कमलेश कमल : जब किसी चीज़ की अति हो जाती है, उसकी मृत्यु आसन्न हो जाती है। “अति सर्वत्र वर्जयते” का आर्ष उद्घोष हमें इसका स्मरण दिलाता है।
सामान्यतः कोई आंदोलन विषमता या अन्याय से जन्म लेकर सहानुभूति की गोद में पनपता है और अतिवादिता का चोला पहन कर स्वयं ही फाँसी लगा लेता है।
दिखाई पड़ता है कि किसान आंदोलन ने आख़िर अतिवादिता का चोला पहन ही लिया है। शायद ही कोई समझदार व्यक्ति होगा जो किसानों के विरुद्ध होगा, लेकिन आज शायद ही कोई देशभक्त होगा जो दिल्ली में जो कुछ हुआ उसे देखकर किसान के पक्ष में होगा।
शांतिपूर्ण माँग से चले थे, कहाँ पहुँच गए ये प्रदर्शनकारी? सरकार अगर सख़्त होती, तो खालिस्तान के झंडे लहराने वाले को, उपद्रव कर गणतंत्र दिवस पर देश की साख को बट्टा लगाने वाले को और तमाम देशविरोधी गतिविधियों को अंजाम देनेवालों को ऐसा सबक सिखाती कि औरों के अंदर से भी ऐसे प्रदर्शन का कीड़ा निकल जाता।
आमजन ने इतने आंदोलनों को भटकते देखा है कि आंदोलन की अवधारणा ही फ़र्जी लगने लगी है। यह एक दुःखद स्थिति है। स्वस्थ लोकतंत्र में आंदोलन पर से विश्वास डिगना कोई शुभ संकेत नहीं है।
लेकिन जनता क्या करे? बार-बार आंदोलनों के नाम पर छल ही मिला है। असली मुद्दा कहीं खो जाता है, नकली लोग हावी हो जाते हैं।
हमें लोकतंत्र के रूप में अभी भी बहुत विकसित होना शेष है।
स्मरण रहे कि भीड़तंत्र, दूरदर्शिता का अभाव, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद आदि बुराइयों के साथ हम लोकतंत्र की गाड़ी खींच रहे हैं– ऐसे में कोई भी मुद्दा संवेदनशील हो जाता है और ज़रा सी लापरवाही हमें कुछ पीछे ले जाकर पटक देता है।
72 वें गणतंत्र दिवस तक भी हम भीड़तंत्र से गणतंत्र नहीं हो सके हैं। आइए, हम वयस्क गणतंत्र की ओर कदम बढ़ाएँ! भीड़ नहीं बुद्धि से संचालित हों– यही सबसे महत्त्वपूर्ण है।
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