ओशो :-
अब ध्यान रहे, शांति भी अधार्मिक हो सकती है, और युद्ध भी धार्मिक हो सकता है। लेकिन शांतिवादी सोचता है कि शांति सदा ही धार्मिक है।
और युद्धवादी सोचता है कि युद्ध सदा ही ठीक है। कृष्ण कोई वादी नहीं हैं, वे बहुत’ लिक्विड’ हैं, बहुत तरल हैं। जिंदगी में वहा पत्थर की तरह कटी हुई चीजें नहीं हैं, उनकी जिंदगी में।
उनकी जिंदगी में सब हवा की तरह है। वे कहते हैं शांति भी — मैं रास्ते से गुजर रहा हूं एक शांत आदमी मैं हूं और कोई किसी को लूट रहा है, मैं शांति से गुजर जाऊंगा, क्योंकि मैं कहता हू लड़ना मेरे लिये नहीं है। मैं शांति से गुजर रहा हू लेकिन मेरीर शांति अधार्मिक हो गयी; क्योंकि मेरी शांति भी सहयोगी हो रही है किसी के लुटने में और किसी के लूटने में।
अनिवार्य नहीं है कि शांति सदा ही धर्म हो। बर्टूंड रसल जैसे लोग,’ पेसिफिस्ट’, शांति को सदा ही ठीक मान लेते हैं। वे मान लेते हैं कि सदा ही ठीक है, शांत होना ही ठीक है। लेकिन ऐसी शांति’ इम्पोटेंस’ भी बन सकती है। ऐसी शांति नपुंसकता हो सकती है।
इसलिये कृष्ण बार—बार अर्जुन को कहते हैं, दौर्बल्य त्याग। मैंने कभी सोचा न था कि तु निर्वीर्य हो सकता है, तू नपुंसक हो सकता है। तू कैसी नपुंसकों जैसी बातें कर रहा है! जबकि युद्ध सामने खड़ा हो और जबकि युद्ध कृष्ण की दृष्टि में अधर्म के लिये हो, तब तू कैसी कमजारी की बातें कर रहा है! तेरी शक्ति कहा खो गयी? तेरा पौरुष कहा गया?
शांति जरूरी नहीं है कि धर्म हो। युद्ध भी जरूरी नहीं है कि अधर्म हो। कहा जा सकता है कि तब युद्धखोर कह सकते हैं कि हमारा युद्ध धर्म है। कह सकते हैं। जिंदगी जटिल है। कोई उन्हें रोक नहीं सकता। लेकिन, धर्म क्या है, अगर इसका विचार स्पष्ट फैलता चला जाये, तो कठिन होता जायेगा उनका रेखा दावा करना।
कृष्ण की दृष्टि में धर्म” क्या है, वह मैं कहूं। कृष्ण की दृष्टि में जीवन को जो विकसित करे, जीवन को जो खिलाये, जीवन को जो नचाये, जीवन को जो आनंदित करे, वह धर्म है।
जीवन के आनंद में जो बाधा बने, जीवन की प्रफुल्लता में जो रुकावट डाले, जीवन को जो तोड़े, मरोड़े, जीवन को जो खिलने न दे, फसलने न दे, फलने न दे, वह अधर्म है। जीवन में जो बाधायें बन जायें, वे अधर्म हैं; और जीवन में जो सीढ़ियां बन जाये, वह धर्म है।
ओशो
कृष्ण स्मृति 21