आज सोमवार 6 जुलाई को तिब्बत के धर्मगुरू दलाई लामा का 85th जन्मदिन मनाया गया. हालंकि इस बार दलाई लामा के निवास स्थल धर्मशाला में कोविड 19 के चलते किसी भी प्रकार के भव्य उत्सव का आयोजन नहीं हुआ. दलाई लामा ने अपने अनुयायियों के लिये एक वीडियो मेसेज जारी किया जिसमे उन्होने लोगों से अनुरोध किया कि चूंकि कोरोना वायरस की वजह से किसी भी प्रकार की भव्य सभा का आयोजन संभव नही है, इसीलिये लोग अपने घरों से ही बौद्ध मंत्रों का उच्चारण करें.
दलाई लामा किसी पारंपरिक धर्म गुरू से एकदम अलग हैं. उन्हे गौतम बुद्ध का जीता जागता अवतार माना जाता है. उनके नाम और दिव्य गुणों की जो आभा है, वह इस प्रकार की है कि जाति, धर्म, आदि की सीमा रेखाओं के परे जाकर लोग उन्हे मानते हैं, उनके विचारों का अनुसरण करने का प्रयास करते हैं.
दलाई लामा के बारे में एक खास बात यह भी है कि वह तिब्बतियों के धर्म गुरू होने के साथ साथ एक प्रकार से उनके राजनीतिक प्रमुख भी रह चुके हैं. यानि तिब्बत के राजनीतिक अस्तित्व से जुड़े सारे निर्णय एक लंबे समय तक दलाई लामा द्वारा ही लिये गये हैं. विश्व भर मे फैले हुए तिब्बति समुदाय के लोग किस प्रकार से संगठित हों, और फिर चीन से आज़ादी पाने के लक्ष्य तक किस प्रकार पहुंचा जाये, इन सभी मुद्दों को लेकर दलाई लामा की अहम भूमिका रही है.
14 मार्च 2011 को दलाई लामा ने एक महत्व्पूर्ण निर्णय लिया. स्वयं को राजनीति से दूर रख विशुद्ध रूप से सिर्फ एक धर्मगुरू की भूमिका निभाने का निर्णय. और इसके साथ ही एक 368 साल पुरानी परंपरा का अंत हुआ, एक ऐसी परंपरा जिसके अंतर्गत दलाई लामा तिब्बत के धार्मिक और सांसारिक गुरू, दोनों होते थे.
वर्तमान के इन दलाई लामा के इतिहास की ओर अब ज़रा दृष्टिपात करें. हिज़ होलिनेस, 14वे दलाई लामा का जन्मजन्म 6 जुलाई, 1935 को उत्तर पूर्वीय तिब्बत के आमडो शहर में स्थित टक्स्टर नामक एक छोटी सी जगह में हुआ था.
इनका जन्म एक किसान परिवार में हुआ था. और 2 वर्ष की आयु में ही इन्हे 13वे दलाई लामा थूबटेन ग्याटसो का अवतार मान लिया गया. 6 वर्ष की आयु ए ही इनकी बौद्ध धर्म के अनुरूप शिक्षा शुरू हो गयी और 1959 मे, मात्र 23 वर्ष की आयु में इन्हे बौद्ध धर्म के दर्शन -शास्त्र के अध्य्यन के लिये सबसे ऊंची मानी जाने वाली डांक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया.
1950 में ही चीन के तिब्बत पर पूरी तरह से कब्ज़ा करने के बाद तिब्बत की राजनीतिक सत्ता दलाई लामा के हाथों सौंप दी गयी. वे 191954 में बीजिंग गये और वहां माओ ज़ेडांग सहित चीन के कई बड़े नेताओं से मिले. 1959 में तिब्बत के ल्हासा आंदोलन को जिस प्रकार चीन ने हिंसक तरीके से कुचला, उसके पश्चात दलाई लामा निर्वासन में रहने के लिये मजबूर हो गये. और इस प्रकार वे उत्तरी भारत के धर्मशाला शहर पहुंचे जहां वे अभी भी रहते हैं.
तिब्बत की स्वतंत्रता के मुद्दे के प्रति भारत का रवैया हमेशा से मिला जुला रहा है. भारत में इतनी बड़ी मात्रा में तिब्बती शरणार्थी बसे उए हैं. तिब्बतियों के धर्मगुरू दलाई लामा भी भारत में ही रहते हैं. देश के कितने ही इलाको6 में, जहां तिब्बती शरणार्थियों की अच्छी खासी संख्या है. वहां की स्थानीय संस्कृति पर तिब्बति संस्कृति की छप देखने को मिलती है. लेकिन इस सबके बावजूद भी भारत तिब्बत मामले में चीन क्के खिलाफ और तिब्बत की स्वतंत्रता के पक्ष में खुलकर सामने नही आता इसीलिये कि कही चीन नाराज़ न हो जाये. तिब्बत के मुद्दे को लेकर चीन से संबंध बिगड़्ने की संभावना को रोकने की मंशा से ही भारतीय सरकार कभी भी औपचारिक तौर पर दलाई लामा के जन्मदिन पर बधाइयां नहीं देती.
लेकिन अब ये समीकरण कुछ बदलने से लगे हैं. इस बार केंद्रीय खेल मंत्री किरन रिजीजू ने दलाई लामा को उनके जन्मदिन के लिये एक ट्वीट के माध्यम से शुभकामनायें दीं. वे मोदी सरकार के एकमात्र ऐसे मंत्री हैं जिन्होने सार्वजनिक तौर पर दलाई लामा को उनके जन्मदिन के अवसर पर बधाई संदेश भेजा है.
लद्दाख बार्डर पर लंबी चली मुठ्भेड़ के बाद से भारत का चीन के प्रति रवैया अब काफी हद तक आक्रामक हो गया है. भारत धीरे धीरे चीन के प्रति लंबे समय तक इख्तियार किया गया नरमी और अपीज़मेंट का रवैया अब त्याग रहा है. और चीन के साथ कांफ्राटेशनल मोड मे आ गया है. तो ऐसे में विशेषज्ञों का कहना है कि तिब्ब्त के मुद्दे को अब भारत को अपनी चीन नीति का एक अहम बिन्दु बनाना चाहिये.
सुंदर विश्लेषण
Thank You so much for the kind words .