1984 के सिख विरोधी दंगे में 34 साल बाद पहली दफा किसी अपराधी को दोषी ठहराने के अदालत के फैसले ने भारतीय लोकतंत्र के चारो स्तंभ को कठघरे में खड़ा कर दिया है। तत्कालिन कांग्रेस सरकार के कई नामचीन हस्तियों को 1984 दंगे में आरोपी बनाया गया था। साढ़े तीन दशक बाद भी कांग्रेस के कद्दावर नेताओं को तो छोड़िए आम दंगाइयों को सजा नहीं मिल पाई। दिल्ली पुलिस ने दंगा के महज डेढ़ साल बाद ही बिना जांच किए 186 मामले बंद कर दिए। मीडिया ने कभी इसे गंभीर मुद्दा नहीं बनाया। धीरे धीरे समय की पड़तों से अन्य मामलों की फाइलों पर भी धुल जमती चली गई और 84 दंगा पीड़ित अपने ही देश में इंसाफ की आस छोड़ कर बेबस और लाचार होते गए।
ये लाचारी दरअसल हमारी न्यायपालिका और उससे बढ़ कर प्रेस की थी। लेकिन गुजरात दंगा की सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में लगभग सभी मामलों में अदालती फैसले के बाद भी लगातार डेढ दशक हाय तौबा मचाने वाली भारतीय मीडिया का दोगला चरित्र देखिए की बिना जांच के 186 मामले बंद कर दिए गए उनके लिए कभी मुद्दा ही नहीं रहा। अब दंगाईयों को दोषी ठहराने का सिलसिला मोदी सरकार के डेढ़ साल पुराने उस फैसले से संभव हो पाया है जिसमें गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने जस्टिस माथुर कमेटी बनाकर 1984 दंगा के सभी फाइलों की समीक्षा करवाई। कमेटी ने पूनर्वलोकन कर 1986 मामले की जांच एसआईटी से कराने की सिफारिश की थी।
1984 के सिख विरोधी दंगे में 34 साल बाद पहली बार किसी पीड़ित को इंसाफ मिला है। दिल्ली के महिपालपुर इलाके में हत्याकांड को अंजाम देने वाले दो लोगों को दोषी ठहराए जाने के दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट के फैसले के बाद यह साबित को गया कि कैसे कांग्रेस की सरकार ने दंगाईयों को बचाने के लिए हर तिकड़म किए और तत्कालीन मीडिया भी सरकार के उन फैसलों पर चुप्पी साधे रही। अदालत दोषियों को 20 नवंबर को सजा सुनाएगी। जिन धाराओं में महिपालपुर निवासी हरदेव सिंह और अवतार सिंह की हत्या के जुर्म में नरेश रावत और यशपाल सिंह नामक अपराधियों को दोषी साबित किया गया है उसमें उन्हे कम कम उम्र कैद और अधिकतम फांसी की सजा हो सकती है।
दंगाईयों को सजा और 84 दंगा के पीड़ित सिख परिवारों को इंसाफ की उम्मीद मोदी सरकार के तीन साल पुराने उस फैसले से संभव हो पाया है जिसमें गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने जस्टिस माथुर कमिटी गठित कांग्रेस सरकार द्वारा बंद किए 237 केसों का पुनर्वलोकन का फैसला किया था। दिल्ली पुलिस द्वारा दंगे के महज डेढ़ साल बाद ही 1986 बिना किसी जांच के 186 मामले बंद कर दिए गए थे। जिसमें सज्जन कुमार और एच के एस भगत समेत कांग्रेस के कई नामचीन नेताओं को राहत मिल गई थी। बदलते दौर में बचे मामलों की सुनवाई भी टलती रही इसमें न तो पीड़ितों के इंसाफ के लिए मीडिया की कभी दिलचस्पी रही न ही अदालत की।
साफ ही दिल्ली पुलिस इतना बड़ा फैसला अपने विवेक पर नहीं कर सकती थी। दिल्ली पुलिस केंद सरकार के अधीन है तो तय सी बात है कि दंगाइयों को बचाने का फैसला तत्कालीन राजीव गांधी सराकर का था। केंद्र सरकार के इतने बड़े अत्याचारी फैसले जिसमें तीन हजार लोग दो दिन के अंदर मौत के घाट उतार दिए गए। इसमे दो हजार लोग तो सिर्फ दिल्ली में मारे गए। कत्लेआम ऐसा कि देश की राजधानी के अंदर टायर जला जला कर लोगों को उसमे फंसा कर जिंदा जला दिया गया। बड़ी संख्या में सिखों की संपत्ति लूट ली गई। लेकिन उन दंगाईयों पर कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई जिनके मालमे अदालत में चलते रहे। सरकार ने बाद में सिखों को संतोष देने के लिए मालमे को सीबीआई को सौंप दिया लेकिन अंजाम वही रहा। कारण यह कि ज्यादातर मामले में कांग्रेस से जुड़े नेता उस साजिश और हत्याकांड में शामिल थे क्योंकि वो मामला देश के प्रधानमंत्री और कांग्रेस के कद्दावर नेता की हत्या से जुड़ा था। प्रधानमंत्री रहते मनमोहन सिंह ने सिख दंगों के लिए देश से माफी भी मांगी थी लेकिन पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए कोई प्रयास कभी नहीं हुआ।
एसआईटी गठित किए जाने के मोदी सरकार के फैसले के महज तीन साल के भीतर दिल्ली की अदालत 20 नवंबर को जब 1984 के सिख विरोधी दंगा के दोषियों को सजा सुनाएगी तो पीड़ित सिख परिवार के परिजनों को 34 साल पुराने जख्म पर थोड़ी राहत का एहसास होगा। यह राहत एक उम्मीद जगाएगी की बांकी मामलों में भी जल्द से जल्द दोषियों को सजा सुनायी जाएगी जिसमें कांग्रेस के वो कद्दावर नेता भी शामिल होंगे जिनके इन अपराधिक मामलों में शामिल होने के कारण ही पीड़ितों को साढ़े तीन दशक बाद भी इंसाफ नहीं मिल पाया।
84 दंगा पीड़ितों को दोषी ठहराते हुए पटियाला हाउस कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अनिल पांडे ने एसआईटी के जांच अधिकारी की जम कर तारीफ की है। अपने 130 पेज के फैसले में जज जांच अधिकारी की काबिलियत की तारीफ करते हुए कहा है कि इतने पुराने मामले में तह तक जाना आसान नहीं था लेकिन यह संभव हो पाया और अपराधियों का दोष साबित हो सका। अदालत के इस फैसले भारतीय लोकतंत्र के सभी स्तभों को सवालों के घेरे में डाल दिया है कि कैसे सत्ता से जुड़े अपराधियों को बचाने के लिए पुलिस ने मामले बंद कर दिए और तीन दशक से ज्यादा समय तक भारतीय मीडिया से वॉच डॉग की कोई भूमिका नहीं निभाई?
सीबीआई के पास हाथी के दिखाने के दांत की तरह मामले सौंपे गए और वो बारी-बारी से मामले में क्लोजर रिपोर्ट फाईल करती रही अदालत कई मामले में उसे दुबारा जांच करने का आदेश देती रही मामला इंसाफ की आस में तीन दशक तक टलता रहा। ये तो वो डेड मामले हैं जिसमें सीबीआई की जांच चल रही है। लेकिन वो मामले जिसमे सत्ता से जुड़े लोगों की साजिश का आरोप था बिना जांच के बंद कर दिए। प्रेस को सत्ता के खिलाफ बोलना चाहिए का नवीन स्वांग रचने वाला भारतीय लोकतंत्र का वॉच डाग 84 दंगा मामले में अपनी कलम तोड़ कर आंख मूंदे बैठा रहा।
URL: Delhi patiala court verdict in 1984 anti-sikh riots case
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