मैंने धीरे-धीरे सीखा कि अधिकांश हिन्दू जीतने की इच्छा ही नहीं रखते। बल्कि, जैसे हजार साल पहले अल बरूनी ने पाया था, वे अपने छोटे से बुलबुले में सुख से रहना अधिक पसंद करते हैं। मैंने तो हिन्दुओं के अपने घोषित शत्रुओं के बारे में भारी अज्ञान को देखते हुए, जल्दी-जल्दी कुछ तीखी वास्तविकताएं सामने रखने का काम किया। पर वे शायद ही ध्यान देते हैं। विशेषतः हिन्दू नेता लोग। लेकिन जब तक हिन्दू अपने मर्मांतक शत्रुओं के बारे में तरह-तरह की आरामदेह समझ बनाए रखेंगे, वे हारते रहेंगे। पर उन की मर्जी! hindu duradashee na jae
कूनराड एल्स्ट प्रोपेगंडा करने वाला तंत्र वीकीपीडिया (जिसे उस के संस्थापक ने ही यही कहकर निंदित किया), स्पष्ट शब्दों में कहता है कि मैं आर.एस.एस. का कर्मचारी हूँ। यद्यपि यह साफ झूठ है। लेकिन बड़ी संख्या में लोगों ने, और बिके हुए भारत-विशेषज्ञों ने उस प्रोपेगंडा को हू ब हू स्वीकार कर लिया है।
जब मैं हिन्दुओं की स्थिति का बचाव करता हूँ, तो सदैव मुझे पीछे से अपनी पीठ पर हिन्दुओं का भी वार झेलना पड़ता है। अधिकांशतः विविध हिन्दू संप्रदायों द्वारा। जैसे, नव-बौद्ध, आर्य समाज, अपने को परंपरावादी कहने वाले (‘ट्रैड’), मैक-सिख, आदि। पिटे लोगों की तरह वे वृहत्तर लक्ष्य को नहीं देख पाते।
हिन्दूवादी संगठनों का वही पतन हुआ है जो गाँधीजी की अहिंसा का हुआ था। पहले, दक्षिण अफ्रीका में, यह दबंगों के विरुद्ध दुर्बल का हथियार था जिसे कुछ सफलता भी मिली। किन्तु १९४७ ई. तक आकर हिन्दू शरणार्थियों को गाँधी की यह सलाह कि पाकिस्तान लौटकर चुपचाप जिबह हो जाओ, दबंग के सामने आत्मसमर्पण और उस से सहयोग तक हो गया! वही पतन हिन्दुत्ववादी संगठन का हुआ है। पहले इन्होंने हिन्दू समाज की सेवा की थी, लेकिन अब उस का इस्तेमाल अपने अ-वैचारिक स्वार्थों के लिए कर रहे हैं। दोनों ही प्रसंगों में, वैचारिक रीढ़ के अभाव ने सशक्त मतवादी हवाओं, जैसे सेक्यूलरिज्म के सामने हिन्दुओं के पैर उखड़ने की स्थिति बना दी।
सचमुच, यह मेरी सब से बड़ी निराशा साबित हुई है। हिन्दू रक्षा के बौद्धिक योद्धाओं के लिए सब से बड़ी बाधा यही है कि उन्हें, मूलतः आर.एस.एस. को, ‘फासिस्ट‘ कह कर बदनाम किया जाता है। मैंने शोध करके इस आरोप को खंडित किया। किन्तु हिन्दू नेताओं ने मेरी और मेरे काम की उपेक्षा की। वे इस बाधा के सामने सदा फँसे रहना चाहते हैं। हिन्दुओं ने ‘हिन्दू फासिज्म‘ पर मेरे काम की उपेक्षा की, इस से मुझे कुछ समझ आया कि क्यों वे दर-बदर बने रहते हैं, और कहीं नहीं पहुँचते। इस की तुलना में सोचें, तो रणनीति माहिर चर्च-संगठन अब तक ऐसे काम का जमकर उपयोग कर चुके होते, और मुझे भी खाली तालियों के सिवा भी कुछ देते! किन्तु हिन्दू तो इस ‘फासिज्म‘ के कोड़े से मार खाते रहना पसंद करते हैं।
संघ-भाजपा के समर्थक कहते हैं कि उन्हें किसी से सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं। सचमुच, हिन्दुओं को त्याज्य मानते हुए भाजपा उन से कोई प्रमाणपत्र नहीं चाहती। लेकिन उसे ‘किसी से कुछ पाने की जरुरत नहीं’, यह कहना खोखला दंभ है। क्योंकि यदि उन्हें सचमुच किसी से कुछ नहीं चाहिए तो, बताइए जरा, वे गिड़गिड़ाते हुए अल्पसंख्यकों व सेक्यूलरों से कुछ न कुछ क्यों माँगते रहते हैं?
मुसलमानों को व्यवहार में आरक्षण और अन्य कई सुविधाएं मिली हुई हैं। इस पर हिन्दुओं को कोई क्रोध नहीं आता, न वे इस पर विरोध करते हैं। उसी तरह, जब मोदी जी मोईनुद्दीन चिश्ती पर चादर चढ़ाते हैं, तो हिन्दू लोग इस पर ध्यान तक नहीं देते। अधिकांश हिन्दू दिखावे, तमाशे पसंद करते हैं। इस हद तक कि यह भी नहीं देखते कि वह किस लिए हो रहा है। कई हिन्दू तो खुद अजमेर में चिश्ती की कब्र पर चले जाते हैं। तो, स्वभाविक है कि भाजपा नेता हिन्दुओं की नाराजगी का खतरा उठाए बिना मुस्लिम वोटरों की खुशामद में लगे रहते हैं।
‘धीरे-धीरे काम होगा’ वाली दलील बहानेबाजी है। क्या नोटबंदी धीरे-धीरे हुई थी? या अनुच्छेद 370 को हटाना जो एक स्वागतयोग्य काम था? पिछले आठ वर्ष बहुत लंबी अवधि थे जिस में सचमुच हालात बदलने वाला असली काम हो सकता था – यानी संविधान के अनुच्छेद 25-30 के अर्थ का विकृतिकरण सुधार दिया जाना। पर कुछ न हुआ। लेकिन भक्त लोग मिथ्याचारी बहाने गढ़ते रहते हैं।
भारत में हिन्दुओं को मुसलमानों व क्रिश्चियनों के बराबर अधिकार देने का निर्णय संसद में करने के लिए दो-तिहाई बहुमत न होने, आदि दलीलें भाजपा-भक्तों की बहानेबाजी है। वैसे बहुमत के बिना भी आप प्रस्ताव पेश तो कर सकते हैं। वैसी स्थिति में आप को दूसरे कुछ दलों का समर्थन भी मिल सकता है। विशेषतः जब हिन्दू अधिकार के बदले, आप इसे देश के ‘सभी नागरिकों की समानता’ के नाम पर प्रस्तुत करें, तो इसे समर्थन देने वाले जरूर मिल सकेंगे। किन्तु वह प्रस्ताव पास न भी हुआ, तब भी यह दिखेगा कि आप लड़े, चाहे विफल हुए। उस के बाद यह मजे से अगले चुनाव में एक मुद्दा बन कर आपको लाभ भी दे सकेगा।
एक ही घिसी-पिटी बातें कहना, बहाने गढ़ना भारत में एक वर्ग की आदत बन गई है। इस में वे आर.एस.एस. जैसा ही व्यवहार करते हैं – कि दूसरों की प्रतिक्रिया, सुझाव, आलोचनाओं, आदि से कभी कुछ नहीं सीखना। उस पर कान ही न देना। केवल अपनी सीमित, बनी-बनाई नारेबाजी चलाते रहना।
मैंने धीरे-धीरे सीखा कि अधिकांश हिन्दू जीतने की इच्छा ही नहीं रखते। बल्कि, जैसे हजार साल पहले अल बरूनी ने पाया था, वे अपने छोटे से बुलबुले में सुख से रहना अधिक पसंद करते हैं। मैंने तो हिन्दुओं के अपने घोषित शत्रुओं के बारे में भारी अज्ञान को देखते हुए, जल्दी-जल्दी कुछ तीखी वास्तविकताएं सामने रखने का काम किया। पर वे शायद ही ध्यान देते हैं। विशेषतः हिन्दू नेता लोग। लेकिन जब तक हिन्दू अपने मर्मांतक शत्रुओं के बारे में तरह-तरह की आरामदेह समझ बनाए रखेंगे, वे हारते रहेंगे। पर उन की मर्जी!
चीनी लोग जीत रहे हैं। क्योंकि वे हिन्दुओं की तरह दिखावटी तमाशों, झुनझुनों पर समय नष्ट नहीं करते। वे ‘इंडिया दैट इज भारत’ जैसा कुछ नहीं कहते, बल्कि साफ कहते हैं कि हम अपने देश के अंदर ‘झोंग्गुओ’ ही बोलेंगे, उसे ‘चाइना’ नहीं कहेंगे। जब कि हिन्दू लोग तो अपने देश का नाम भी अपना कहने में असमर्थ हैं।
औसत या मंदबुद्धि लोगों को यह बड़ी बात लग सकती है कि किसी के कितने अनुयायी हैं। इसलिए वे आलोचना के किसी महत्वपूर्ण स्वर को भी तुच्छ समझते हैं। लेकिन याद करें, कि गैलीलियो के विरोधी कितनी भारी संख्या में थे! फिर भी वे सभी गलत थे। अतः कितनी बड़ी संख्या में किसी दल या संगठन के अनुयायी हैं, यह किसी ठोस तथ्य या सत्य के समक्ष महत्वहीन है।
आर.एस.एस. के लोग सब कुछ पर अपना नियंत्रण रखने पर बड़ा जोर देते हैं। वे असली शक्ति-पदों पर अपने दुश्मनों को नामित कर देते हैं। जैसे, 2002 ई. में ‘ऑक्सफोर्ड चेयर ऑन इंडियन स्टडीज’ पर संजय सुब्रह्मण्यम को नियुक्त किया था। वे सोचते है कि चूँकि उन्होंने नियुक्त किया, इसलिए वह उन का चमचा हो गया जिसे वे नियंत्रित कर लेंगे।
अतः संघ-भाजपा कार्यकर्ता व्यर्थ का घमंड पालते हैं। उन्होंने कोई इकोसिस्टम नहीं बनाया है। जैसा ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म में प्रोफेसर मेनन बोलती है, ‘‘सरकार उन की होगी, मगर व्यवस्था हमारी है।’’ सो, संघ-भाजपाई लोग अभी भी पूरी तरह नेहरूवादी कायदों से चल रहे हैं। चाहे, हिन्दुओं को बहलाने के लिए सस्ते झुनझुने, छिट-पुट तमाशे देते रहें। लेकिन धीरे-धीरे हिन्दुओं का एक वर्ग यह समझने लगा है।
दरअसल, ‘आफिस’ पर कब्जा रखने और ‘पावर’ रखने में अंतर है। जब इंदिरा गाँधी को कम्युनिस्टों का समर्थन चाहिए था, तो उन्होंने यही सौदा किया: आफिस और उस से जुड़ी सारी सुख-सुविधाएं कांग्रेस-आई को, तथा संस्कृति व शिक्षा को नियंत्रित करने का पावर कम्युनिस्टों को। इसलिए, भाजपाइयों द्वारा तमाम आफिसों में बैठे रहने का स्वतः अर्थ यह नहीं कि वे पावर में भी हैं। उन्होंने ‘आफिस’ और तत्संबंधी सुख-सुविधाओं को ही सब कुछ मान रखा है; इसीलिए पावर आज भी वामपंथी, सेक्यूलरवादी इस्तेमाल कर रहे हैं। (जारी)