ओशो :-
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी घटना से मैं आज की चर्चा शुरू करना चाहूंगा। एक काल्पनिक घटना ही मालूम होती है, एक सपने जैसी झूठी,एक किसी कवि ने सपना देखा हो ऐसा ही।
लेकिन जिंदगी भी बहुत सपना है और जिंदगी भी बहुत कल्पना है और जिंदगी भी बहुत झूठ है।
एक बहुत बड़ा मूर्तिकार था। उसकी मूर्तियों की इतनी प्रशंसा थी सारी पृथ्वी पर कि लोग कहते थे कि वह जिस व्यक्ति की मूर्ति बनाता है, अगर उस व्यक्ति को मूर्ति के पास ही श्वास बंद करके खड़ा कर दिया जाए, तो पहचानना मुश्किल है कि कौन मूल है कौन मूर्ति है, कौन असली है कौन नकल है।
उस मूर्तिकार की मृत्यु निकट आई। वह मूर्तिकार बहुत चिंतित हो उठा। मौत करीब थी वह बहुत भयभीत हो उठा। लेकिन फिर उसे खयाल आया, क्यों न मैं अपनी ही मूर्तियां बना कर मौत को धोखा दे दूं। उसने अपनी ही बारह मूर्तियां बनाईं।
और जिस दिन मौत उसके घर में प्रविष्ट हुई वह अपनी ही बनाई हुई मूर्तियों में छिप कर खड़ा हो गया। वहां तेरह एक जैसी मूर्तियां दिखाई पड़ने लगीं। मौत तो चकित रह गई, एक व्यक्ति को लेने आई थी वहां तेरह एक जैसे लोग थे। एक को ले जाने की आज्ञा थी किसको ले जाए किसको छोड़ दे। वे बिलकुल एक जैसे थे,पहचानना मुश्किल था। मौत वापस लौट गई और उसने परमात्मा से जाकर कहा कि मैं किसको लाऊं वहां तेरह एक जैसे लोग मौजूद हैं। परमात्मा ने मौत के कान में एक सूत्र कहा और कहा,इस सूत्र का उपयोग करना, असली आदमी अपने आप बाहर आ जाएगा। वह मौत वापस आई, वह फिर उस कमरे में गई जहां मूर्तिकार छिपा था अपनी मूर्तियों में। उसने एक नजर डाली और फिर हंसने लगी और बोली, और सब तो ठीक है एक छोटी-सी भूल रह गई इतना सुनना था कि वह मूर्तिकार बोला, कौन सी भूल?और उस मृत्यु ने कहा यही कि तुम अपने को नहीं भूल सकते हो! बाहर आ जाओ!
यही कि तुम यह नहीं भूल सकते हो कि तुमने इन मूर्तियों को बनाया है, यही कि तुम्हारा अहंकार विस्मरण नहीं हो सकता। तुम्हारी ईगो, तुम्हारा यह खयाल कि ‘मैं’ हूं!और परमात्मा ने मुझसे कहा कि जिसे यह खयाल है कि मैं हूं, वह आदमी मृत्यु से नहीं बच सकता है। लेकिन जिसका यह खयाल मिट जाता है कि मैं हूं, उसे मृत्यु ले जाने में असमर्थ हो जाती है वह ‘अमृत’ को उपलब्ध हो जाता है।
यह बात, यह घटना तो सच नहीं हो सकती, लेकिन आदमी की जिंदगी में निरंतर यही होता है। वे लोग जो मैं से भरे हुए हैं, वे जो अहंकार से भरे हुए हैं, वे एक बार मरते हों ऐसा भी नहीं, वे रोज मरते हैं और प्रतिपल मरते हैं। अहंकार बड़ी कमजोर चीज है, जरा सी हवा का झोंका और टूट जाता है, जरा सा फर्क और मिट जाता है। सम्हाले रहो, सम्हाले रखो, जरा सी चूक और छितर-बितर हो जाता है। और जिंदगी भर सम्हालने की कोशिश करो और आखिर में मौत तो उसे बिलकुल तोड़ ही देती है।
अहंकार के साथ जो जीता है वह मौत के साथ जीता है। और मौत के साथ जो जीता है अगर वह भयभीत रहे, घबड़ाया रहे, चिंतित रहे, अशांत रहे, परेशान रहे, बेचैन रहे तो आश्चर्य क्या है! मौत के साथ जो भी जीएगा भयभीत रहेगा, चिंतित रहेगा, अशांत रहेगा। स्वाभाविक है। चौबीस घंटे मौत के साथ जीना कैसे? लेकिन मौत के साथ जीने की कोई जरूरत नहीं है, मौत के साथ इसलिए जीना पड़ता है कि हम अहंकार के साथ जीते हैं। “
अहंकार मरणधर्मा है। अहंकार मृत्यु का सूत्र है। जहां अहंकार है वहां मृत्यु है और जहां अहंकार नहीं है वहां अमृत है, वहां कोई मृत्यु नहीं!
माटी कहे कुम्हार सूं
ओशो