श्वेता पुरोहित। पुराणों में दिव्य उपदेश!
अनेकजन्मतपसा लब्ध्वा जन्म च भारते।
ये हरिं तं न सेवन्ते ते मूढाः कृतपापिनः ॥
वासुदेवं परित्यज्य विषये निरतो जनः ।
त्यक्त्वामृतं मूढबुद्धिर्विषं भुङ्गे निजेच्छया ॥
(ब्रह्मवैवर्त०, कृष्णजन्म० १६ । ३८-३९)
‘अनेक जन्मों की तपस्या के फलसे भारत में जन्म पाकर भी जो लोग श्रीहरिका सेवन-भजन नहीं करते, वे मूर्ख और पापी हैं। जो मनुष्य वासुदेवका त्याग करके विषयोंमें रचा-पचा रहता है, वह महान् मूर्ख है और जान-बूझकर अमृतका त्याग करके विष-पान करता है।’
अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमकल्पता।
एतानि मानसान्याहुव्रतानि हरितुष्टये ॥
(पद्म०, पाताल० ८४।४२)
‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्यपालन तथा निष्कपटभावसे रहना- ये भगवान् की प्रसन्नताके लिये मानसिक व्रत कहे गये हैं।’
यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् ।
अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ॥
(श्रीमद्भा० ७।१४।८)
‘मनुष्योंका हक केवल उतने ही धनपर है, जितनेसे उनका पेट भर जाय। इससे अधिक सम्पत्तिको जो अपनी मानता है, वह चोर है, उसे दण्ड मिलना चाहिये।’
असंकल्पाज्जयेत् कामं क्रोधं कामविवर्जनात्।
अर्थानर्थेक्षया लोभं भयं तत्त्वावमर्शनात् ॥
आन्वीक्षिक्या शोकमोहौ दम्भं महदुपासया।
योगान्तरायान् मौनेन हिंसां कायाद्यनीहया ॥
कृपया भूतजं दुःखं दैवं जह्यात् समाधिना ।
आत्मजं योगवीर्येण निद्रां सत्त्वनिषेवया ॥
(श्रीमद्भा० ७। १५ । २२-२४)
‘धर्मराज ! संकल्पोंके परित्यागसे कामको, कामनाओंके त्यागसे क्रोधको, संसारी लोग जिसे अर्थ कहते हैं उसे अनर्थ समझकर लोभको और तत्त्वके विचारसे भयको जीत लेना चाहिये। अध्यात्मविद्यासे शोक और मोहपर, संतोंकी उपासनासे दम्भपर, मौनके द्वारा योगके विघ्नोंपर और शरीर-प्राण आदिको निश्चेष्ट करके हिंसापर विजय प्राप्त करनी चाहिये। आधिभौतिक दुःखको दयाके द्वारा, आधिदैविक वेदनाको समाधिके द्वारा और आध्यात्मिक दुःखको योगबलसे एवं निद्राको सात्त्विक भोजन, स्थान, संग आदिके सेवनसे जीत लेना चाहिये।’
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वै।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ॥
(पद्म०, उ० ९४।२१)
नारदजी बोले कि एक बार मैंने भगवान् से पूछा – ‘देवेश्वर ! आप कहाँ निवास करते हैं ?’
तो वे भगवान् विष्णु मेरी भक्तिसे संतुष्ट होकर इस प्रकार बोले- ‘नारद ! न तो मैं वैकुण्ठमें निवास करता हूँ और न योगियोंके हृदयमें। मेरे भक्त जहाँ मेरा गुणगान करते हैं, वहीं मैं भी रहता हूँ।’
कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा भाग्यवती च तेन। विमुक्तिमार्गे सुखसिन्धुमग्नं लग्नं परे ब्रह्मणि यस्य चेतः ॥
(स्कन्द०, मा० कुमार० ५५।१३९)
‘जिसका चित्त मोक्षमार्गमें आकर परब्रह्म परमात्मामें संलग्न हो सुखके अपार सिन्धुमें निमग्न हो गया है, उसका कुल पवित्र हो गया, उसकी माता कृतार्थ हो गयी तथा उसे प्राप्त करके यह सारी पृथ्वी भी सौभाग्यवती हो गयी।’
यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकता।
एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ॥
(नारद०, पूर्व० प्रथम० ७।१५)
‘यौवन, धन-सम्पत्ति, प्रभुता और अविवेक-इनमेंसे एक-एक भी अनर्थका कारण होता है, फिर जहाँ ये चारों मौजूद हों, वहाँके लिये क्या कहना।’
नास्त्यकीर्तिसमो मृत्युर्नास्ति क्रोधसमो रिपुः ।
नास्ति निन्दासमं पापं नास्ति मोहसमासवः ॥
नास्त्यसूयासमा कीर्तिर्नास्ति कामसमोऽनलः ।
नास्ति रागसमः पाशो नास्ति सङ्गसमं विषम् ॥
(नारद०, पूर्व० प्रथम० ७।४१-४२)
‘अकीर्तिके समान कोई मृत्यु नहीं है, क्रोधके समान कोई शत्रु नहीं है। निन्दाके समान कोई पाप नहीं है और मोहके समान कोई मादक वस्तु नहीं है। असूयाके समान कोई अपकीर्ति नहीं है, कामके समान कोई आग नहीं है। रागके समान कोई बन्धन नहीं है और आसक्तिके समान कोई विष नहीं है।’
परनिन्दा विनाशाय स्वनिन्दा यशसे परम्।
(ब्रह्मवैवर्त०, श्रीकृष्णजन्मखण्ड ४।७)
‘परायी निन्दा विनाशका और अपनी निन्दा यशका कारण होती है।’
बिना विपत्तेर्महिमा कुतः कस्य भवेद्भुवि ॥
(ब्रह्मवैवर्त०, श्रीकृष्ण० १८। १२६)
‘विपत्तिके बिना पृथ्वीपर किसीकी महिमा कैसे प्रकट हो सकती है।’
स यं हन्ति च सर्वेशो रक्षिता तस्य कः पुमान्।
स यं रक्षति सर्वात्मा तस्य हन्ता न कोऽपि च ॥
(ब्रह्मवैवर्त०, श्रीकृष्ण० ७२।१०५)
‘वे सर्वेश्वर प्रभु जिसे मारते हैं उसकी रक्षा कौन पुरुष कर सकता है ? और वे सर्वात्मा श्रीहरि जिसकी रक्षा करते हैं, उसे मारनेवाला भी कोई नहीं है।’
पश्चात्तापः पापकृतां पापानां निष्कृतिः परा।
सर्वेषां वर्णितं सद्भिः सर्वपापविशोधनम् ॥
(शिव०, मा० ३।५)
‘पश्चात्ताप ही पाप करनेवाले पापियोंके लिये सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है। सत्पुरुषोंने सबके लिये पश्चात्तापको ही सब पापोंका शोधक बतलाया है।’
दातुः परीक्षा दुर्भिक्षे रणे शूरस्य जायते।
आपत्कालेषु मित्रस्याशक्तौ स्त्रीणां कुलस्य हि ॥
विनतेः संकटे प्राप्तेऽवितथस्य परीक्षतः ।
सुस्नेहस्य तथा तात नान्यथा सत्यमीरितम् ॥
(शिव०, रुद्र० १७। १२-१३)
‘दाताकी परीक्षा दुर्भिक्षमें, शूरवीरकी परीक्षा रणांगणमें, मित्रकी परीक्षा विपत्तिमें तथा स्त्रियोंके कुलकी परीक्षा पतिके असमर्थ हो जानेपर होती है। संकट पड़नेपर विनयकी परीक्षा होती है और परीक्षामें सच्चे एवं उत्तम स्नेहकी परीक्षा होती है, अन्यथा नहीं। यह मैं सत्य कहता हूँ।’