता काफी आगे बढ चुका है हालांकि इस पर अभी यूरोपीय संसद की मोहर लगनी बाकी है. यूरोपीय संसद की मोहर लगने के बाद ही यह समझौता औपचारिक तौर पर कार्यांवित हो सकेगा.
लेकिन आलोचकों का कहना है इस समझौते ने जो नुकसान पहुंचाना था, पहुंचा दिया है. और अगर ये कार्यंवित नही भी हो पायेगा तो भी इस नुकसान की भरपाई करना मुश्किल होगा.
अब इस समझौते ने किसको नुकसान पहुंचाया है और किस प्रकार का नुकसान पहुंचाया है, इसके लिये इस समझौते की पृष्ठ्भूमि जानना बेहद आवश्यक है.
यह समझौता कथित तौर पर तो यूरोप के लिये चीन मे निवेश करने के रास्ते आसान बनाता है और बहुत से ऐसे सेक्टर्ज़ मे यूरोपीय कंपनियों के निवेश के लिये रास्ते खोलता है, जिनमे अभी तक यह कंपनियां निवेश नहीं कर सकती थीं. इस समझौते के अंतर्गत कथित तौर पर चीन लेबर राइट्स यानि कामगारों के अधिकारो को लेकर भी यूरोपीय संघ से कुछ वादे करता है कि वह वर्कर्ज़ के अधिकारों से जुड़े कुछ अन्तराष्ट्रीय नियम कानूनों को मानेगा.
जैसा कि हम जानते हैं कि कामगारों के अधिकारों को लेकर चीन का ट्रैक रिकार्ड बेहद खराब रहा है. शिंजैंग क्षेत्र के लेबर कैम्प्स के बारे मे भी आये दिन कहानियां सुनने को मिलती रहती हैं.
अब आलोचकों का कहना है कि सर्वप्रथम तो चीन जैसा देश,जो सभी अन्तराष्ट्रीय नियम कानूनों तो ताक पर रख अपनी मनमर्ज़ी चलाता है, जो हाँग कांग के प्रजातंत्र को कुचल रहा है, जो ताइवान को हर प्रकार से विश्व मे अलग थलग करने की कोशिश कर रहा है, और पता नही शायद किसी दिन उस पर आक्रमण भी कर दे, और भी बहुत कुछ कर रहा है, ऐसे देश से अगर यूरोपीय संघ इस प्रकार की उम्मीद रखता है कि वह किसी भी लिखित समझौते को बड़ी गम्भीरता से लेगा, तो यह उसकी सबसे बड़ी मूर्खता है.
और दूसरी बात, जैसा कि आलोचक कहते हैं , वह यह है कि इस समझौते का टाइमिंग जो है, वह भू राजनीतिक लिहाज़ से काफी संदेह पैदा करने वाला है. दिसम्बर मे जब यूरोपीय संघ और चीन के बीच इस समझौते पर सहमति बनी थी, उससे कुछ दिन पहले ही, अमेरिका और यूरोपीय संघ की बातचीत चल रही थी चीन को लेकर. और दोनों के बीच ऐसी किसी सांझेदारी पर पहुंचने को लेकर बातचीत चल रही थी, जिसके अंतर्गत चीन की गलत एकानमिक प्रैकटिसिज़ से एकसाथ मिलकर निबटा जा सके. दोनों मिलकर एक सांझा रणनीति बनायें चीन को आर्थिक क्षेत्र मे व्यापार के क्षेत्र मे रास्ते पर लाने के लिये, उसे अंतराष्ट्रीय नियम कानूनों को मानने हेतु बाध्य करने के लिये. और अक्टूबर 2020 से ये बातचीत शुरू हुई थी.
अब फिर कुछ् ही दिनों मे जो बाइडन राष्ट्रपति पद पर आसीन होने वाले थे. ट्र्म्प के शासनकाल मे यूरोपीय संघ को अमेरिका से बड़ी शिकायत थी कि वह चीन को लेकर बड़े ही आक्रामक तरीके से एकतरफा पालिसी परस्यू कर रहा है. उसके साथ व्यापार युद्ध छेड़ उस पर प्रतिबध पर प्रतिबंध लगाता जा रहा है. लेकिन यूरोपीय संघ के साथ मिल्कार उसके साथ negotiate करने की कोशिश कर रहा है.
तो अब तो जो बाइडन अमेरिका के राष्ट्पति हैं. तो ये तो बहुत अच्छा मौका था यूरोपीय संघ के पास अमेरिका के साथ मिलकर चीन को लेकर किसी समझौते तक पहुंचने का. लेकिन उससे पहले ही चीन ने यूरोपीय संघ को अपने साथ समझौता करने के गेम मे घसीट लिया.
उसने यूरोपीय संघ को थोड़ा सा प्रलोभन दिया की तुम्हारी कंपनियां हमारे अमुक क्षेत्रों मे अब निवेश कर पायेंगी. और बस ऐसा करके उसने अमेरिका और यूरोपीय संघ के बीच अपने विरुद्ध होने वाली सांझेदारी को शुरू होने से पहले ही रोक लिया.
तो ये ड्रैगन की एक सियासी चाल थी जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि यूरोपीय संघ और अमेरिका उसे लेकर एकमत न हो पायें. और इस प्रकार का डिवाइड एंड रूल का खेल ड्रैगन बहुत समय से खेलता आया है. चाहे वह क्वैड ग्रुपिंग हो या यूरोपीय संघ या फिर कोई और अंतराष्ट्रीय ग्रुपिंग, वह यह बिल्कुल नही चाहता कि ये सब आपस मे मिलकर उसके बढ्ते वर्चस्व के विरुद्ध रणनीति बनायें और इसीलिये वह इस प्रकार का गेम खेलता है.
जहां तक यूरोपीय कंपनियो के चीन मे निवेश करने की बात है, तो शायद उससे इन कंपनियों को थोड़ा बहुत मुनाफा हो जाये, लेकिन चंद कंपनियों के लालच की वजह से क्या राष्ट्र हित को और पूरे विश्व के हित को ताक पर रखना उचित है?
और फिर चीन अपनी स्टेट एंटर्प्राइज़ेज़ को लेकर, अपनी खुद की सरकारी कंपनियों को लेकर बहुत ज़्यादा आक्रामक है. इसीलिये ऐसा सोचना कि ये यूरोपीय कंपनियां इस समझौते के बाद वहां रातोंरात जाके अपना बहुत बड़ा व्यापार जमा लेंगी, ये भी मूर्खता ही है.
यूरोपीय संघ व्यापारिक क्षेत्र मे चीन पर आश्रित होता जा रहा है, बल्कि उसके अधीन होता जा रहा है. इससे उसकी खुद की अर्थव्यवस्था पर भी आगे जाकर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और ये बात उसे अभी नही दिखाई दे रही है. उसे अभी सिर्फ अपना थोड़ा सा फयदा दिखाई दे रहा है. और ये ड्रैगन की मोड्स औपरेंडी है कि वह किसी भी देश को लालच मे फंसा थोड़े समय के लिये उसके साथ ऐसा व्यवहार करता है जिससे उस देश को लगे कि हमे बहुत फायदा हो रहा है लेकिन आगे चलकर फिर उसे अपने अधीन बना लेता है.
यूरोपीय संघ जिस प्रकार से चीन के साथ यह समझौता कर रहा है, यह भारत के लिये भे बहुत दुख की बात है, क्योंकि भारत सरकार इतनी दृढ़्ता से चीन को सबक सिखाने का प्रयास कर रही है. उसने चीन की इतनी सारी एप्स को प्रतिबंधित किया, जिससे चीन बुरी तरह तिलमिला तो गया ही, उसे आर्थिक नुकसान भी हुया. भारतीय वैज्ञानिक सोनम वांगचुक ने चीनी सामान को बहिष्कृत करने की इतनी बड़ी मुहिम छेड़ी जो अभी भी चल रही है.
चीन ने भारत की सीमा पर्र इतनी अधिक घुसपैठ की लेकिन अंतत: भारत ने अभी के लिये तो उसे अपनी सीमाओं से दूर भगा दिया. ऐसे मे यूरोपीय संघ के देश, जो कि सभी विकसित देश हैं, इनमे से कितने तो जी 7 के सदस्य हैं, जब ये तथाकथित विकसित देश चीन के सभी गलत कार्यो को अनदेखा कर उसके सामने घुटने टेक देते हैं तो भारत जैसे देश को तो दुख होगा ही.
जब कोरोना वायारस का कहर अपनी चरम सीमा पर था, तो यूरोप पी पी आई किट्स, आदि के आयात के लिये पूरी तरह चीन पर आश्रित था. जबकि भारत ने इन सभी चीज़ों का उत्पादन खुद शुरू क दिया और फिर उस स्थिति मे पहुंच गया कि वह पी पी ई किट्स आदि निर्यात भी कर रहा है..
कोरोना वायरस सबसे ज़्यादा यूरोपीय देशो मे फैला. और शुरुआती खबरो के अनुसार तो जो चीन के टेक्स्टाइल वर्कर्ज़ इटली की टेक्स्टाइल फैक्ट्री मे काम करते थे, उनके वहां जाने से फैला. कोरोना वायरस संक्रमण को लेकर जो चीन की संदिग्घ भूमिका है, उसे लेकर तो यूरोपीय संघ को हंगामा कर देना चाहिये था. लेकिन वह चुप है सिर्फ अपने व्यापारिक हितों के चलते.
हालांकि जैसे कि हमने पहले भी कहा था कि ऐसा नही है कि यूरोपीय संघ के भीतर से चीन के विरुद्ध आलोचना की आवाज़ें उठती नही है. उठती ज़रूर हैं लेकिन उतनी बुलंद नही हो पातीं, वह कोई ठोस कदम नही उठा पाता क्योंकि फिर वह चीन के साथ अपने व्यापारिक संबंधों के बोझ तले दब जाता है. क्या जी7 देश अबकी बार खड़ा कर पायेंगे ड्रैगन को कटघरे में?