* धर्म को परिभाषित करते हुए अदालत अपनी काल्पनिक चेतना को लागू नहीं कर सकती- जस्टिस इंदु मल्होत्रा
* पांचो आरोपियों की गिरफ्तारी दुर्भाग्यपूर्ण है। महाराष्ट्र पुलिस ने प्रेस कांफ्रेस कर मीडिया ट्रायल किया है। ऐसा लगता है कि पुलिस के पास सबूत नहीं थे लेकिन लोगों का भरोसा जीतने के लिए यह सब किया। इस पूरे मामले की SIT जांच की जरूरत है- जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़
* मस्जिद इस्लाम का अभिन्न अंग है इस विषय पर फैसला धार्मिक आस्था को ध्यान में रखते हुए होना चाहिए, उस पर गहन विचार की जरुरत है-
जस्टिस अब्दुल नजीर
भारत की सुप्रीम अदालत द्वारा दो दिनों के भीतर तीन ऐतिहासिक फैसले पर यह अल्पमत जज का फैसला है। कानून के मुताबिक अल्पमत जज के फैसले के मायने नहीं होते। अब तक परंपरा यही रही है। सुप्रीम अदालत का वही फैसला अंतिम आदेश माना जाता है जिसे बहुमत के जजों द्वारा जारी किया गया। आज भी यही नियम लागू है लेकिन विचारधारा में बंटी मीडिया उस खबर को बेचती है जो उसे तुष्ट करता है। एनडीटीवी ने अपने एजेंडा पत्रकार रविश कुमार पांडे को बैठा कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बदले अल्पमत जज के फैसलों को मुद्दा बना कर मानो देश में आग लगाने का फैसला कर लिया है।
सबरीमाला मंदिर मामले में जस्टिस इंदु मल्होत्रा के इस आदेश के कोई मायने नहीं है जिसमें अपनी टिप्पणी देते हुए कहा “धर्म को परिभाषित करते हुए अदालत अपनी काल्पनिक चेतना को लागू नहीं कर सकती”। फैसला वही माना जाएगा जिसे-बाकी के चार जजों ने माना। चार जजों ने मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक को खत्म करने का फैसला जारी किया है। उसके ही मायने हैं। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि स्त्री और पुरुष में भेदभाव करकिसी भी व्यवस्था को नहीं चलाया जा सकता। सुप्रीम अदालत के इस फैसले पर मीडिया की वो बिरादरी चुप रही जो अल्पमत के फैसले को ही सुप्रीम कोर्ट का आदेश मानकर देश में दंगे की साजिश रचती है। सदियों से जिस परम्परा को सबरी माला मंदिर में माना जाता था कि 10 से 50 साल कि महिला जो मासिक धर्म के दौर से गुजर रही होती हैं वो मंदिर नहीं जा सकती! सुप्रीम कोर्ट ने उसे एक झटके में खत्म कर दिया! कहने को तो यह किसी धर्म और परम्परा में अदालत का सीधा हस्तक्षेप था लेकिन बदलाव को स्वीकार करने वाले लोगों ने इसे सहर्ष स्वीकार किया। एजेंडा पत्रकारिता के ठेकेदारों के लिए भी इस फैसले के मायने नहीं थे।
दूसरी ओर सबरीमाला मंदिर के अदालती फैसले के एक दिन पहले अयोध्या मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने अपने आदेश में कहा “अयोध्या में टाइटल सूट विवाद है। जिस पर इलाहाबाद हाइकोर्ट ने फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट हाइकोर्ट के उसी फैसले पर सुनवाई करेगा”। सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस आदेश के द्वारा पूरे मामले की लेट लतीफी के लिए वकील राजीव धवन द्वारा दाखिल उस अर्जी को खारिज कर दिया जिसमें में मस्जिद को इसलाम का हिस्सा नहीं मानते हुए 1994 में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश को चुनौती देने के लिए बड़ी बैंच बनाने की मांग थी। धवन की अर्जी के मुताबिक पूरा केस तीन के बदले पांच जजों की बेंच के पास भेजा जाना चाहिए। ताकि 1994 के सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को बदला जाए जिसमे मस्जिद को इसलाम का हिस्सा नहीं माना गया है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अयोध्या में राममंदिर मामले को टालने की हर डिलेइंग टेक्टिस पर विराम लग गया। यह सब कुछ कानून सम्मत हुआ लेकिन इस मामले में अल्पमत के जज जस्टिस नजीर ने अपनी टिप्पणी में कहा कि यह मजहब का मामला है इसे ऊपर की बेंच के पास भेजा जाना चाहिए। दिलचस्प यह कि एजेंडा पत्रकारिता के खिलाडियों ने जस्टिस नजीर की टिप्पणी पर ही हंगामा मचाना शुरु कर दिया। एनडीटीवी ने अपने प्राइम टाइम के शो में राजीव धवन को बैठा कर यह साबित करने की साजिश की कि अल्पमत के जज जस्टिस नजीर का फैसला ही सही है। दरअसल 5 दिसंबर 2017 को जब अयोध्या मामले की सुनवाई शुरू हुई थी। इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये मामला महज जमीन विवाद है।
इलाहाबाद हाइकोर्ट में भी इसे सिर्फ जमीन विवाद ही माना गया जिस पर अदालत ने 2010 में अपना फैसला जारी किया था। हाइकोर्ट के फैसले के बाद सालों तक यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित रहा। लेकिन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा की पीठ ने जब इस मामले की नियमित सुनवाई कर फैसला लिया तो डिलेइंग टैक्सिस का खेल शुरु हुआ। राजीव धवन की याचिका उसी टैक्टिस का हिस्सा था जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। तीन जजों की बेंच ने बहुमत से यह फैसला जारी किया। कानून के मुताबिक अल्पमत के फैसले के मायने नहीं होते लेकिन एनडीटीवी ने अपने एजेंडा पत्रकार को जज जस्टिस नजीर के फैसले को ही अहम मानते हुए यह साबित करने का प्रयास किया कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुसलमानों के खिलाफ है जिसे एक मुसलिम जज ने भी माना।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ याचिकाकर्ता वकील राजीव धवन के बहाने से एनडीटीवी ने माहौल बनना शुरु किया कि नमाज अदा करना धार्मिक प्रैक्टिस है और इस अधिकार से किसी को वंचित नहीं किया जा सकता। ये इस्लाम का अभिन्न अंग है। क्या मुस्लिम के लिए मस्जिद में नमाज पढ़ना जरूरी नहीं है? दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने 1994 में दिए फैसले में कहा था कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है। इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला 1994 के जजमेंट के आलोक में ही था। डिलेइंग टैक्टिस के तहत यह कोशिस की जा रही थी कि सुप्रीम कोर्ट टाइटल शूट के बदले 1994 के जजमेंट के खिलाफ बड़ी बैंच बनाए जहां मस्जिद और इसलाम पर चर्चा हो। तय सी बात है सुप्रीम कोर्ट यदि इस अर्जी को स्वीकार कर लेता तो अयोध्या विवाद अभी और कई दशकों तक अदालत में लटका रहता। एजेंडा पक्षकारों की यही पीड़ा थी। इसी लिहाज से रविश पांडे अल्पमत जज के फैसले के आधार पर साबित करते रहें कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुसलमानों के खिलाफ है। आम तौर पर यह नहीं देख जाता कि अदालत के बहुमत के फैसले के खिलाफ कोई चैनल इस कदर माहौल बना कर किसी समुदाय को भड़काने का काम करे।
ठीक इसी तरह भीमा कोरेगांव मामले में अल्पमत जज की टिप्पणी के कोई मायने नहीं थे लेकिन प्रणय राय के एनडीटीवी ने दिन भर देश के अलग अलग हिस्से से जहां-जहां आरोपी अर्बन नक्सल हाउस अरेस्ट हैं वहां से अपने रिपोर्टरों के माध्यम से सुप्रीम अदालत के फैसले के खिलाफ अभियुक्तों के परिजनो की पीड़ा को ही मुद्दा बनाया।
दरअसल भीमा कोरेगांव में नक्सलियों से संबंध के आरोप में गिरफ्तारी पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले कहा इस मामले में अदालत कोई दखल नहीं देगा। तीन जजों की बेंच से दो जजों मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस खनवेलकर ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में दखल नहीं देगा पुलिस चाहे तो उन्हें गिरफ्तार कर सकती है। अभियुक्त निचली अदालत की शरण ले सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक सभी अभियुक्त अगले चार चार हप्ते तक हाउस अरेस्ट रहेंगे। बहुमत के इस फैसले में कहा गया कि मामले कि SIT जांच की जरूरत नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक पुलिस ने विरोध का स्वर दबाने के लिए उन्हें गिरफ्तार नहीं किया और उनकी गिरफ्तारी किसी भी तरह से गलत नहीं है। सुप्रीम अदालत के इस स्पष्ट आदेश के दंगा भड़काने की साजिश करने वालों के लिए कोई मायने नहीं थे। उनके लिए अल्पमत के जज जस्टिस चंद्रचूड़ के आदेश के मायने थे। जिसका कोई कानून आधार नहीं था। जस्टिस चंद्रचूड़ के आदेश के हवाले से ही एनडीटीवी ने दिन भर अभियुक्त अर्बन नक्सलों के घर से उनके पिरजनों के दर्द को बेचा जहां वे हाउस अरेस्ट थे। ये साबित करता है कि एजेंडा पत्रकारिता के सहारे देश के कानून और व्यवस्था के खिलाफ साजिश रचने वाले दरअसल पत्रकारिता के बहाने देश में आग लगाने के धंधे में लिप्त हैं।
URL: Did NDTV’ have given contract to ravish for riots against SC verdict on urban naxal?
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