श्वेता पुरोहित। मार्कण्डेयजी को शिवजी का वरदान महर्षि मार्कण्डेय जी, ‘विश्व भगवान् की मायाद्वारा रचा गया है तथा भगवान् की विचित्र शक्ति सम्पन्ना माया में देवगण भी मुग्ध होते हैं, तो फिर मैं मन्दमति इस योगमाया के प्रभाव को कैसे समझ सकता हूँ’ इस बात को विचार भगवान् श्री हरि का ध्यान करने लगे। इसी समय पार्वती सहित नन्दी पर सवार श्री शिवजी अपने अनुचरों के साथ आकाश- मार्ग से जा रहे थे । उन्होंने देखा कि महातेजस्वी मार्कण्डेय जी अपने आश्रम में समाधि लगाये बैठे हैं ।
पार्वतीजी ऋषि के प्रेममय भाव को देखकर प्रसन्न चित्त से श्रीशिवजी से कहने लगीं कि ‘भगवन् ! देखिये, वायु के रुक जाने से जैसे महासागर का जल निश्चल हो जाता है और जल के भीतर रहनेवाले मत्स्य, मगर आदि जीव भी स्थिर हो जाते हैं, ठीक उसी तरह ये तपस्वी ऋषि समाधि लगाए एकाग्र हो रहे हैं। आप इनको अपने दर्शन देकर इनके तपको सफल बना दें तथा वाञ्छित वरदान से ऋषि के मनोरथ को पूर्ण कर दें ।’
श्रीशिवजी पार्वतीजी के कृपामय वचन को सुनकर कहने लगे कि ‘प्रिये ! यह तपस्वी परमकरुणासागर श्रीभगवान्- की भक्ति को पा चुके हैं। इसलिये न इन्हें मोक्षकी इच्छा है और न अन्य किसी फलकी अभिलाषा है। तथापि तुम्हारे आग्रह से इनके समीप चलकर इनसे बातें करूँगा। क्योंकि साधु-समागम की अभिलाषा सभी को होती है।
भक्तों के रक्षक भगवान् श्रीशिव जी मार्कण्डेय ऋषि के निकट उपस्थित हुए। ऋषि के अन्तःकरण की वृत्तिः बाह्य विषयों से हटकर आत्मा में लीन हो रही थी, यहाँ तक कि अपने शरीर को भी वे भूले हुए थे। श्रीशिव और पार्वतीजी का समीप में उपस्थित होना उनको मालूम ही नहीं हुआ। श्रीशिवजी उनके अन्तःकरण की वृत्ति को जानकर, जैसे वायु छिद्र में घुस जाता है वैसे ही, अपने योगबल से ऋषि के हृदय में प्रवेश कर गये ।
मार्कण्डेयजी ने बिजली के समान जटाजूट से सुशोभित, त्रिलोचन, व्याघ्र-चर्म ओढ़े हुए, दस भुजाओंमें त्रिशूल,धनुष, बाण, खङ्ग, चर्म, डमरू, कपाल आदि आयुध धारण किये भगवान् शिवको अकस्मात् अपने हृदयमें देखा । ऋषिका ध्यान टूट गया और समाधि खुल गयी । पार्षतीजीके साथ श्रीशिवजी के दर्शन कर वे उठ खड़े हुए और मस्तक को अवनतकर विविध वाक्यों से स्तुति की तथा पाद्य-अर्ध्य आदि से उनका पूजन किया । ऋषिके स्वागतसे सन्तुष्ट हो श्रीशिवजी ने कहा कि ‘हे मुनिवर ! जो इच्छा हो, मुझसे वर माँगो ।’
चन्द्रशेखर श्रीशिवजीके वाक्य को सुनकर महर्षि का हृदय गद्गद् हो उठा। मार्कण्डेयजी कहने लगे कि ‘प्रभो ! आपके इस अपूर्व दर्शन से मेरी सब अभिलाषाएँ पूर्ण हो गयीं। तथापि आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करता हुआ केवल यही एक वर चाहता हूँ कि अच्युतभगवान्में मेरी अटल भक्ति हो ।’ ऋषि के परम गम्भीर वचन को सुनकर श्रीपार्वतीजी की इच्छा के अनुसार श्रीशिवजी ने कहा कि ‘हे महर्षे ! परम कृपालु अच्युतभगवान्की अटल भक्ति तो तुमको प्राप्त हो ही चुकी है, तथापि तुम्हारी प्रार्थनाके अनुसार मैं यह वर देता हूँ कि तुम्हारी वह भक्ति प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त हो । इसके अतिरिक्त तुम्हारी कीर्त्ति और तुम्हारे पुण्य का कदापि क्षय न होगा। तुम को तीनों कालका ज्ञान प्राप्त होगा।’
श्रीशिवजी ने इस तरह वर प्रदान कर अपने लोक को प्रस्थान किया । श्रीहरिभक्तोंमें श्रेष्ठ मार्कण्डेयजी भी वर प्राप्तकर इच्छानुसार विचरने लगे।
प्रिय पाठकगण ! आपलोग यह तो समझ गये होंगे कि श्रीहरिका ही दूसरा स्वरूप श्रीशिय हैं। हरि और हर में सदा अभेद है। जैसे दूध विकार विशेष के योगसे दधि हो जाता है परन्तु वह दधि अपने कारण दुग्ध से पृथक् वस्तु नहीं होता, इसी तरह श्रीशिवजी संहारकार्य के लिये रुद्ररूपसे अवतीर्ण होकर भक्तिमार्ग को पुष्ट करते हैं। शास्त्रमें कहा गया है-
तमोयोगाच्छम्भुर्भवति न तु गोविन्दाच्छम्भुरन्यः ।
लेखक – आचार्य श्रीमदनमोहनजी गोस्वामी वै० दर्शनतीर्थ, भागवतरल
हर हर महादेव