जिस व्यक्ति के पास हो चीज होगी, वही वह दूसरों को देगा। यही किसी समाज और यही किसी राष्ट्र पर भी लागू होता है। समाजवाद और साम्यवाद इसके उल्टा सोचता है। वह सोचता है कि यदि एक के पास अधिक है तो उसे छीन कर दूसरों को दे दो। इसका असर यह होता है कि पूंजी पैदा करने वाले की क्षमता समाप्त हो जाती है और जो गरीब है वह भी अमीर नहीं बनता, क्योंकि उसमें पूंजी पैदा करने की क्षमता नहीं होती। उसे मिली संपत्ति एक दिन समाप्त हो जाती है और वह फिर किसी दूसरे की संपत्ति छीनने के लिए आगे आ जाता है।
मार्क्स की साम्यवादी अवधारणा में यूटोपिया है, सच्चाई नहीं। उसने पूंजी को इतना गाली दिया कि लोग अंदर ही अंदर पूंजी के लिए मरते रहते हैं, लेकिन ऊपर-ऊपर उसे गाली देते हैं, जैसे अडाणी-अंबानी को गाली देकर एक शहरी नक्सल सत्ता तक पहुंच गया! लेकिन यही शहरी नक्सल नवीन जिंदल, रतन टाटा, नारायण मूर्ति, फोर्ड, जमीन घोटाले में फंसे जी एम राव, और अब ‘गुप्ता द्वय’ आदि से पर्दे के पीछे चंदे के रूप में धन लेता है, लेकिन दिन के उजाले में उन्हें गाली देता है। जैसे 70 के दशक से गरीबी हटाओ का नारा देने वाला, अपना फटा कुर्ता दिखा-दिखा कर मोदी सरकार को ‘सूट-बूट की सरकार’ कहने वाला खानदान पर्दे के पीछे से देश को सबसे अधिक लूटता रहा!
भारत में नेहरू के समय से ही सभी नेता दिन के उजाले में पूंजीपतियों को गाली देते रहे, रात के अंधेरे में उससे धन भी लेते रहे और उसके पक्ष में नीतियां भी बनाते रहे। पूरे भारत के इतिहास में Narendra Modi अकेले ऐसे नेता हैं, जो पूंजिपति से दिन के उजाले में मिलते हैं, उसके साथ टेबल शेयर करते हैं, उसके साथ तस्वीरें खिंचाते हैं और खुलकर कारपोरेट अमीरों से भाजपा को चंदा भी दिलवाते हैं! कुछ भी छिपाने की जरूरत नहीं। सब पारदर्शी।
PMO India के व्यक्तित्व में देश के अन्य नेताओं की तरह दोगलापन नहीं, बल्कि अधिक स्पष्ट ईमानदारी है, क्योंकि नरेंद्र माेदी ने भारत के मूल दर्शन को समझा है, जिसमें चार पुरुषार्थ में ‘अर्थ’ अर्थात धन का भी स्थान है और जहां धन की देवी लक्ष्मी की पूजा होती है।
एक उदाहरण से समझिए, यदि घड़ा भरा हो तभी उससे पानी की बूंदे झलकेंगी, लेकिन जब घड़े में पानी ही न हो तो उसे आप कितना भी निचोड़ें, फोड़ें-कुछ हाथ नहीं लगेगा। यही बात पूंजी के साथ भी लागू होती है। समाज में पूंजी का प्रवाह जब तक नहीं बढेगा तब तक वह समाज के निचले स्तर तक नहीं पहुंच सकता है। मार्क्सवाद कहता है कि पूंजी का प्रवाह हम नीचे तक पहुंचाएंगे, पूंजिपतियों का गला दबाकर। इससे पूंजीपति भी मर जाता है, उस समाज में पूंजी पैदा करने की क्षमता भी समाप्त हो जाती है और पूंजी का प्रवाह भी समाज तक निम्न तक नहीं पहुंचता है। हां कोई लेनिन, स्टालिन, माओ जैसा बिचौलिया गरीबों को पूंजी बांटने के नाम पर अमीरों की पूंजी लूट कर खुद अमीर व तानाशाह बन जाता है।
पूरी दुनिया में भारत की संस्कृति एक मात्र संस्कृति हैं जहां धन की देवी लक्ष्मी की पूजा होती है, जहां के चार पुरुषार्थ में धन को दूसरा स्थान दिया गया, जहां के भगवानों व अवतारी पुरुषों ने अमीर राजाओं के घर में जन्म लिया। दूसरी तरफ पश्चिम के धर्मों ने भी दरिद्रता को ही पोषित किया है। पैंगंबर इब्राहिम, ईसा महीह, मोहम्मद, मूसा-इनमें से कोई भी अमीर परिवार में पैदा नहीं हुआ था। इसलिए यहां पूंजी को हेय दृष्टि से देखा गया और यहीं से पैदा हुए एक नए विचारक मार्क्स ने इसे और हेय बना कर पेश किया।
भारत में जब पश्चिम आया तो सोने की चिडि़या के रूप में यहां की समृद्धि देखकर दंग रह गया। उसने भारत को जमकर लूटा और न केवल लूटा, बल्कि पूंजी के प्रति हिंदुस्तानियों में हीन भावना भी पैदा कर गया ताकि वह भविष्य में पूंजी पैदा न कर सकें। उन्हें मालूम था कि कितना भी लूटो, इनके धर्म में पूंजी शामिल है इसलिए यह फिर समृद्ध बनेंगे। पश्चिम की दी हुई कुंठा के कारण भारत ने गरीबी को ही अपना जीवन मान लिया। गरीबी को ग्लैमराइज कर दिया गया।
भारत का मूल दर्शन है, जब तक समृद्ध नहीं बनोगे तब तक मोक्ष की यात्रा पर नहीं जा सकोगे। जब तक पेट भरा न हो तब तक अध्यात्म की यात्रा नहीं हो सकती है। धर्म, अर्थ व काम की पूर्ति के बाद ही मोक्ष की यात्रा संभव है। इसलिए जरूरत हमें भारत के मूल दर्शन को समझने और उसे पहचानने की है। अंबानी-अडानी में पैसे पैदा करने की क्षमता है, लेकिन उनमें चित्र बनाने की क्षमता नहीं है। वह चित्र को खरीद सकते हैं। उसी तरह एक चित्र बनाने वालों में पूंजी पैदा करने की क्षमता नहीं है, वह अपने चित्रों की बिक्री से ही अपने लिए धन कमा सकता है। अत: आज की जरूरत अपने स्वयं की क्षमतो को पहचानने की है न कि दूसरों को गाली देने की है। यदि मैं लिख सकता हूं तो लिख कर ही पैसे कमा सकता हूं न कि अंबानी को गाली देकर पैसे कमा पाऊंगा। यही भारत का मूल दर्शन है। भारत के मूल दर्शन को पहचानने की जरूर है, न कि अमीरों और कारपोरेट को गाली देने वाले मार्क्सवादियों-नक्सलवादियों के पक्ष में ताली बजाने की।