एक बार अनुपम खेर ने मुंबई के टाटा थियेटर में राष्ट्रगान और तिरंगे को लेकर इवेंट आयोजित किया। मकसद था फिल्म उद्योग के लोगों को इस बारे में जागरूक करना। मंच पर खड़े होकर जब अनुपम राष्ट्रगान का महत्व समझाने लगे तो इंडस्ट्री के कई कलाकार और तकनीशियन उनकी हूटिंग करने लगे। ये देखकर उनको अहसास हुआ कि मनोरंजन उद्योग में देशभक्ति के लिए घृणित भाव पनप रहे हैं। उनको लगा कि ‘करेज इस अ लोनली फिलिंग’। अनुपम खेर के साथ हुआ ये अनुभव उन सभी लोगों का अनुभव है जो इंडस्ट्री में ‘राष्ट्रवाद’ की बात करते हैं। केवल लोग ही नहीं, राष्ट्र पर बनी फिल्मों के साथ भी अनुपम खेर जैसा व्यवहार किया जाता है।
सन 2014 में जैसे ही नई सरकार का गठन हुआ तो सब कुछ पहले जैसा नहीं रह गया। प्रधानमंत्री मोदी के नोटबंदी के ऐतिहासिक निर्णय ने फिल्मों में लगने वाले बेनामी पैसों के काले उद्गम को रोक दिया। फिल्मों के लिए काला धन ‘दुबई’ से प्राप्त हो रहा था। माफिया डॉन दाऊद इब्राहिम को नोटबंदी से सबसे ज्यादा चोट पहुंची। सरकार के प्रहार से दाऊद का काला साम्राज्य बुरी तरह हिल गया। ये झटका माफिया किंग से सहा नहीं गया। दाऊद ने सोच लिया कि इस तबाही का प्रतिशोध वह देश की संस्कृति पर हमला करके लेगा। पद्मावत की शूटिंग के दौरान ये खबरे बाहर आई कि नोटबंदी के संकट में इस फिल्म के लिए दाऊद ने धन लगाया है। देश में इस बात पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई। फिल्म उद्योग अलग तरीके से व्यवहार करने लगा था। उद्योग को ऐसा कोई व्यक्ति बर्दाश्त नहीं होता था जो देश की बात करे, ऐसी कोई फिल्म सहन नहीं होती थी जिसमे राष्ट्रभक्ति की बात की जाए।
2016 में अनुपम खेर ने एक साक्षात्कार के दौरान अपनी चिंता जाहिर करते हुए बताया था कि राष्ट्रवाद की बात करने का नतीजा ये हुआ है कि उनके साथ भेदभाव होने लगा है। उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद का तमगा लगते ही वे एक तरह से ‘जॉबलेस’ हो गए हैं। अनुपम खेर बड़े अभिनेता हैं इसलिए बोलने का जोखिम ले लिया लेकिन वे लोग क्या करेंगे जिनमे ये बात कहने की हिम्मत ही नहीं है। हिम्मत इसलिए नहीं है कि फिल्म उद्योग जिन अभिनेताओं और निर्माताओं के बल पर खड़ा है, वे खुद दाऊद की कठपुतली बनकर देश के विरोध में काम कर रहे हैं। इंडस्ट्री का कोई व्यक्ति देश की बात करे, मोदी का समर्थक हो, दुबई से होने वाली अवैध फंडिंग के खिलाफ खड़ा हो जाए तो वह दुश्मन से कम नहीं होता।
देशभक्ति की फिल्मों को इंडस्ट्री से वह सहयोग क्यों नहीं मिल पा रहा, जैसा सलमान, आमिर या शाहरुख़ की फिल्मों को मिलता है। न्यूज़ चैनल अपराधियों पर बनी फिल्मों को खूब प्रमोट करते हैं लेकिन राष्ट्रवाद पर बनी फिल्मों को तवज्जो नहीं देते। कोई बड़ा सितारा ऐसी फिल्म लेकर आए तो उसकी स्टार वैल्यू भी काम नहीं करती। फिल्म यदि बॉक्स ऑफिस पर बेहतर कर रही हो तो न्यूज़ चैनल उसकी सफलता का बखान नहीं करते। फिल्म उद्योग में राष्ट्रवाद की बात करना आज की तारीख में ‘छुआछूत’ से कम नहीं रह गया है।
सन 2016 में ‘चॉक एंड डस्टर’, एयरलिफ्ट’ और ‘नीरजा’ जैसी उत्कृष्ट फिल्मे प्रदर्शित होती हैं। इनमे एयरलिफ्ट और नीरजा बॉक्स ऑफिस पर कामयाब होती हैं लेकिन इनका शोर नहीं होता। 2017 में ‘द गाजी अटैक’, रागदेश, ‘टायलेट एक प्रेम कथा’, ‘पार्टीशन’ और ‘न्यूटन’ जैसी देश की बात करने वाली फ़िल्में प्रदर्शित होती हैं। इनमे गाजी अटैक, टायलेट एक प्रेम कथा कामयाब रहती है और बाकी का पता नहीं चलता। अक्षय कुमार की सफल फिल्म ‘टायलेट एक प्रेमकथा’ को शुरूआती दौर में ‘निगेटिव रिव्यूज’ का सामना करना पड़ता है। न्यूटन साल की सबसे बेहतर फिल्म होने के बावजूद सराही नहीं जाती। दर्शक से इतर ऐसी अच्छी फिल्म को मीडिया का सहारा भी नहीं मिलता। इसी साल प्रदर्शित हुई ‘राज़ी’ ने सौ करोड़ से ऊपर का कारोबार किया लेकिन ख़बरों से बाहर रही। इसकी जगह सलमान खान की फ्लॉप फिल्म ‘रेस-3’ का शोर ज्यादा रहा।
यदि आपके हाथ में एक ‘देशभक्ति की कहानी की स्क्रिप्ट’ है तो उसे फाइनांस मिल जाएगा, इस बात की सम्भावना कम हो जाती है। देश के किसी नायक पर या सेना के शौर्य पर फिल्म बनाना हो तो न पैसा मिलता है, न मदद। यदि जैसे-तैसे फिल्म बनकर तैयार हो जाए तो वितरक नहीं मिलते। इसके दो कारण हैं। एक तो कोई भी ‘दुबई’ से नाराजगी मोल लेना नहीं चाहता और दूसरा बॉक्स ऑफिस पर जोखिम रहता है। इंडस्ट्री में देश की बात करने वालों को ‘भाईगिरी’ का भी खौफ रहता है। आलम ये है कि भाईगिरी ‘टाइगर ज़िंदा है’ जैसी पाकिस्तान परस्त फिल्म को ही आश्रय देती है, एयरलिफ्ट जैसी ईमानदार फिल्म को नहीं।
बड़े सितारों की भाईगिरी से छोटे फिल्मकार लगातार परेशान रहते हैं। फिल्म उद्योग में भाई-भतीजावाद के चलते इन फिल्मकारों को निर्माता मिलने में बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ता है। पिछले कुछ साल से ‘स्माल टाउन’ फिल्मों ने एक नया ट्रेंड स्थापित किया है। कम बजट में बनने वाली इन फिल्मों को दर्शक पसंद करने लगे हैं। इन फिल्मों में क्षेत्रीयता को बढ़ावा मिलता है। बरेली की बर्फी, बद्रीनाथ की दुल्हनिया, दम लगाके हईशा जैसी स्माल टाउन फिल्मों को सफलता मिली जबकि इनका बजट बहुत कम था। इन छोटे फिल्मकारों को बड़े पैमाने पर ‘भाईगिरी’ का सामना करना पड़ता है। ये फ़िल्मी परिवार के नहीं हैं और इनका इस दुनिया में कोई गॉडफादर भी नहीं होता।
इस साल के अंत में साल की अच्छी फिल्मों का लेखाजोखा प्रस्तुत किया जाएगा। बड़े अवार्ड समारोहों में इन फिल्मों को चुना जाएगा। पुरस्कार बांटे जाएंगे लेकिन इनमे राष्ट्रवादी फिल्मों को कितनी जगह मिलेगी। 2018 में जॉन अब्राहम की ‘परमाणु’ प्रदर्शित हुई थी लेकिन पुरस्कार मिलेंगे विवादित फिल्म ‘पद्मावत’ को। इसी वर्ष ‘ओमरेटा’ जैसी प्रभावशाली फिल्म प्रदर्शित हुई लेकिन नाम होगा विवादित फिल्म ‘संजू’ का। ये फिल्म उद्योग का सत्य है। यहाँ देश की बात नहीं होती लेकिन देश को तोड़ने वाली फिल्म हो या हिन्दू धर्म को आघात पहुँचाने वाली फिल्म, उसे शाबाशी मिलती है, पुरस्कार मिलते हैं। फिल्म उद्योग की ‘नाल’ दाऊद के काले साम्राज्य से जुड़ी हुई है इसलिए देशद्रोह की बोली ही पसंद की जाएगी।
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