सोनाली मिश्रा। भारत में बच्चों को भक्ति आन्दोलन के मध्य ही सूफी आन्दोलन के विषय में पढाया जाता है, और यह कहा जाता है कि सूफियों ने सामाजिक एकता लाने का काम किया और उन्होंने प्रेम एवं एकता की धारा बहाई और इसी आधार पर उनकी रचनाओं को बच्चों को पढाया जाता है। हम धीरे धीरे आपको एक एक करके बताएँगे कि कैसे कुछ सूफी संतों ने एकदम स्पष्ट तरीके से अपनी रचनाओं में इस्लाम का प्रचार ही नहीं किया, अपितु हिन्दुओं के भगवानों का भी अपमान किया।
कौन थे सूफी?
सबसे पहले प्रश्न यही उठता है कि सूफी कौन थे? भारत में सूफी मत का आगमन 11वीं और बारहवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। इस विषय में वरिष्ठ पत्रकार अनंत विजय ने सुधीर पचौरी की पुस्तक के माध्यम से यह बताया है कि सूफी संत केवल और केवल इस्लाम के प्रचारक थे। उन्होंने कहा कि सुधीश पचौरी ने इस बात को साबित करने की कोशिश की है कि सूफी लोग सुल्तानों के साथ आते थे। उनका काम इस्लाम का प्रचार होता था लेकिन यहां के यथार्थ की जटिलताओं को देखकर कई सुल्तान कट्टर की जगह नरम लाइन लेने लगते थे उसी तरह सूफी भी अपनी लाइन को बदलते थे।
सूफी पहले हिन्दुओं को सॉफ्ट बनाते थे और इसके लिए वह कई उपाय करते थे। इनमें से एक है हिन्दी भाषा का प्रयोग।
सुधीश पचौरी लिखते हैं, ‘मध्यकाल के इतिहास ग्रंथों में सूफी कवियों की छवि ठीक वैसी नजर नहीं आती जैसा कि हिंदी साहित्य के इतिहास में नजर आती है। साहित्य के इतिहास में वे सिर्फ कवि हैं जबकि इतिहास ग्रंथों में वो वे इस्लाम के प्रचारक के तौर पर सामने आते हैं। साहित्य के इतिहास का लेखन अगर अंतरानुशासिक नजर से किया जाता तो सूफियों की इस्लाम के प्रचारक की भूमिका स्पष्ट रहती।‘
सूफी इस्लामी प्रचारकों की भूमिका को समझने के लिए हमें कई कथित संतों की रचनाएं पढनी होंगी। आइये आज नूर मोहम्मद नूर की कुछ पंक्तियों की समीक्षा करते हैं। यह देखते हैं कि वह कितने स्पष्ट थे अपने लक्ष्य के प्रति!
नूर मोहम्मद नूर दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के समय में थे और उन्हें फारसी बहुत अच्छी आती थी, परन्तु उन्होंने हिन्दी भाषा का चयन किया था। उन्होंने इन्द्रावती नामक बहुत सुन्दर काव्य लिखा है और जिसमें उन्होंनें हिन्दी भाषा का प्रयोग किया था, इस पर उन्हें ताना मारा गया था कि मुस्लिम होकर हिन्दी का प्रयोग कैसे कर सकते हैं। तो उन्होंने अनुराग बांसुरी नामक ग्रंथ के आरम्भ में इसकी सफाई दी थी और कहा था कि
जानत है वह सिरजनहारा । जो किछु है मन मरम हमारा॥
हिंदू मग पर पाँव न राखेउँ । का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ॥
मन इस्लाम मिरिकलैं माँजेउँ । दीन जेंवरी करकस भाँजेउँ॥
जहँ रसूल अल्लाह पियारा । उम्मत को मुक्तावनहारा॥
तहाँ दूसरो कैसे भावै । जच्छ असुर सुर काज न आवै॥
अर्थात वह जो सृजनहारा है, वह सब जानता है कि उनका मर्म क्या है? वह कभी हिन्दू नहीं बनेंगे, क्या हुआ जो थोड़ी बहुत हिन्दी बोल ली। उनका मन तो इस्लाम में लगा है, और उन्हें रसूल और अल्लाह प्यारा है। उन्हें उम्मत पर विश्वास है और उसमें कोई दूसरा कैसे भा सकता है।
जो लोग आज कहते हैं कि उर्दू सभी की भाषा है और हिन्दुओं को उर्दू को मुस्लिम की भाषा नहीं मानने पर बल देते हैं। वह हिन्दुओं को इस बात के लिए कोसते हैं कि उर्दू को वह केवल मुस्लिमों की ही भाषा कह देते हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं कि संवत 1800 तक आते आते मुसलमान हिन्दी से किनारा करने लगे थे। उन्होंनें हिन्दी को हिन्दुओं के लिए छोड़ दिया था और खुद के लिए वह विदेशी ही रखना चाहते थे। और जिसे हम उर्दू कहते हैं, उसका उस समय साहित्य में कोई स्थान नहीं था, इसका स्पष्ट आभास नूर मुहम्मद के इस कथन से प्राप्त होता है:
कामयाब कह कौन जगावा, फिर हिंदी भाखै पर आवा
छांडि पारसी कंद नवातैं, अरुझाना हिन्दी रस बातैं
अनुराग बाँसुरी का रचनाकाल संवत 1821 है। नूर मुहम्मद को हिन्दी भाषा में कविता करने के कारण जगह जगह इसका सबूत देना पड़ा है कि वे इस्लाम के पक्के अनुयायी थे। अत: वे अपने इस ग्रंथ की प्रशंसा इस ढंग से करते हैं –
यह बाँसुरी सुनै सो कोई । हिरदय स्रोत खुला जेहि होई॥
निसरत नाद बारुनी साथा । सुनि सुधि चेत रहै केहि हाथा॥
सुनतै जौ यह सबद मनोहर । होत अचेत कृष्ण मुरलीधार॥
यह मुहम्मदी जन की बोली । जामैं कंद नबातैं घोली॥
बहुत देवता को चित हरै । बहु मूरति औंधी होइ परै॥
बहुत देवहरा ढाहि गिरावै । संखनाद की रीति मिटावै॥
जहँ इसलामी मुख सों निसरी बात। तहाँ सकल सुख मंगल, कष्ट नसात॥
इन पंक्तियों में कितनी सुन्दरता से वह यह कह रहे हैं कि यह जो बाँसुरी है, जिसकी वह बात कर रहे हैं, उसे सुनकर लोग चेत रहे हैं, और यदि इन मनोहर शब्दों को कृष्ण भी सुनते तो वह अचेत हो जाते, क्योंकि यह मुहम्मदी जन की बोली है। यह बहुत देवताओं का चित्त हर चुकी है और कई मूर्तियाँ इस बोली को सुनकर अंधी हो गयी हैं, बहुत देवघर ढह चुके हैं और शंखनाद की रीति मिट चुकी है,। जहाँ भी यह इस्लामी बात गयी है, वहां पर सुख और मंगल हुआ है और कष्टों का नाश हुआ है!
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी इस रचना को कहीं न कहीं साम्प्रदायिक मानते हैं और कहते हैं कि यह रचना बार बार सफाई प्रस्तुत करती है कि कहने के लिए नूर मुहम्मद हिन्दी में रचना कर रहे हैं, परन्तु उन्हें जो ताने सुनाई पड़ रहे हैं, कि वह मुसलमान होकर हिन्दी भाषा में रचना क्यों कर रहे हैं? तो वह सफाई देते हैं।
इससे एक बात स्पष्ट होती है कि इन कथित सूफी कवियों ने यदि हिन्दी को अपनाया भी है तो भी उन्होंने अपना लक्ष्य स्पष्ट रखा है और इस्लाम को सर्वोपरि रखा है।
जो यह कहते हैं कि सूफी कवि सत्ता से दूरी बनाते थे, वह नूर मुहम्मद नूर की इन पंक्तियों को देख सकते हैं, जिसमें वह उस समय के शासक मुहम्मद शाह की तारीफ़ करते हैं,
करों मुहम्मदशाह बखानू, है सूरज देहली सुल्तानू
धरमपंथ jag बीच चलावा, निबर न सबरे सों दुःख पावा”
परन्तु मजे की बात यह है कि कथित वामपंथी सत्ता की प्रशंसा करने वाले इन सूफी इस्लामी कवियों को तो क्रांतिकारी बताते हैं, और तुलसीदास जैसे संत कवि, जिन्होनें इस्लामी सत्ता का विरोध किया उन्हें सामंतवादी आदि कहते हैं।
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