
“मगर वह तो शादीशुदा है? उससे कैसे आपका निकाह हो सकता है?” अकबर की मंशा जानते ही जैसे बाकी लोग चौंक गए! आगरा के किले में बादशाह का आनाजाना बेरोकटोक था। वैसे भी वह दिल्ली का बादशाह था, उसे भला कौन रोक सकता था? मगर आना जाना और एक शादीशुदा पर नज़र पड़ने भर से ही अपने हरम में बुला लेना? यह कहाँ से उचित था? पर भारतीय दरबारी यह भूल रहे थे कि वह चंगेज़ खान के खानदान से है और हिन्दुस्तान की जमीन पर वह उसी की तहज़ीब से चलता था। मुल्ला अब्द-उल-कादिर बदायुनी (१५४० – १६१५) की पुस्तक मुन्तखाब-उत-तवारीख (Muntakhab–ut–Tawarikh) के अनुसार मुग़ल बादशाह अकबर की नजर आगरा के सरदार शेख बादाह (Shaikh Badah) के बेटे अब्दुल वासी की हद से खूबसूरत बीवी पर पड़ गयी थी। और वह उससे निकाह के लिए बेचैन हो गया था। पर क्या वह वाकई निकाह था? यह सवाल सभी हिन्दुस्तानी दरबारियों को मथ रहा था। वह बेचैन थे और दुखी थी कि आखिर किसी की ब्याहता को अपने हरम में लाना कितना बड़ा पाप है। मगर वह यह भूल रहे थे कि रानी पद्मिनी ने भी इसी कारण जौहर किया था।
खिलजी की पापी निगाह से बचने के लिए, पूरे महल की औरतों ने अग्नि की शरण ले ली थी। हरम की आग में ज़िन्दगी भर जलने से उन्हें एक बार की आग की पीड़ा बेहतर लगी।
खैर, बात अकबर की अभी की हो रही थी। अकबर अपनी बादशाहत के नशे में था। उसी बरस वह राजा भारमल की बेटी से निकाह कर चुका था (जिसके विषय में कई प्रकार के विवाद पहले से ही हैं)। उसकी पहली बीवी उसके चाचा हिंदाल मिर्जा की बेटी थी। चूंकि हिंदाल की मौत हुमायूं के लिए लड़ते लड़ते हो गयी थी, इसलिए हुमायूं ने हिंदाल की नौ बरस की बेटी रुकैया का निकाह अपने बेटे अकबर से कर दिया था। उसका दूसरा निकाह अब्दुल्ला खान मुग़ल की बेटी से हुआ था। उसकी तीसरी बीवी भी उसकी बहन थी, उसकी फुफेरी बहन, जिसका निकाह बैरम खान से हुमायूं ने कराया था और बैरम खान की कथित हत्या के बाद अकबर ने उसके साथ निकाह कर लिया था।
उसके बाद अकबर ने साल 1562 में राजा भारमल की बेटी से निकाह किया, और उसी साल शायद निकाह की थकान से थककर वह आगरा में आराम करने आया होगा और फिर शेख बादाह (Shaikh Badah) के बेटे अब्दुल वासी की बीवी पर उसकी नज़र पड़ गयी होगी और थकान उतारने के लिए और एक निकाह करने की जिद्द उस पर सवार हो गयी थी।
अब्द-उल-कादिर बदायुनी ने लिखा है कि एक दिन ऐसा हुआ कि बादशाह की निगाहें शेख की बहू पर टिक गईं तो उसने शेख के पास यह प्रस्ताव भेजने में देर नहीं लगाई कि वह उनकी बहू से निकाह करना चाहता है। यह बदायूनी ने नहीं बताया है कि शेख को कैसा महसूस हुआ होगा, जब उसके सामने यह प्रस्ताव आया होगा कि दिल्ली का बादशाह उसकी बहू से निकाह करना चाहता है। दरअसल आगरा के किले के दरवाजे तो इसलिए बादशाह के लिए खोले गए थे कि वह महल की बेटियों में से जिसे चाहे उसे चुन ले। महल में कव्वाल और लौंडे भेजे जाते थे, जिससे वह देख सकें कि कौन सी लड़की कितनी सुन्दर है और बादशाह को बता दे आकर। मगर आगरा के शेख की किस्मत में तो कुछ और ही था। बादशाह सलामत का दिल तो उसकी बहू पर आ गया था।
मगर वह क्या करता? यदि मना करता तो अपना ही नहीं पूरे परिवार का सिर कलम कर दिया जाता? क्योंकि यह अकबर ही था जिसने यह चलन शुरू किया था कि किसी भी औरत को तलाक नहीं देना है। उसे नई लड़कियों का शौक था। उसके हरम में रानियों और रखैलों के अलावा हज़ारों औरतें थीं। इसलिए कहावत थी कि अकबर के हरम में डोली जाती थी और अर्थी ही वापस आती थी। जो राजपूतों की औरतें डोली से हरम में आती थीं, वह फिर वहीं रह जाती थीं। शायद तभी से कहावत बनी होगी कि डोली में जाना और अर्थी में आना। यहाँ तक कि उसने अपनी एक भी मुस्लिम बीवी को भी नहीं छोड़ा, फिर वह पूरी ज़िन्दगी में एक ही बार उसेक पास गया हो।
आगरा के शेख के पास कोई और चारा नहीं था क्योंकि यह मुग़ल बादशाहों का नियम था कि अगर बादशाह की निगाह किसी भी औरत पर टिकी तो उसके शौहर को उसे हर हाल में तलाक देना ही होगा। अल बदाऊंनी ने आगे लिखा है कि यह चंगेज़ खान के कानूनों अर्थात code of Changiz khan में लिखा है कि बादशाह की नजर जिस औरत पर आ जाए उसे बादशाह के हरम में आना ही होगा।
अंतत: अब्दुल वासी को अपनी सुन्दर बीवी को तलाक देना पड़ा कि वह बादशाह के हरम में चली जाए और वह बीदर चला गया।
इस पूरी घटना से केवल और केवल अय्याशियों की झलकियाँ मिलती हैं, जिन्हें महानता के परदे में छिपाने की लगातार कोशिशें हुई हैं।