प्रश्न: भगवान,पड़ोसी देशों द्वारा किए जाने वाले शस्त्र-संग्रह और उसके कारण बढ़ रहे तनाव के संदर्भ में देश की सुरक्षा की दृष्टि से श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा हाल ही एक भाषण में दी गई चेतावनी की आलोचना करते हुए महर्षि महेश योगी ने कहा है कि देश को इस प्रकार के भय और अनिश्चितता से छुड़वाने के लिए सरकार को उनके भावातीत ध्यान (टी.एम.) तथा टी.एम. सिद्धि कार्यक्रम का उपयोग करना चाहिए।
अपनी ध्यान पद्धति को वैदिक ज्ञान का सार बताते हुए उन्होंने कहा है कि इसके प्रयोग द्वारा व्यक्ति अपने तनावों से मुक्त होकर अपनी चेतना को ऊपर उठाते हैं और समाज में सामंजस्य स्थापित करने में प्रभावशाली होते हैं। महर्षि महेश योगी के अनुसार उनकी ध्यान पद्धति अपनाने से सेना और शस्त्रों की जरूरत नहीं रह जाएगी और बहुत थोड़े-से खर्च में भारत की सुरक्षा हो सकेगी, उसकी समस्याएं हल हो सकेंगी तथा देश की चेतना में सत्व का उदय हो सकेगा।
भगवान, श्री महेश योगी द्वारा किए गए इस दावे में क्या कुछ सचाई है? साथ ही आप जिस ध्यान को समझाते हैं तथा उसका प्रयोग करा रहे हैं, क्या वही ध्यान ऊपर बताई गई बातों के संदर्भ में अधिक प्रभावशाली और कारगर सिद्ध नहीं होगा? निवेदन है कि इस विषय में कुछ कहें।
उत्तर: सत्य वेदांत, भारत के दुर्भाग्यों में से यह एक बड़ी से बड़ी आधारशिला है। ऐसी ही मूढ़तापूर्ण बातों के कारण भारत सदियों से गरीब है, गुलाम रहा है, सब तरह से पददलित, शोषित, अपमानित। लेकिन फिर भी हम हैं कि अपनी जड़ता को दोहराए चले जाते हैं। महर्षि महेश योगी ने जो कहा वह सिवाय शेखचिल्लीपन के और कुछ भी नहीं। पहली बात, उन्होंने कहा कि यह वैदिक ज्ञान का सार है–उनका भावातीत ध्यान।
वेद के ऋषि क्या कर सके? अगर यह वैदिक ज्ञान का सार है तो वैदिक ऋषियों के जमाने में तो अस्त्र-शस्त्रों की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन परशुराम भी, हिंदुओं के अवतार, स्वयं भगवान के अवतार हाथ में फरसा लिए जीवन भर क्षत्रियों की हत्या करते फिरे। अठारह बार पूरी पृथ्वी को क्षत्रियों से विनष्ट किया। भावातीत ध्यान ही काम कर देता, फरसे को लेकर घूमने की क्या जरूरत थी? एक मंत्र की मार से सारे क्षत्रिय मर जाते। लेकिन परशुराम फरसे के साथ इतने संयुक्त हो गए कि उनके नाम में भी फरसा जुड़ गया। परशुराम का अर्थ है–फरसे वाले राम।
और अगर भावातीत ध्यान ही अस्त्र-शस्त्रों के लिए परिपूरक हो सकता है। तो यह धनुष-बाण लिए हुए रामचंद्र जी क्या भाड़ झोंक रहे हैं? रामचंद्र जी को भी यह पता नहीं था जो महर्षि महेश योगी को पता है? ये धनुर्धारी राम किसलिए बोझ ढोते फिरते हैं? और अगर भावातीत ध्यान अस्त्र-शस्त्रों की जगह काम आ सकता है तो फिर महाभारत का युद्ध क्यों हुआ? कृष्ण भावातीत ध्यान ही समझा देते अर्जुन को, सस्ते में बात निपट जाती। कोई सवा अरब आदमी युद्ध में मरे। इतनी महान हिंसा न पहले कभी हुई थी न बाद में कभी हुई। जिनको हम आज विश्व-युद्ध कहते हैं वे सब तो बहुत छोटे मालूम पड़ते हैं। कृष्ण को भी भावातीत ध्यान का पता नहीं था!
कृष्ण ने क्यों अर्जुन को युद्ध के लिए उत्सुक किया, आतुर किया? वह तो बेचारा भावातीत ध्यान में जाना चाहता था, उसके हाथ-पैर कंपने लगे थे, गांडीव छूट गया था। शस्त्र तो छूटे जा रहे थे। वह तो भावातीत ध्यान में जाने की तैयारी कर रहा था। लेकिन कृष्ण ने उसे फिर ललकारा और कहा, सम्हाल अपने गांडीव को। यह युद्ध तो होना ही है। यह युद्ध तो अपरिहार्य है। और अगर कृष्ण भी कौरवों के मन को अपनी ध्यान की शक्ति से न बदल सके तो तुम सोचते हो ये महर्षि महेश योगी और इनके आस-पास इकट्ठे हो गए कुछ मूढ़जन ये कोकाकोला-कोकाकोला भज कर सस्ते में भारत की सुरक्षा का इंतजाम करवा देंगे?
मगर यह मूढ़ता पुरानी है; नई नहीं है, बड़ी पुरानी है। महमूद गजनवी ने भारत पर हमला किया। सोमनाथ का मंदिर उस समय का श्रेष्ठतम मंदिर था, सबसे ज्यादा धनी। जैसे आज दक्षिण में तिरुपति का मंदिर है, ऐसा सोमनाथ का मंदिर था, जहां हीरे-जवाहरातों के ढेर लग गए थे। महमूद गजनवी गजनी से चला था, नजर सोमनाथ के मंदिर पर थी। और जब सोमनाथ के मंदिर पर महमूद गजनवी पहुंचा तो देश के अनेक क्षत्रियों ने अपने जीवन को समर्पित करने की तैयारी दिखाई। उन्होंने कहा, हम तैयार हैं युद्ध के लिए, मंदिर की सुरक्षा के लिए।
लेकिन वहां बारह सौ पुजारी थे मंदिर में–बारह सौ महर्षि महेश योगी! उन्होंने कहा कि तुम और हमारी रक्षा करोगे! तुम और भगवान के मंदिर की रक्षा करोगे! पागल हो गए हो! अरे भगवान, जो सबका रक्षक है, जिसने सारी पृथ्वी को, सारे अस्तित्व को धारण किया है, तुम उसकी रक्षा करोगे! जिसने तुम्हें बनाया और जो तुम्हें मिटा दे, जिसके इशारे की सारी बात है, उसकी तुम रक्षा करोगे! क्षत्रिय योद्धा आने को तैयार थे, अपने जीवन की आहुति देने को तैयार थे, लेकिन पुजारियों ने कहा कि इसकी कोई जरूरत नहीं है। हमारे वैदिक मंत्र पर्याप्त हैं।
और जब महमूद गजनवी पहुंचा तो वह भी हैरान हुआ, क्योंकि मंदिर में कोई सुरक्षा का आयोजन नहीं था, कोई तलवार न थी, कोई सैनिक न था। हां, बारह सौ पुजारी वैदिक मंत्रोच्चार जरूर कर रहे थे। वे वैदिक मंत्रोच्चार करते रहे और महमूद गजनवी ने उठाई गदा और मंदिर की प्रतिमा को खंड-खंड कर दिया। उस प्रतिमा के भीतर बहुमूल्य से बहुमूल्य हीरे थे। वह प्रतिमा टूटी तो सारे मंदिर में हीरे बिखर गए। और वे बारह सौ पुजारी मंत्रोच्चार करते रहे। उनके मंत्रोच्चार से इतना भी न हुआ–बारह सौ पुजारियों के मंत्रोच्चार से–कि एक महमूद गजनवी का हृदय बदल जाता।
लेकिन यह मूर्खता अब भी जारी है, अब भी वही बकवास, अब भी वही बेमानी बातें। और भारत का मन चूंकि सदियों से निर्मित हुआ है इन्हीं गलत संस्कारों में पला हुआ, ये बातें प्रभावित करती हैं। लगता है कि अहा, वैदिक ऋषि कैसा अदभुत विज्ञान हमें दे गए हैं! न अस्त्रों की जरूरत, न शस्त्रों की जरूरत! तो बाइस सौ साल तक तुम गुलाम क्यों रहे?
इस बाइस सौ साल में कितने तो ऋषि हुए, कितने महर्षि हुए–शंकराचार्य हुए, रामानुजाचार्य हुए, वल्लभाचार्य हुए, निम्बार्क हुए–इन सबमें से किसी की भी मंत्र की क्षमता इतनी न थी कि भारत की दासता को मिटा देता! छोटी-छोटी कौमें आईं, शक आए, हूण आए, जिनकी कोई कीमत न थी, जिनका कोई नामलेवा नहीं था, आज कोई नामलेवा नहीं है, छोटे-छोटे जत्थे आए और यह विराट देश गुलाम होता चला गया, क्योंकि इस विराट देश के पास मूर्खतापूर्ण बातों का अंबार है।
यह उन्हीं पर भरोसा किए रहा। यह उन्हीं को छाती से लगाए बैठा रहा। इसने सोचा कि यह तो पुण्यभूमि है, धर्मभूमि है। स्वयं देवता यहां पैदा होने को तरसते हैं। वही करेंगे इसकी रक्षा। किसी ने कोई रक्षा न की। कोई रक्षा न हुई। और आज भी बीसवीं सदी में इस तरह की शेखचिल्लीपन की बातें, सिर्फ इस बात की सूचक हैं कि यह देश अभी भी समसामयिक नहीं है।
पदार्थ और चेतना के अलग-अलग नियम हैं। ध्यान से व्यक्ति की चेतना रूपांतरित होती है, लेकिन पदार्थ पर उसका कोई परिणाम नहीं होता। पदार्थ पर परिणाम के लिए तो विज्ञान चाहिए। विज्ञान की कोई क्षमता मनुष्य की चेतना पर काम नहीं आती। और धर्म की कोई क्षमता पदार्थ पर काम नहीं आती। इस भेद को स्पष्ट समझ लेना चाहिए। यदि देश में गरीबी है तो विज्ञान से मिटेगी, धर्म से नहीं। धर्म से मिट सकती होती तो पैदा ही न होती। हजारों-हजारों साल से तो तुम धार्मिक हो, अब और क्या ज्यादा धार्मिक होओगे? इससे ज्यादा और क्या धर्म सम्हालोगे? बहुत तो सम्हाल चुके। महावीर और बुद्ध और कृष्ण और राम, इतनी विराट शृंखला है तुम्हारे पास धार्मिक पुरुषों की, लेकिन गरीबी तो न मिटी तो न मिटी।
गरीबी तो विज्ञान से मिटेगी। उसके लिए तो आइंस्टीन चाहिए, न्यूटन चाहिए, एडीसन चाहिए, रदरफोर्ड चाहिए। हां, यह सच है कि भीतर की गरीबी, आत्मा की गरीबी विज्ञान से न मिटेगी। उसके लिए बुद्ध चाहिए, जरथुस्त्र चाहिए, जीसस चाहिए, लाओत्सु चाहिए। और इन दोनों का हम स्पष्ट विभाजन समझ लें, इसमें कहीं भूल-चूक न हो। यही भूल-चूक हमें सता रही है, हमारे प्राणों पर भारी हो गई है। इसी भूल-चूक ने हमें मारा है।
जब बीमारी हो तो चले तुम पुजारी के पास, चले तुम किसी ज्योतिषी के पास, चले तुम मंदिर किसी पत्थर की मूर्ति की प्रार्थना करने। जब बीमारी हो तो चिकित्सक के पास जाओ, तो औषधि की तलाश करो। और जब गरीबी हो तो तकनीक खोजो कि ज्यादा पैदावार कैसे हो। नहीं, लेकिन हम तकनीक न खोजेंगे, हम यज्ञ करेंगे, हवन करेंगे कि वर्षा हो जाए।
कितनी सदियों से तुम यज्ञ और हवन कर रहे हो, यह वर्षा कब होगी? बाढ़ आए तो पूजा और पाठ, अकाल पड़े तो पूजा और पाठ। और तुम्हारे पूजा-पाठ का परिणाम कुछ भी नहीं हुआ। निरपवाद रूप से तुम्हारा पूजा-पाठ व्यर्थ गया है। उतना ही समय तुमने, उतना ही श्रम तुमने अगर विज्ञान को दिया होता तो तुम आज पृथ्वी पर सर्वाधिक धनी देश होते। अमरीका की कुल उम्र तीन सौ साल है, तीन सौ साल में संपदा बरस गई। और हम तो कोई दस हजार वर्षों से इस देश में हैं, शायद ज्यादा समय से हों।
दस हजार सालों में भी हम गरीब के गरीब रहे। हमारे सोचने में कहीं कोई आधारभूत भूल है, कहीं कोई बुनियादी, कोई जड़ की, कोई मूल की गलती है। और उस गलती को सुधारना जरूरी है। हां, यह मैं कहूंगा कि कोई सोचता हो कि विज्ञान से आत्मा की शांति मिलेगी तो वह भी उतना ही गलत है जितना कोई सोचता हो कि ध्यान से और पेट की भूख बुझेगी। पेट के अपने नियम हैं और आत्मा के अपने नियम हैं। आंख देख सकती है, कान सुन सकता है। जो कान से देखने की कोशिश करेगा, वह पागल है। और जो आंख से सुनने की कोशिश करेगा, वह मूढ़ है। आखिर कुछ सीमाएं खींचना सीखो।
कुछ जीवन के गणित की पहचान लो। भीतर के जगत का अपना नियम है। वहां ध्यान सहयोगी है। वहां गहरी से गहरी शांति पैदा होगी, मौन पैदा होगा, आनंद उभरेगा। लेकिन उससे रोटी पैदा नहीं होगी, न मशीनें चलेंगी। भावातीत ध्यान से कारें नहीं चल सकतीं; उसके लिए पेट्रोल चाहिए। भावातीत ध्यान से उद्योग नहीं चल सकते; उसके लिए मशीनें चाहिए। भावातीत ध्यान से वर्षा नहीं होगी। बादलों को कुछ चिंता नहीं पड़ी है तुम्हारे भावातीत ध्यान की। पैदावार बढ़ नहीं जाएगी।
और महर्षि महेश योगी ने कहा है कि “देश को इस प्रकार के भय और अनिश्चितता से छुड़वाने के लिए सरकार को उनके भावातीत ध्यान तथा टी.एम. सिद्धि कार्यक्रम का उपयोग करना चाहिए।’ इन नासमझों को कहो कि बकवास बंद करो। इंदिरा गांधी को मैं कहूंगा कि इस तरह की मूढ़ता की बातों में मत पड़ना। दिल्ली में इस तरह के मूढ़ रोज कुछ न कुछ उपद्रव करने में लगे हुए हैं। और ये क्यों दिल्ली में इकट्ठे होते हैं?
महर्षि महेश योगी दिल्ली में अड्डा जमाए बैठे हैं कुछ महीनों से और भावातीत ध्यान का प्रयोग चल रहा है! दिल्ली ही क्यों? क्योंकि वहीं सत्ता है, राजनीति है। अब यह उन्होंने सोचा कि और अच्छी बात हुई कि अगर देश पर संकट आ रहा है तो शोषण करो इस अवसर का, इस मौके को चूको मत। इस अवसर का फायदा उठा लो।
ये सब अवसरवादी हैं और इनको सहारा देने वाले राजनीतिज्ञ हैं। क्योंकि वे राजनीतिज्ञ भी तुम्हारी भीड़ से ही पैदा होते हैं; तुम्हारी भीड़ के ही मत से तो वे जिंदा होते हैं। वे तुम से गए-बीते होते हैं। तुम से गए-बीते होते हैं, तभी तो तुम उन्हें अपना नेता चुनते हो। अगर पागल किसी को नेता चुनेंगे तो महा-पागल को ही चुनेंगे; उनसे तो कुछ आगे होना ही चाहिए।
देश में अगर भय है तो उसके लिए अस्त्र-शस्त्र चाहिए, ध्यान नहीं। और देश में अगर अनिश्चितता है तो इस देश को अणुबम बनाने होंगे, उदजन-बम बनाने होंगे, इस देश को विज्ञान की सारी सुविधाओं का उपयोग करना होगा। नहीं तो यह देश फिर सोमनाथ के मंदिर की तरह टूटेगा और बरबाद होगा। और न महमूद गजनवी ने तुम्हारी बकवास सुनी और तुम्हारे मंत्र सुने और न पाकिस्तान सुनेगा और न चीन सुनेगा।
खतरा कहां से है? इन दो मुल्कों से खतरा है–चीन से है और पाकिस्तान से है। दोनों के पास अणुबम की संभावना बढ़ती जा रही है। चीन के पास तो सुनिश्चित अणुबम है। और पाकिस्तान के लिए सारे मुसलमान देश उदजन बम बनाने के लिए संपत्ति देने को तैयार हो गए हैं। और यहां के ये तथाकथित पोंगा-पंडित, ये समझा रहे हैं इंदिरा गांधी को कि भावातीत ध्यान से सब ठीक हो जाएगा, सब भय मिट जाएगा, सब अनिश्चितता मिट जाएगी।
इस तरह के गधों ने इस देश की छाती को बहुत रौंदा। इन गधों से छुटकारा चाहिए। मैं ध्यान की क्षमता को स्वीकार करता हूं। ध्यान की अपूर्व संभावना है–लेकिन अंतर्लोक में। तनाव से मुक्ति मिलेगी ध्यान से, लेकिन यह मत सोचना कि तुम दूसरे को बदलने में समर्थ हो जाओगे। क्या तुम सोचते हो जीसस के पास इतना भी ध्यान नहीं था कि जिन्होंने उन्हें सूली दी उनका हृदय परिवर्तन कर सकते? सूली देने वाले तो चार ही लोग थे; जिन्होंने उनकी सूली गाड़ी और उनको सूली पर चढ़ाया और खीले ठोंके, चार आदमियों ने। इन चार आदमियों को भी जीसस न बदल सके! इतना भी ध्यान न था जीसस में! महर्षि महेश योगी के पास इससे बड़ा ध्यान है?
सांच-सांच सो सांच-(प्रवचन-06) विज्ञान और धर्म के बीच सेतु—प्रवचन-छठवां दिनांक 26 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।