देश के लोकतंत्र पर आघात करने वाला आपाताकाल को लगे हुए 43 साल गुजर गए, लेकिन देश के लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए वह नजारा आज भी याद आ ही जाता है। आपातकाल जितना देश के लोकतंत्र के लिए घातक साबित हुआ उतना ही तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरागांधी की छवि को धूमिल करने वाला साबित हुआ। देश में लगा आपातकाल लोकतंत्र पर कलंक ही नहीं था बल्कि आपातकाल की घोषणा करने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दामन पर वो दाग था जो न आज तक छूट पाया है और न कभी छूट पाएगा। देश में लगा आपातकाल भारतीय राजनीतिक इतिहास का अभिन्न हिस्सा बन गया है।
भारत में लगा आपातकाल और पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी का नाता चोली-दामन के साथ होने जैसा है। आपातकाल की चर्चा बगैर इंदिरा गांधी के नाम लिए पूरी नहीं हो सकती उसी प्रकार इंदिरा गांधी की चर्चा हो तो आपातकाल के बगैर पूरी नहीं हो सकती। इंदिरा गांधी देश की एक सशक्त प्रधानमंत्री के रूप में जानी जाती थी, लेकिन उनके साथ विवाद का भी गहरा रिश्ता रहा है। आपाताकाल की घोषणा तो 26 जून 1975 को की थी, लेकिन इससे पहले भी उनकी तानाशाही प्रवृत्ति देश और दुनिया के सामने आती रही है। वह भले ही एक लोकतांत्रिक देश की प्रधानमंत्री थी, लेकिन रवैया उनका हमेशा रानी का था। वह खुद को देश की हर व्यवस्था यहां तक कि संविधान से भी खुद को ऊपर समझती थीं। इसलिए उपलब्धियों से ज्यादा विवाद ही उनके हिस्से में ज्यादा रहा है।
हमारे देश के राजनीतिक इतिहास में साल 1971 बहुत ही महत्वपूर्ण साल माना जाता है। यह वही साल था जब इंदिरा गांधी ने “गरीबी हटाओ” का सम्मोहक नारा देकर देश का आम चुनाव अपने नाम कर गई। वह चुनाव जीतकर देश की सत्ता में आई ही थी कि पाकिस्तान में पूर्वी-पश्चिमी के नाम पर गृहयुद्ध छिड़ गया। इंदिरा गांधी ने निश्चित रूप से सख्त और निर्यायक कदम उठाते हुए पाकिस्तान पर वो चोट किया जिसे चाटते हुए पाकिस्तान को आज भी दर्द महसूस होता होगा। इंदिरा गांधी के पूरे राजनीतिक जीवन में यह एक ऐसी उपलब्धि है जिसे उनके विरोधी भी मानते हैं और मानना पड़ेगा।
लेकिन देश के भीतर उन्होंने हमेशा ही लोकतंत्र के खिलाफ ही काम किया है। साल वही 1971 था, लेकिन मामला आम चुनाव और कानून से है। 1971 के आम चुनाव के दौरान उनके खिलाफ रायबरेली से राज नारायण मैदान में थे। वही राज नारायण जो फक्कर समाजवादी के नाम से ज्यादा जाने जाते हैं। इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ का नारा देकर चुनाव मैदान में उतरी थीं। चुनाव में इंदिरा गांधी की जीत हुई और राज नारायण की हार, जो पूर्व अनुमानित भी थी। लेकिन बाद में राज नारायण एक ऐसा मामला इंदिरा गांधी के खिलाफ इलाहाईबाद हाईकोर्ट में दायर कर दिया, जिसका परिणाम बेअसर होने वाला था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। राज नारायण के इस मामले ने इंदिरा गांधी की तानाशानी प्रवृति की झलक उसी समय देश के सामने आ गई थी, बस फर्क इतना रहा कि लोगों ने समझा नहीं।
राज नारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव के दौरान सरकारी संपति के दुरुपयोग करने का आरोप लगाया। इंदिरा गांधी ने यह स्वीकार भी किया कि हां कांग्रेस जिला कमेटी ने चुनाव आयोग से जीप जारी करने को कहा था। स्वीकारोक्ति के बावजूद संविधान में संशोधन कराने की बदौलत वह अपने पद पर बनी रही और कानून उनका कुछ नहीं बिगड़ पाया।
मोदी सरकार के वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री अरुण जेटली ने भी अपने ब्ल़ॉग में आपातकाल पर लिखा है। उन्होंने लिखा है कि 1971-72 का साल इंदिरा गांधी के राजनीतिक करियर के लिहाज से सर्वोत्तम काल था। क्योंकि अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को चुनौती देते हुए पूरे विपक्ष को चुनाव में धराशायी करना कम भारी बात नहीं थी। 1971 में वह चुनाव जीती ही नहीं बल्कि अगले पांस साल तक उनका कोई विरोधी भी नहीं दिखता था। लेकिन उन्होंने 1971 में हुई अपनी जीत को शाश्वत मान बैठी। जबकि देश का माहौल उनके खिलाफ था। हाथ से सत्ता जाने के भय से ही इंदिरा गांधी ने एक खास प्रोपगेंडा के तहत पूरे देश को आपातकाल की आग में झोक दिया।
प्रोपगेंडा बड़ा घातक होता है। इंदिरा गांधी की आड़ में उनका छोटा बेटा संजय गांधी ने उन चार सालों में जो भी निर्णय लिए वे जनविरोधी साबित हुए। सरकार ने प्रतिक्रिया पाने के सारे स्रोत भी बंद कर लिए थे। इस कारण सरकार के पास प्रतिक्रिया पाने का जो एकमात्र स्रोत था वह चापलूसी के तहत यही बताता था कि आपकी सरकार जनता में काफी लोकप्रिय है। जेटली का कहना है कि जब आप अभिव्यक्ति की आजादी खत्म कर प्रचार की आजादी देते हैं तो उसका सबसे पहला शिकार आप खुद होते हैं। इंदिरा गांधी के साथ भी वही हुआ, जिसका खामियाजा देश को आपातकाल के रूप में भोगना पड़ा। वर्तमान कांग्रेस भी अपनी पुरानी पीढ़ी से कुछ सीख लेने को तैयार नहीं है। वर्तमान कांग्रेसी नेतृत्व प्रोपगेंडा राजनीति में विश्वास कर रहा है। अभिव्यक्ति और प्रचार में फर्क नहीं जानता है।
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