विपुल रेगे। रिलीज के पहले दिन ही निर्देशक रोहित शेट्टी और रणवीर सिंह की ‘सर्कस’ के तंबू उखड़ गए हैं। ये फिल्म देखने के बाद कहा जा सकता है कि शेट्टी का जादू अब ख़त्म हो चुका है। रोहित शेट्टी को बॉलीवुड में विशुद्ध मनोरंजन देने के लिए जाना जाता है और ‘सर्कस’ में वह मनोरंजन एक भी फ्रेम में मौजूद नहीं है। 100 करोड़ की लागत से बनी ‘सर्कस’ रविवार तक भी दौड़ नहीं सकेगी। रोहित और रणवीर के कॅरियर की ये सबसे दयनीय फिल्म सिद्ध हुई है।
ये फिल्म दर्शकों को कम और फिल्म मेकिंग के स्टूडेंट्स को अधिक देखनी चाहिए। ‘सर्कस’ देख वे सीख सकते हैं कि एक इतनी बुरी फिल्म कैसे बनाई जाए, जो रिलीज के पहले दिन ही फ्लॉप घोषित कर दी जाए। सच में इस फिल्म में देखने के लिए कुछ भी नहीं है। गुलज़ार की क्लासिक ‘अंगूर’ की इतनी भौंडी कॉपी स्वयं गुलज़ार को भी नहीं देखनी चाहिए। हो सकता है गुलज़ार फ़िल्में बनाने से तौबा कर ले।
फिल्म निर्देशक रोहित शेट्टी के फिल्म कॅरियर की शुरुआत ‘ज़मीन’ से हुई थी। अजय देवगन के साथ ‘सिंघम’ उनके कॅरियर का सर्वोच्च बिंदू था। चूँकि सिंघम एक रीमेक थी लेकिन रोहित ने महाराष्ट्रीयन बैकग्राउंड में उसे खूबसूरती के साथ बनाया था। ‘सिंघम’ तो वास्तव में तमिल फिल्म निर्देशक हरि गोपालाकृष्णन का बनाया हुआ ब्रांड है, जिसे शेट्टी ने बहुत भुनाया है। ‘सर्कस’ की कहानी एक अनाथालाय से शुरु होती है।
यहाँ एक दिन चार बच्चे आते हैं। ये जुड़वा बच्चे हैं। इस अनाथालाय की देखभाल एक वैज्ञानिक करता है। वह प्रयोग के लिए इन चारों बच्चों की दो जोड़ियां बनाकर दो परिवारों को गोद दे देता है। वह ये सिद्ध करना चाहता है कि संस्कार परवरिश से बनाए जाते हैं न कि पैदाइश से। फिर जब ये चारों एक शहर में एक साथ होते हैं तो कन्फ्यूजन क्रिएट होने लगते हैं। शेक्सपियर की ‘कॉमेडी ऑफ़ एरर्स’ गुलज़ार की ‘अंगूर’ की फ़िल्मी माँ थी।
उस विश्वप्रसिद्ध नाटक का एसेंस गुलज़ार की फिल्म में बखूबी दिखाई देता था और उसका भारतीयकरण सुंदर ढंग से किया गया था। रोहित शेट्टी की ‘सर्कस’ क्लासिक ‘अंगूर’ की भौंडी और उबाऊ रीमेक है। ये इतनी उबाऊ है कि इसे पूरी देखना भी खुद के धैर्य की परीक्षा लेने के समान है। स्क्रीनप्ले बिलकुल फ़्लैट है। इसमें कॉमेडी की सिचुएशन बहुत कम दिखाई दी है। फिल्म की कॉस्टिंग में लोचा है।
कॉमेडी बेअसर है। कोई वॉव मूमेंट आखिर तक सामने नहीं आता है। कहानी में डाले गए कन्फ्यूजन स्वाभाविक नहीं लगते हैं। डायलॉग इतने कमज़ोर हैं कि दर्शक को खीज महसूस होने लगती है। वर्बल कॉमेडी दम नहीं पकड़ती और फिजिकल कॉमेडी बचकानी है। पूजा हेगड़े का किरदार कैची नहीं है, स्वाभाविक नहीं लगता। शेट्टी उनसे मनमाना काम नहीं ले पाए हैं।
जैकलीन फर्नांडीज को एक्टिंग नहीं आती, ये बात फिल्म निर्देशकों को कब समझ आएगी। रणवीर सिंह ओवरएक्टिंग कर गए हैं। वे अपने डबल रोल के किरदारों में कोई अंतर नहीं दिखा पाए हैं। दोनों ही किरदार एक से लगते हैं। एक संजय मिश्रा ही हैं, जो मिसफायर नहीं हुए। उनके दृश्य अच्छे हैं लेकिन आप एक कॉमेडियन के बल पर फिल्म हिट नहीं करा सकते।
फिल्म चालीस से साठ के दशक में जाती है इसलिए दृश्यों में पुराना दौर दिखाने की कोशिश की गई है। ये कोशिश अतिवाद पर चली जाती है। फिल्म की कलर टोन देख ऐसा लगता है, आप एक कार्टून फिल्म देख रहे हो। दृश्यों को बहुत अधिक ब्राइटनेस और रंगों के साथ फिल्माया गया है, जिसके कारण फिल्म आँखों को चुभती है।
शेट्टी ने कलाकारों से पुराने दौर के कलाकारों की तरह अभिनय करवाने की कोशिश की है, जो फिल्म के लिए बुरी, बहुत बुरी साबित हुई। ये फिल्म नहीं, एक हादसा है, जो बॉक्स ऑफिस पर घटित हुआ है। अब इस वीकेंड में ‘अवतार : द वे ऑफ़ वॉटर’ के कलेक्शन में फिर उछाल आ जाएगा। रोहित शेट्टी अधिक प्रयोग नहीं करते। या तो उनके पास गोआ का ईसाई बैकग्राउंड है या मुंबई से लेकर मुंबई में ख़त्म हो जाने वाली कहानियां हैं।
सिंघम ब्रांड ने उनकी दूकान को ज़िंदा रखा हुआ है। ‘सर्कस’ के हादसे ने स्पष्ट कर दिया है कि दक्षिण भारतीय सिनेमा की एंट्री के बाद हिन्दी पट्टी का टेस्ट बदल गया है। इस वीकेंड ‘सर्कस’ देखना पैसों के साथ अपने मानसिक स्वास्थ्य की हानि करने जैसा काम होगा। यदि अवतार का दूसरा भाग न देखा हो तो देख डालिये और यदि देख लिया है तो आज गुलज़ार की क्लासिक ‘अंगूर’ देख डालिये। आपका वीकेंड खूबसूरती से बीतेगा।