सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित संविधान दिवस पर बोलते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने कहा कि न्यायधीशों पर जो सोशल मीडिया पर हमले बढ़ रहे हैं, उनके खिलाफ केन्द्रीय संस्थाएं कदम उठाएं.
उन्होंने कहा कि हाल ही के दिनों में मीडिया में और विशेषकर सोशल मीडिया में न्यायपालिका पर हमले बढे हैं, और ऐसा लगता है जैसे वह निशाना बनाकर किए जा रहे हैं. न्यायिक अधिकारियों पर शारीरिक हमले हो रहे हैं, और ऐसे में कानून व्यवस्था लागू करने वाली संस्थाओं का यह उत्तरदायित्व है कि वह ऐसे हमलों से निबटें. सरकारों से अपेक्षा की जाती है वह ऐसा माहौल बनाएं, जिसमें न्यायपालिका और न्यायिक अधिकारी सही से कार्य कर सकें.”
मुख्य न्यायाधीश द्वारा बोले गए इस वक्तव्य में जैसे एक पीड़ा झलक रही थी. परन्तु यह गौर करने लायक है कि वह अभी ही क्यों यह बोल रहे हैं, जब आम जनता आलोचना कर रही है? आम जनता के डोमेन में न्यायलय का हर निर्णय आता है, और वह उस पर चर्चा करती है. और उसी चर्चा के कारण उत्पन्न संतोष और असंतोष को वह सोशल मीडिया द्वारा व्यक्त करती है. यदि न्यायालय का निर्णय सराहनीय है तो वह प्रसन्नता व्यक्त करती है और यदि उस निर्णय के खिलाफ जाकर सरकार कुछ कदम उठाती है तो वह सरकार को ही कोसती है.
सरकार द्वारा पलटे गए ऐसे निर्णय जिनकी प्रशंसा जनता ने की थी:वर्ष 2018 में उच्चतम न्यायालय ने एससी/एसटी अधिनियम में परिवर्तन करते हुए कहा था कि किसी की फ़ौरन गिरफ्तारी नहीं की जाएगी और इसके साथ ही शिकायत मिलते ही तुरंत केस भी दर्ज नहीं होगा. शीर्ष अदालत ने कहा था कि शिकायत मिलने के बाद डीएसपी स्तर के पुलिस अधिकारी ही शुरुआती जांच करेंगे और फिर यह जांच सात दिनों से अधिक समय तक नहीं चलनी चाहिए. यही नहीं उच्चतम न्यायालय ने इस कानून के दुरूपयोग की ओर ध्यान खींचा था.
जनता ने इस निर्णय का समर्थन किया था. परन्तु कुछ लोग जिनका स्वार्थ इससे प्रभावित हो रहा था, उन्होंने इस कानून का विरोध किया और अपनी राजनीति का हथियार बना लिया था. इस निर्णय के विरोध में हिंसक प्रदर्शन होने लगे थे. और फिर उसके बाद तत्कालीन एनडीए सरकार ने इस निर्णय के विरोध में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन कानून 2018 प्रस्तुत किया था. और उसमें इस निर्णय को पलट दिया था, और शिकायत के बाद गिरफ्तारी वाली सभी धाराएं लागू रखी थीं.
जब यह मामला उच्चतम न्यायलय गया था तो उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार को राहत देते हुए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन कानून 2018 को अनुमति दे दी थी. और फिर से शिकायत मिलने के बाद तुरंत एफआईअआर दर्ज होना और गिरफ्तारी सुनिश्चित हो गयी थी. और यह कहा था कि कोर्ट केवल उन्हीं मामलों में अग्रिम जमानत दे सकती है, जहाँ पर पहली नजर में मामला नहीं बनता है.
इस मामले में एक बड़ा वर्ग उच्चतम न्यायालय के पहले निर्णय के साथ था, परन्तु बाद में उस वर्ग के साथ का फायदा नहीं हुआ और वोटबैंक की राजनीति के आगे सरकार और न्यायालय दोनों ने ही हार मान ली. 2- कुछ और पहले चलते हैं और शाहबानो के मामले पर जाते हैं. भारत के लोग आज तक शाहबानो मामले पर न्यायालय के साथ हैं और तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार के खिलाफ हैं. 62 साल की इंदौर की रहने वाली शाहबानों को उनके पति ने तलाक दे दिया था, वह गुजारा भत्ता पाने के लिए कोर्ट गईं और न्यायालय ने उनके पति को गुजारा भत्ता देने का निर्देश दिया, जो उस समय उनके पति के बहाने मुस्लिम समाज को अपने निजी मामलों में दखल लगा तो उन्होंने विरोध प्रदर्शन किया, तो राजीव गांधी की तत्कालीन सरकार ने एक कानून बना दिया और इसे मुस्लिम वुमन प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स एक्ट 1986 कहा गया. उसमें केवल महिलाओं को इद्दत (अलग होने) के दौरान ही गुजारा भत्ता की अनुमति दी गयी.
जनता आज तक उच्चतम न्यायालय को स्मरण करती है इस निर्णय के लिए!
3- इंदिरा गांधी को अयोग्य ठहराने वाला मामला एक और निर्णय है जिसकी प्रशंसा आज तक देश की जनता करती है और वह है वर्ष 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनावी कदाचार का दोषी ठहराया जाना. और इसके साथ ही उन्हें जनप्रतिनिधितव कानून के अंतर्गत किसी भी निर्वाचित पड़ पर रहने से रोक दिया था. और फिर पूरे देश को पता है क्या हुआ था!
इंदिरा गांधी पर आरोप था कि उन्होंने अपने निजी चुनाव कार्यों के लिए सरकारी अधिकारियों का प्रयोग किया था, उन्होंने चुनावी मशीनरी का दुरूपयोग किया था, इसलिए उन्हें न्यायालय ने दोषी ठहराया था. इसलिए जनता आज तक उस निर्णय को स्मरण करती है और साहस को याद करती है.
जनता को भावविभोर करने वाले निर्णय, जिनका जनता ने स्वागत किया था
1. श्री पद्मनाभ मंदिर के खजाने पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय से देश का कितना बड़ा वर्ग प्रसन्न हुआ था, यह बताने की आवश्यकता नहीं है. यह निर्णय एक आस की भांति आया था.
2- श्री रामजन्मभूमि का निर्णय
सैकड़ों वर्षों के संघर्ष के उपरान्त जब न्यायालय से श्री रामजन्मभूमि का निर्णय आया था, तो इस निर्णय से पूरे विश्व का हिन्दू समाज कितना प्रसन्न हुआ था और उल्लास की जो लहर दौड़ी थी, वह हर शब्दों से परे है. हिन्दुओं के मंदिरों पर आए इन निर्णयों से जनता की आस्था न्यायालय में दृढ हुई थी. अत: आम जनता पर यह आरोप निरर्थक है कि जनता न्यायालय का आदर नहीं करती. जनता न्यायालय, न्यायाधीशों का आदर करती है, बशर्ते जो निर्णय हैं, वह न्याय की मूल परिभाषा के दायरे में हों.
जनता द्वारा किन निर्णयों का विरोध: अब आइये कुछ अजीबोगरीब निर्णयों पर दृष्टि डालते हैं, जिनपर जनता को आक्रोश हुआ और उसने अपना क्रोध व्यक्त किया: महिलाओं संबंधी मामले: दिनांक 24 नवम्बर 2021 को देश एक निर्णय से एकदम से चौंक गया. इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय था कि नाबालिग के साथ ओरल सेक्स ज़्यादा संगीन यौन दुर्व्यवहार नहीं है और यह एक ‘कम गंभीर’ अपराध है. और साथ ही यह भी लिखा कि “लिंग को मुंह में डालना बहुत गंभीर यौन अपराध या यौन अपराध की श्रेणी में नहीं आता है. यह पेनिट्रेटिव (गहराई तक जाना) यौन अपराध की श्रेणी में आता है जो पोक्सो एक्ट के सेक्शन 4 के तहत दंडनीय है.”
यह एक ऐसा निर्णय है जिसे सुनकर हर कोई दहल गया है, ऐसा कैसे कोई निर्णय दे सकता है? क्या न्यायालय उस बच्चे के दिल पर पड़ने वाले अनुभव का और वह आगामी जीवन में कैसे सहज जीवन जी सकता है, इसका अनुमान लगा सकता है? नहीं! फिर ऐसा निर्णय कैसे कोई जज दे सकता है?
https://www.thehindu.com/news/national/oral-sex-with-a-child-a-lesser-offence-allahabad-high-court/article37653484.ece?homepage=true
क्या जनता को ऐसे निर्णय पर अपनी प्रतिक्रिया देने का अधिकार नहीं है? यदि जनता आपकी प्रशंसा कर सकती है तो वह उस मानसिकता की स्वस्थ आलोचना क्यों नहीं कर सकती है, जो कहीं न कहीं एक औपनिवेशिक मानसिकता का प्रदर्शन करती है.ऐसे ही एक मामला आया था, मुम्बई न्यायालय का, जिसमें कहा गया था कि अगर किसी बच्चे के शरीर को उसके कपड़े हटाए बिना छुआ नहीं गया है तो इसे पोस्को अधिनियम की धारा 7 के अंतर्गत यौन उत्पीड़न नहीं माना जाएगा क्योंकि उसमें त्वचा से त्वचा का सम्पर्क नहीं हुआ था. इस निर्णय की व्याख्या से हर कोई सन्न रह गया था! क्या बच्चे की स्किन के ऊपर कपड़ा रखकर उसके साथ कुछ भी किया जा सकता है? क्या बच्चा समझ भी सकता है कि उसके साथ आखिर क्या हुआ है और क्या स्किन टू स्किन टच है या फिर स्किन से ऊपर का टच!
इस निर्णय को लेकर तो स्वयं उच्चतम न्यायालय ही सहमत नहीं था, तभी हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने इस निर्णय को पलट दिया. और कहा कि यह अदालत ने कहा कि “त्वचा से त्वचा” के संपर्क को अनिवार्य करना एक संकीर्ण और बेतुकी व्याख्या होगी. ऐसे में कोर्ट ने फैसला सुनाया कि यौन इरादे से बच्चे के किसी भी यौन अंग को छूने के किसी भी कार्य को POCSO अधिनियम की धारा 7 के दायरे से दूर नहीं किया जा सकता है. जस्टिस रवींद्र भट ने एक अलग सहमति वाला फैसला सुनाया.
क्या जज साहब चाहते हैं कि आम जनता ऐसे वाहियात और कुंठित निर्णयों पर, जिन्हें उच्चतम न्यायालय ही गलत मानता है, टिप्पणी करे!
3- ऐसा ही एक मामला आया था, एजेन्डावादी पत्रकार तरुण तेजपाल का, जिसमें यौन कुंठा कूट कूट कर भरी हुई थी. ऊपर बताए गए निर्णयों की तरह ही! और इसमें मुम्बई उच्च न्यायालय ने गोवा के सत्र न्यायालय के निर्णय पर हैरानी व्यक्त करते हुए कहा था कि यह निर्णय “बलात्कार पीड़ितों के लिए एक मैन्युअल है। यह पीड़ितों के व्यवहार पर एक मैन्युअल है। इसमें अपील करने की भारी सम्भावना है।”
जस्टिस एस सी गुप्ता की एकल बेंच ने सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता की अपील पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की थी। गोवा सरकार ने सेशन कोर्ट का अजीब निर्णय आते ही घोषणा कर दी थी कि वह इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में जाएंगे। तरुण तेजपाल को बाइज्जत बरी करते हुए कहा था कि चूंकि अभियोजिका ने जिस लिफ्ट में यौन शोषण का आरोप लगाया है, वह उस लिफ्ट से हंसती हुई निकली थीं, तो यौन शोषण कैसे हो सकता है?” इस निर्णय में महिला जज ने तरुण तेजपाल को बाइज्जत बरी केवल इसलिए कर दिया था कि उसे लड़की के सामान्य चेहरे को देखकर ऐसा नहीं लगा कि उसके साथ कुछ गलत हो सकता है! हमने इस निर्णय के विषय में उस समय भी लिखा था:
विकृत यौन धारणाओं से पीड़ित कुछ बड़े फैसले या फिर बलात्कार पीड़ितों के लिए दिशानिर्देश
हिन्दू पर्वों से सम्बन्धित निर्णय यह सबसे महत्वपूर्ण है! मीलोर्ड को इसी श्रेणी वाले असंतोष से शायद चिढ है. इस विषय में उन्हें भी ऐसा लगता है जैसे असहिष्णुता बढ़ गयी है. अब आइये कुछ निर्णयों पर दृष्टि डालते हैं:
1- हिन्दू की परिभाषा पर निर्णय क्या आज तक यह कोर्ट ने निर्धारण किया है कि कौन मुसलमान है और मुसल्मानियत क्या है? या फिर ईसाई कौन है और ईसाइयत क्या है? परन्तु हिन्दू कौन है. और उसकी क्या परिभाषा है, उसे लेकर न्यायलय निर्णय देते हैं. हिंदुत्व क्या है, अर्थात जीवन शैली है उसे लेकर न्यायालय में परिभाषा दी गयी. हिन्दुओं की पहचान न्यायालय की दहलीज तक पहुँची और फिर न्यायालय ने कहा कि हिन्दू और हिंदुत्व एक जीवनशैली है.
वर्ष 1995 में यह निर्णय दिया गया. अर्थात कोई भी हिन्दू हो सकता है, जैसा एक भ्रम उत्पन्न किया गया. और अभी तक यह चल रहा है. परन्तु आधिकारिक रूप से यह निर्णय कितना हानिकारक है, यह इस बात से पता लग जाता है कि अभी हाल ही में तमिलनाडु में हिन्दू रिलीजियस एंड चेरिटेबल एंडोमेंट के विभाग द्वारा जब मात्र हिन्दुओं के लिए ही नियुक्ति निकलीं, तो उसका विरोध सुहैल नामक व्यक्ति ने इस आधार पर किया कि
चूंकि हिन्दू का अर्थ किसी धर्म विशेष से न होकर जीवन शैली से है, तो किसी भी धर्म का व्यक्ति इसके लिए आवेदन कर सकता है!
सुहैल की याचिका
https://lawbeat.in/top-stories/hindu-religious-charitable-endowments-dept-indian-muslim-challenges-condition-only
तमिलनाडु में हिन्दू रिलीजियस एंड चेरिटेबल एंडोमेंट के विभाग द्वारा नौकरी के आवेदन मात्र हिन्दुओं के लिए निकले थे, अब चूंकि हिन्दू तो एक जीवनशैली अपनाकर कोई भी हो सकता है, तो कोई सुहैल भी हिन्दू हो सकता है!
क्या न्यायालय चाहते हैं कि हिन्दू अपने साथ होने वाले इस आधिकारिक अन्याय के खिलाफ आवाज न उठाए?
2- पटाखों पर निर्णय: दिल्ली में वायु प्रदूषण को लेकर हर वर्ष हंगामा होता है. इस वर्ष भी हुआ. परन्तु कारकों पर बात करने के स्थान पर दीपावली के पटाखों पर ठीकरा फोड़ दिया जाता है. हमने लगातार कई लेखों और वीडियो से इस बात को कहा है कि पटाखों का योगदान वायु प्रदूषण में उतना नहीं है, जितना अन्य कारकों का, मगर न्यायालय ने हाल ही में प्रदूष्ण पर सुनवाई करते समय केवल पटाखों को ही कोसा! और सरकार ने पराली जलाने को अपराध मानने से इंकार कर दिया. जो उस समय प्रदूषण के मुख्य स्रोतों में से एक है!
https://www.jagran.com/haryana/panipat-stubble-burning-possibility-of-increase-in-pollution-level-due-to-stubble-burning-problems-may-increase-in-diwali-22166589.html
यदि पटाखे मुख्य स्रोत होते तो पाकिस्तान में लाहौर में क्यों इतना स्मोग होता और सबसे प्रदूषित शहर होता?
इसके साथ ही और भी कई ऐसे निर्णय हैं, जैसे दही हांडी में हांडी की ऊंचाई तय करना, जल्ली कट्टू पर प्रतिबन्ध आदि!
3- हिन्दुओं के साथ होने वाली हिंसा की अनदेखी हाल ही में न्यायालय की बेरुखी हिन्दुओं के प्रति दिखाई दी! पश्चिम बंगाल में जो हिंसा हुई थी, और जिनमें न जाने कितने हिन्दू मारे गए थे. उन्हें न ही उनकी भारतीय जनता पार्टी के लोगों ने बचाया और न्यायालय ने तो जैसे आँखें ही मूँद ली थीं. लखीमपुर खीरी में न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लिया, परन्तु पश्चिम बंगाल में हो रही हिंसा से सोशल मीडिया रंगा हुआ था, परन्तु न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लेना उचित नहीं समझा!
हिन्दू मारा जाता रहा, बदल वाले राज्यों में शरण लेता रहा, परन्तु उचतम न्यायालय ने स्वत: संज्ञान नहीं लिया. इससे दो बातें सामने आती हैं कि न्यायालय केवल उन्हीं बातों पर स्वत: संज्ञान लेते हैं जिन्हें एक विशेष विचारधारा वाले लोग उठाते हैं, जैसे लखीमपुर खीरी वाला मामला!
लखीमपुर खीरी में प्रशासन की कमी निकालने वाले न्यायालय से आम जनता यह प्रश्न क्यों न करे कि “जज साहब, आप दिल्ली की सीमाओं पर यह नाटक क्यों होने दे रहे हैं? जज साहब आप तो अपने आपको लोकतंत्र की आवाज मानते हैं, तो आप आम जनता की पीड़ा क्यों नहीं समझ पा रहे हैं? जज साहब, आप तो लोकतंत्र के रखवाले हैं, क्योंकि लोकतंत्र हाईवेज़ की लम्बाई से नहीं, बल्कि मूल्यों के संरक्षण से मापा जाएगा, तो फिर आप क्यों उन मूल्यों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं?”
जनता यह प्रश्न तो करेगी ही न कि लखीमपुर खीरी में जो लोग मारे गए हैं, उनमें कहीं आपकी उदासीनता भी एक हिस्सा नहीं है? वह यह प्रश्न करेगी कि वहां पर जिस व्यक्ति को सरे आम काट डाला गया, उसके क़त्ल में कहीं न कहीं आपके द्वारा इस आन्दोलन पर कोई कदम न उठाया जाना तो शामिल नहीं है? क्या जनता को यह भी अधिकार नहीं देंगे जज साहब कि वह अपने बीच से असमय मरते हुए लोगों के विषय में कुछ प्रश्न कर सके? किसान आन्दोलन और बंगाल हिंसा, जितनी सरकार दोषी है उतनी ही दोष की लहर न्यायपालिका पर भी आती है!
फिर कौन उठा सकता है न्यायपालिका पर प्रश्न: पिछले दिनों दो तीन ऐसे मामले हुए जिनमें न्यायपालिका की जमकर किरकिरी हुई, या कहें अवहेलना हुई. या कहें कई मामले ऐसे आए! हाल ही की मामलों में सबसे पहला मामला था अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि का मामला! इस पर लिब्रल्स ने प्रश्न उठाए! उनकी कुंठा सामने आई, सामने आने लगी.
SC says demolition of Babri was illegal but repossession of the land by Hindus by unlawful demolition is okay. — Sounds like Hindus came to repossess this land after 27 years by some pretty "adverse possession" tactics.https://t.co/cUCwdXBqPu
— Anoo Bhuyan (@AnooBhu) November 9, 2019
Many legal issues to still understand, but seems like an illegal act in 1992 has been sanctified and rewarded by the #supremecourtofindia judgment, despite calling it a violation? Another nail in the coffin of #Ruleoflaw in India? https://t.co/NwDd0CmU4w
— Priya Pillai (@PillaiPriy) November 9, 2019
सबा नकवी ने तो यह तक साझा किया था कि अयोध्या का फैसला एक अजीब तर्क पर आधारित है:
The Ayodhya Verdict is Based on a Strange Feat of Logic https://t.co/jIsAJT6J1C via @thewire_in?lang=en
— Saba Naqvi (@_sabanaqvi) November 12, 2019
परन्तु न्यायालय की ओर से कोई असहिष्णुता की शिकायत नहीं आई थी!
उसके बाद देश विरोधी याचिकाओं के लिए प्रसिद्ध प्रशांत भूषण पर न्यायलय की अवमानना का आरोप लगा और जब उन्होंने माफी मांगने से इंकार कर दिया तो एक रूपए का उन पर जुर्माना लगा. उस मामले पर भी न्यायालय की काफी फजीहत हुई थी, परन्तु यह शिकायत नहीं आई थी.
https://www.bbc.com/hindi/india-54369062
ऐसे ही घटिया स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा ने भी अपने खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का मामला दर्ज होने के बाद माफी तक मांगने से इंकार कर दिया था. और उन्होंने तो यह तक twitter पर लिख दिया था. कि वह न ही माफी मांगेगे और न ही अदालत जाएंगे!
All lawyers with a spine must stop the use of the prefix “Hon’ble” while referring to the Supreme Court or its judges. Honour has left the building long back…
— Kunal Kamra (@kunalkamra88) November 11, 2020
https://www.bbc.com/hindi/india-54931185
यहाँ तक कि कपिल सिब्बल तक ने उच्चतम न्यायालय को राजनीति में घसीटते हुए यह तक कह दिया था कि अयोध्या मामले को चुनाव के उपरांत सुना जाए! और बाद में कांग्रेस का नाम आने पर पल्ला झाड़ते हुए कहा था वह सब उन्होंने व्यक्तिगत क्षमता में कहा था :
लेखकीय टिप्पणी: समस्या किन लोगों के आवाज उठाने से है: अब प्रश्न उठता है कि समस्या किन लोगों के आवाज उठाने से है? अब आम जनता प्रश्न कर रही है! अवमानना तो प्रशान्त भूषण ने भी की, अवमानना तो कुणाल कामरा ने भी की, और अयोध्या के निर्णय पर मुस्लिम एवं लिबरल समाज ने भी की, परन्तु कोर्ट द्वारा कदम उठाने की मांग नहीं की गयी, फिर वह कौन हैं, जिनके खिलाफ यह मांग की गयी है?
क्या वह आम हिन्दू हैं, जो अपने पर्व, अपने धर्म और अपने बच्चों के लिए छोटे छोटे निर्णयों को लेकर चिंतित हैं और अब वह चाहते हैं कि पर्यावरण का सारा बोझ हिन्दू त्यौहार पर न पड़े और न ही सेक्युलरिज्म का बोझ हिन्दुओं के कंधे पर आ जाए? क्या वह हिन्दू उनके निशाने पर है जो बेचारा अपने मंदिर के लिए ठोकर खा रहा है, जो बेचारा अपनी बात कहने के लिए एक ठिकाना खोज रहा है? क्या उस बेचारे हिन्दू द्वारा आवाज उठाने के लिए कोर्ट बेचैन हो गए हैं जो उन्हें माई बाप मानता है और अपने आराध्यों के अपमान के लिए भी पुलिस की शरण लेता है, कट्टर पंथी इस्लाम की तरह “सिर तन से जुदा” का नारा नहीं लगाता!
क्या वह हिन्दू इस मांग के दायरे में है जो बेचारा अपने धर्म को इस ज्युडिशियल एक्टिविज्म और पर्यावरण एक्टिविज्म से नहीं बचा पा रहा है? औपनिवेशिक मानसिकता वाले कथित एलीट के खिलाफ तो माननीय न्यायाधीश ऐसी मांग नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनके उठाए मुद्दों पर ही तो वह स्वत: संज्ञान लेते हैं? आम हिन्दू की पीड़ा पर स्वत: संज्ञान लेते तो कम से कम पश्चिम बंगाल की हिंसा की सुनवाई में इतनी देरी नहीं होती! ऐसा प्रतीत होता है कि यह मांग लुटियन ज़ोन की रक्षा और आम हिन्दुओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुठाराघात के लिए है!