हेमंत शर्मा :-
मुतरेजा जी बड़ा प्रसन्न हैं।आज उन्हें गिन्नी ख़रीदनी है।गिन्नी यानी स्वर्ण मुद्रा। मैने पूछा क्यो ख़रीदेंगे? मुतरेजा मेरे अज्ञान पर हंसे। कहने लगे धनत्रयोदशी यानी धनतेरस पर सोना चॉंदी ख़रीदने से लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं। घर में उनके आने का रास्ता प्रशस्त होता है। कल धनतेरस है। जो सोना चाँदी नहीं ख़रीद पाते।वे बर्तन ख़रीदते हैं। मैं मुतरेजा के ज्ञान से अचंभित था ।मुतरेजा सकुचाते और लजाते हुए बोले सर,सोना ख़रीदने से लक्ष्मी तो प्रसन्न होती ही है। बीबी भी।मुतरेजा अभी वैवाहिक जीवन के स्वर्णकाल में चल रहे हैं।
मैने कहा मुतरेजा सही है धनतेरस दीपावली की दस्तक है। हम धनतेरस की चौखट पर खड़े होकर दीपावली की तरफ देखते है।इसलिये धनतेरस को लक्ष्मी से जोड़ते हैं। पर यह स्वास्थ्य का पर्व है। दरअसल धनतेरस स्वास्थ्य और समृद्धि के बीच जागरूकता का पर्व है। हम धनतेरस को सिर्फ़ सोना ,चॉंदी और बर्तन ख़रीदने का अवसर समझते हैं। और इसे लक्ष्मों प्रसन्न करने का ज़रिया समझते हैं।पर धनतेरस लक्ष्मीपूजा और नए बरतन खरीदने के कर्मकांड के साथ ही आयुर्वेद के प्रणेता व वैद्यकशास्त्र के देवता भगवान धन्वंतरि का जन्मदिन भी है। शास्त्रों में इसका यही महत्व है। क्योंकि हमारे शास्त्र स्वास्थ्य को भी धन मानते हैं। धन्वंतरि की गिनती भारतीय चिकित्सा पद्धति के जन्मदाताओं में होती है। वेदों में इनका उल्लेख है।पुराणों में इन्हें विष्णु का अवतार कहा गया है। समुद्रमंथन में जो चौदह रत्न निकले, उनमें एक धन्वंतरी भी थे। वे काशी राजधन्य के पुत्र थे, इसलिए ‘धन्वंतरि’ कहलाए।
पर मुतरेजा मानने को तैयार नहीं थे। वे कहने लगे कि आप शास्त्र की बात करते हैं मैं परम्परा की। हमारे यहॉं परम्परा से सोना खरीदा जाता है। ऐसा कर दादा जी दादी को ,पिता जी माता जी को प्रसन्न करते थे। मैं पत्नी की प्रसन्नता के लिए ऐसा करूँगा। परम्परा के प्रति मुतरेजा की जकड़न को देख मैंने कहा ज़रूर ख़रीदें पर कथा सुनाता हूँ।
आज ही के रोज़ वे धन्वंतरि समुद्र मंथन से अमृत कलश लेकर निकले थे। वे हिन्दू धर्म में मान्य देवताओं में से एक हैं। वे आयुर्वेद के प्रणेता और वैद्यक शास्त्र के देवता माने जाते हैं। महाभारत, श्रीमदभागवत, अग्निपुराण, वायुपुराण, विष्णपुराण तथा ब्रह्मपुराण में उनका जिक्र है। श्रीमदभागवत में विष्णु के जो 24 अवतार बताए गए हैं उनमें धन्वंतरि 12वें अवतार हैं।समुद्र मंथन में शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पहले धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाते है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का प्रादुर्भाव किया था।
भगवान विष्णु के रूप की तरह धन्वन्तरि की भी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है।इन्हे आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं- आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है। सुश्रुत संहिता के अनुसार
ब्रह्मा प्रोवाच ततः प्रजापतिरधिजगे,
तस्मादश्विनौ, अश्विभ्यामिन्द्रः इन्द्रादहमया
त्विह प्रदेपमर्थिभ्यः प्रजाहितहेतोः
यानी ब्रह्मा ने एक लाख श्लोक का आयुर्वेद रचा जिसमें एक हजारअध्याय थे। उनसे प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने, अश्विनी कुमारों से इन्द्र ने और इन्द्र सेघन्वन्तरि ने पढा। धन्वन्तरि से सुनकर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की।
नालन्दा विशाल शब्दसागर के अनुसार ” धन्वन्तरि प्रणीत चिकित्सा शास्त्र,वैद्य विद्या ही आयुर्वेद है।”
वायु तथा ब्रह्माण पुराणों में धन्वन्तरि को आयुर्वेद का उद्धारक बताया गया है। पौराणिक काल में धन्वन्तरि भगवान के रुप में पूजनीय थे- ‘धन्वन्तरिभगवान् पात्वपथ्यात्’। चरक संहिता में भी धन्वन्तरि को आहुति देने का विधान है।
धन्वन्तरी काशी के राजा थे पुराणों में काशिराज दिवोदास का एक नाम धन्वन्तरी कहा जाता है।सुश्रुत ने शल्यशास्त्र के अध्ययन की इच्छा प्रकट की थी, इसलिए धन्वन्तरि ने इसी अंग का उपदेश दिया। सुश्रुत के पांच स्थानों में (सूत्र, निदान, शरीर चिकित्सा और कल्प में) शल्य विषय ही प्रधान है इसीलिए कुछ लोगों ने धन्वन्तरि शब्द का अर्थ ही शल्य में पारंगत किया है। (धनुः शल्यं तस्य अन्तं पारमियर्ति गच्छतीति धन्वन्तरिः)
बाद में धन्वन्तरि एक सम्प्रदाय बना जिसका संबंध शल्य शास्त्र से है। जो भी शल्य शास्त्र में निपुण होते थे, उन सबको धन्वन्तरि कहा जाता था। इसी से चरक संहिता में धन्वन्तरीयाणां बहुवचन मिलता है। स्पष्ट है, आदि उपदेष्टा धन्वन्तरि थे। इन्हीं के नाम से यह अंग चल पड़ा।गरुण और मार्कंडेय पुराणों के अनुसार :- ‘गरुड़पुराण’ और ‘मार्कण्डेयपुराण’ के अनुसार वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण ही धन्वंतरि वैद्य कहलाए थे।
विष्णु पुराण के अनुसार :- धन्वन्तरि दीर्घतथा के पुत्र बताए गए हैं। इसमें बताया गया है वह धन्वन्तरि जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है। भगवान नारायण ने उन्हें पूर्व जन्म में यह वरदान दिया था कि काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे।
ब्रह्म पुराण के अनुसार :- काशी के संस्थापक ‘काश’ के प्रपौत्र, काशिराज ‘धन्व’ के पुत्र, धन्वंतरि महान चिकित्सक थे जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ। राजा धन्व ने अज्ज देवता की उपासना की और उनको प्रसन्न किया और उनसे वरदान मांगा कि हे भगवन आप हमारे घर पुत्र रूप में अवतीर्ण हों उन्होंने उनकी उपासना से संतुष्ट होकर उनके मनोरथ को पूरा किया जो संभवतः धन्व पुत्र तथा धन्वन्तरि अवतार होने के कारण धन्वन्तरि कहलाए। जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ।
इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने ‘शल्य चिकित्सा’ का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य, दिवोदास के शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र ‘सुश्रुत संहिता’ के प्रणेता, सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे। बनारस में कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा हर कहीं होती हैं। कैसा अद्भुत इतिहास है इस शहर का शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस काशी कालजयी नगरी बन गयी।
धन्वन्तरी के तीन रूप मिलते है।
- समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वन्तरि प्रथम।
- धन्व के पुत्र धन्वंतरि द्वितीय।
- काशिराज दिवोदास धन्वन्तरि तृतीय।
धन्वन्तरि प्रथम तथा द्वितीय का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में भी मिलता है- जिसमें आयुर्वेद के आदि ग्रंथों सुश्रुत्र संहिता चरक संहिता, काश्यप संहिता तथा अष्टांग हृदय में विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों भाव प्रकाश, शार्गधर तथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रंथों में आयुर्वेदावतरण का प्रसंग उधृत है। इसमें भगवान धन्वन्तरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है।
वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी कुमार को था वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ- जहाँ अश्विनी के हाथ में मधुकलश था वहाँ धन्वंतरि को अमृत कलश मिला। क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं अत: रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि को विष्णु का अंश माना गया। विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण (३.५१) में आया है। उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है –
‘सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:।
शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:।। (ब्र.वै.३.५१)
जिन्हे वासुदेव धन्वंतरि कहते हैं, जो अमृत कलश लिए हैं, सर्व भयनाशक हैं, सर्व रोग नाश करते हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं और उनका निर्वाह करने वाले हैं; उन विष्णु स्वरूप धन्वंतरि आप सब लोगों के आरोग्य की रक्षा करें । पर मुतरेजा मानने को तैयार नहीं है। वे आज ज़रूर किसी सोने चाँदी की दुकान में पाए जायगें।
धनतेरस की आप सबको मंगलकामनाएँ।
साभार: हेमंत शर्मा के फेसबुक वॉल से।