सूफी तो नहीं, पर हाँ मुस्लिम कृष्ण और राम प्रेमी कवियत्रियों में शेख के विषय में पढ़ना रोचक हो सकता है. शेख को रीतिकालीन रचनाकारों में मुख्य माना जाता है. परन्तु हिन्दी में लिखने के कारण विख्यात शेख स्वयं तो मुस्लिम थी, इसके साथ ही उनके साथ आलम ने निकाह किया था. अब पाठक कहेंगे कि आलम तो शेख के साथ निकाह कर सकते हैं, परन्तु इसमें सबसे बड़ा पेच है कि आलम पहले ब्राह्मण हुआ करते थे और रंगरेजन शेख के साथ प्यार में मुसलमान हुए थे और उसके बाद उन्होंने शेख से निकाह किया था.
कहा जाता है कि आलम एक सनाढ्य ब्राह्मण थे और वह औरंगजेब के बेटे मुअज्जम के दरबार में रहा करते थे. अर्थात यह दरबारी कवि थे और इन्होनें शेख से निकाह के लिए इस्लाम क़ुबूल कर लिया था. इन दोनों के प्यार को आलोचकों ने कहा है कि नैतिक पतन के उस युग में अर्थात रीतिकालीन युग में शेख और आलम की पुनीत प्रेम ग्रंथि प्रेम की अनेकमुखी रसिकता पर एकनिष्ठ प्रेम के विषय की घोषणा करती है. दो एक दूसरे के लिए बने प्राणी समाज, धर्म और सम्पूर्ण संसार के विरोधों की श्रृखला को तोड़कर अनेक बन्धनों का अतिक्रमण कर मिल गए थे.
प्यार था, मगर धर्म बदला हिन्दू ने क्योंकि जहांगीर काल से ही हिन्दू लड़के और मुस्लिम लड़की की शादी नहीं हो सकती थी, ऐसा करने वालों मो मृत्युदंड मिलता था:
हालांकि आलोचकों के अनुसार यह स्पष्ट नहीं थे कि आखिर किस पक्ष से समस्या थी और विरोध किस पक्ष से था? एक ब्राह्मण मुसलमान हो गया था और वह भी निकाह करने के लिए, तो ऐसे में यह विरोधों को तोड़ने की श्रृंखला नहीं थी. यह तो वह श्रृंखला थी जिसे जहाँगीर ने अपने जहाँगीरनामा में लिखा है कि
“Taking them is all well and good, but giving them to Hindus God forbid! It was commanded that henceforth such customs would not be allowed, and anyone who committed such practices would be executed।”
इसे हिंदी में समझते हैं! हिन्दुओं से अतिशय प्यार करने वाले जहांगीर ने कहा कि “हिन्दुओं से बेटियों को लेना (अर्थात मुसलमानों की बहू बनाना) तो ठीक है, मगर हिन्दुओं को अपनी बेटी देना? अल्लाह माफ़ करे! यह हुक्म दिया गया कि आगे से ऐसा कोई भी निकाह नहीं होगा, और जिसने भी ऐसा किया उसे मृत्युदंड दिया जाएगा!”
जी हाँ, उसे मौत की सजा दी जाएगी! हिन्दू लड़की तो मुस्लिम परिवार में जाएगी, मगर मुसलमान लड़की किसी हिन्दू के घर आदरपूर्वक बहू बनकर नहीं जाएगी।
ऐसा जहांगीर ने नियम बनाया था. क्या यही कारण था कि मुअज्जम के दरबार में रहने वाले आलम ने कथित रूप से कृष्ण और राम के लिए कविता लिखने वाली शेख से निकाह करने के लिए कृष्ण और राम को मानने वाला मजहब ही छोड़ दिया था? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसके विषय में साहित्य के आलोचकों द्वारा उत्तर नहीं है. और एक बात जो हिन्दूओं की उदारता को प्रमाणित करती है, वह यह कि आलम न केवल शेख के लिए मुसलमान बने थे, बल्कि उन्होंने अपनी बीवी शेख पर कोई रोकटोक भी नहीं लगाई थी और मध्यवर्गीय मुस्लिम कुलीन औरतों के जीवन में जो बंधन उस समय हुआ करते थे, वह शेख पर नहीं थे.
रचनाएं
अब आते हैं रचनाओं पर! शेख को इसलिए साहित्य में स्थान मिलना आरम्भ हो गया है क्योंकि यह कहा जाता है कि शेख ने मुस्लिम होते हुए भी ब्रज भाषा में रचनाएं लिखीं. हालांकि उनकी अपनी कोई स्वतंत्र पुस्तक नहीं प्राप्त होती है फिर भी “आलम-केलि” में उनकी कुछ कविताएँ प्राप्त होती हैं. आलमकेलि में दरअसल रचनाओं में परस्पर इतनी एकरूपता है कि आलोचक यह नहीं मान पाते हैं कि शेख के नाम से आलम ने नहीं लिखा होगा! परन्तु फिर भी आलम चूंकि शेख की कविता कहने के गुण पर ही मुग्ध होकर मुसलमान बने थे तो यह कैसे हो सकता है कि शेख ने कोई कविता न लिखी हो, आलोचक यह भी कहते हैं. फिर भी कहीं न कहीं यह आशंका ही है कि आलमकेलि में रचनाएं वास्तव में शेख की हैं या नहीं?
हिन्दू धर्म की आस्था के सन्दर्भों के साथ प्रयोग तब भी किए जा रहे थे
यह एक बहुत ही विचित्र स्थिति हमें मिलती है कि मुस्लिम रचनाकारों ने शिव, कृष्ण और राम आदि पर लिखा है और कृष्ण के बचपन, गोपियों और राधा पर भी अपनी कलम चलाई है, परन्तु साथ ही उन्होंने उन सिद्धांतों और अवधारणाओं को भी विकृत किया है जो हिन्दू धर्म की आत्मा हैं. मध्यकालीन हिन्दी नामक पुस्तक में लिखा है कि यह सभी जानते हैं कि महादेव का तृतीय नेत्र क्रोध में ही खुलता है अन्यथा नहीं, परन्तु शेख ने उस नेत्र को कृपा का प्रतीक मानकर खुलवाया है.
तथापि आलोचक यह कह कर शेख की प्रशंसा कर सकते हैं कि मुसलमान होते हुए भी उसने कम से कम हमारे राम और कृष्ण और शिव पर लिखा, परन्तु यह महत्वपूर्ण होता है कि क्या लिखा और किस भाव में लिखा! तथ्यों के साथ छेड़छाड़ और मूल अवधारणाओं के साथ छेड़छाड़ तभी की जाती है जब आपका विश्वास उस पूरी परम्परा में नहीं होता है. और जब निकाह के लिए पति को मुस्लिम बनाया न कि खुद हिन्दू बनी तो कहीं न कहीं प्रेम पर भी शक और संदेह उत्पन्न होता है.
हिन्दुओं में सीतामाता को पवित्रता का सर्वोच्च प्रतीक माना जाता है. शेख ने सीता जी की वेदना में भी काम पीड़ा को ही लिखा. वह सीता के विषय में लिखते समय प्रेम और विरह की नैसर्गिकता और पवित्रता को नहीं छू पाई हैं. उन्होंने लिखा है
“ऊक भई देह वरि चूक है न खेह भई,
हूक बढ़ी पे न पिसि टूक भई छतिया,
सेख कहिं सांस रहिबे की सकुचानी कवि,
कहा कहों लाजनि कहौंगे निलज तिया!”
शेख ने महादेव के तीसरे नेत्र के साथ खिलवाड़ किया, और माता सीता के नैसर्गिक प्रेम और विरह को देह तक सीमित करने का कुप्रयास किया तो वही उन्होंने अपनी रचनाओं में मंजनू के प्यार को भी महिमामंडित किया है. यही सबसे अधिक दुर्भाग्य का विषय है कि जो लोग मंजनू को प्यार का आदर्श मानते थे, उन्होंने प्रभु श्री राम और मातासीता के प्रेम को लैला-मंजनू जैसा ही समझकर लिखा!
परन्तु फिर भी उन्हें मात्र इसलिए एक बड़ा वर्ग महान मानता है कि उन्होंने मुस्लिम होकर भी हिन्दुओं के देवी देवताओं, भगवान पर लिखा और हिन्दी में लिखा, तो यह डबल अहसान है.
मंजनू का सन्दर्भ वह विरह में लेते हुए लिखती हैं कि
धीरज आधार ते रह्यो है खंग धार जैसी,
आंसूं की धार सो न धूरि है जू घोइगो,
अहि सुनी आई ओ न चाहि ताहि पाई फेरी,
देख सेख मजनूँ बिना ही नींद सोइगो!”
सबसे महत्वपूर्ण बार जो बार बार उनके विषय में उभर कर आती है, वह यह कि उनका जीवन उन प्रतिबंधों से मुक्त था, जो उस समय मुस्लिम समाज की औरतों के लिए थे. उन्हें आलम का साथ मिला और आलम ने उन्हें व्यक्तिगत स्वतंत्रता ही प्रदान नहीं की बल्कि उनके कारण ही उनकी यह प्रतिभा निखरी. उन्होंने ब्रज के साथ फारसी का घालमेल किया और भाषा ही नहीं सन्दर्भ भी प्रदूषित किए.
जैसे ही मजनूं का सन्दर्भ विरह के लिए आ जाए, वैसे ही सारे सन्दर्भ प्रदूषित हो जाते हैं. इस्लामी अवधारणा प्यार की आ जाती है, जिसमें जुदाई है, जिसमें एक अमीर गोरा एक काली लड़की से शादी नहीं कर सकता और इसके लिए उसे पत्थरों से मारा जाता है, यह साहित्यिक प्रदूषण है जो मुस्लिम रचनाकारों ने हिन्दुओं के मस्तिष्क में प्रक्षेपित किया है. जबकि हिन्दुओं में तो प्यार के लिए सीमा है ही नहीं, न ही रंग की, और न ही कैसी भी, और न ही प्यार के लिए पत्थर मारने की सजा है?
जहां ब्रजभाषा के हिन्दू कवियों जैसे सूर, धनानंद, मतिराम आदि ने फारसी के शब्द प्रयोग करने से परहेज किया है और साथ ही इसके कारण इनकी भाषा में माधुर्य बहुत है तो वहीं शेख द्वारा फ़ारसी शब्दों के प्रयोग को किये जाने पर यह प्रभाव नहीं आ पाता है.
तो जब भी कोई यह कहता है कि किसी मध्यकालीन रचनाकार ने मुस्लिम होते भी लिखा तो यह समझा जाना चाहिए कि कहीं न कहीं सांस्कृतिक संदूषण और प्रदूषण की कोई न कोई रेखा खींच दी है, जैसे शेख ने खींच दी है!
*तथ्य और सन्दर्भ: मध्यकालीन हिन्दी कवयित्रियाँ, डॉ, सावित्री सिन्हा, हिन्दी अनुसंधान परिषद