अभिजीत। आज से तकरीबन दो हज़ार साल पहले जब यहूदिया के बैतलहम में एक बालक का जन्म होने वाला था तो उसके जन्म से काफी पूर्व हिमालय की गुफाओं में बैठे कुछ योगियों को ये मालूम हो गया था कि यहाँ से हजारों मील दूर कोई दिव्य अस्तित्व वजूद में आने वाला है। उन्हें ये भी मालूम था जिस देश में ये बच्चा अवतरित होने वाला है वहां का माहौल और आसुरी प्रवृति इस लायक नहीं है कि वहां इस दिव्य वजूद की बेहतर परवरिश हो सकेगी। इसलिये इस बालक के जन्म से काफी पूर्व तीन योगी भारत से निकलकर बैतलहम की ओर चले और अपनी ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर उन्होंने उस बालक के जन्म का समय भी ज्ञात कर लिया। इसलिये सितारों का ठीक-ठीक निरीक्षण करते हुए वो उस बालक के जन्म के वक़्त वहां पहुँच गये। अपने यात्रा के क्रम में उनकी मुलाक़ात युहन्ना से भी हुई।
जब ईसा का जन्म हुआ तो उसकी माता के ऊपर लोगों ने ये आरोप लगाने शुरू कर दिये कि तू बदकारा है और ये बच्चा तेरी बदकारी के नतीजे में जन्मा है। उस वक़्त भारत से गये उन हिन्दू योगियों ने लोगों को किसी तरह समझाया बुझाया और मरियम से कहा कि मूसा की व्यवस्था के अनुरूप ये लोग तुझे मार डालेंगे इस लिये बेहतर है कि तू हमारे साथ अपने बच्चे को लेकर भारत चल, जहाँ तेरे इस दिव्य पुत्र की बेहतर परवरिश हो जायेगी जो सारे मानवजाति के हित में होगा पर मरियम और युसूफ इसके लिये तैयार नहीं हुए। उन योगियों में से दो वापस लौट गये और तीसरा वहीं रूक गया ताकि ईसा और उसके परिवार को वो किसी तरह समझा सके। वो योगी वहां पांच साल रहा और बालक ईसा को हर तरह से भारत लाने की कोशिश की पर जब ईसा अपने माँ-बाप को छोड़कर जाने को तैयार न हुए तो उस योगी ने उसे अपना पता लिखकर दिया और कहा कि जब भी तुझे ये एहसास हो कि यहोवा ने तुझे किसलिये इस धरती पर भेजा है तो मेरे पास भारत आ जाना और इतना कहकर वो योगी वहां से लौट आये।
जब ईसा बारह साल के हुए तो उन्हें उस योगी की बात याद आई और वो एक व्यापारिक काफिले के साथ सिंध के रास्ते भारत आ गये फिर कश्मीर और तिब्बत की गुफाओं में भ्रमण करते हुए जगन्नाथ पुरी, बनारस और नेपाल होते हुए 30 साल की उम्र में यहाँ से अपने देश लौट गये। भविष्यपुराण शकराज के साथ उनकी मुलाक़ात का वर्णन करता है। भारत में उन्होंने अठारह साल गुजारे और इस अवधि में उन्होंने नाथ सम्प्रदाय के सन्यासियों के साथ रखकर योग विधा सीखी, बौद्ध लामाओं के साथ तिब्बती चिकित्सा विधियाँ भी सीखी, जगन्नाथ पुरी में कई हिन्दू ग्रंथों का अध्ययन किया फिर बनारस में ज्योतिष शास्त्र और खगोल विधा सीखी।
जब वो वापस अपने देश पहुंचे तो वहां जाकर उन्होंने हिन्दू और बौद्ध धर्म के साथ अपने मजहब की तुलना करनी शुरू कर दी और बात-बात में इसको लेकर यहूदी रब्बियों से उनकी झड़प होने लगी जिससे वहां का पूरा धार्मिक समाज उनका शत्रु हो गया। जनसामान्य में वो इसलिये लोकप्रिय हो गये क्योंकि उन्होंने तिब्बती लामाओं के साहचर्य में सीखी चिकित्सा विधियों के द्वारा वहां के कोढ़ियों, बीमारों और नेत्रहीनों का इलाज किया। उस प्रदेश में चूँकि चिकित्सा शास्त्र का विकास नहीं हुआ था इसलिये लोग ईसा को चमत्कारी पुरुष समझने लगे। ईसा की शिक्षाओं में हिन्दू धर्म दर्शन स्पष्ट दिखता था, “सरमन ऑन द माउन्ट” हिन्दू और बौद्ध शिक्षा का सार ही तो है। उन्होंने उन बातों पर भी बोलना शुरू किया जिसका आदेश मूसा ने नहीं दिया था। मसलन, उस समाज में तलाक़ बड़ी आम बात थी पर ईसा ने तलाक देने वाले पर सख्त लानत भेजी।
यहूदी धर्म में मनुष्य देवत्व की श्रेणी तक नहीं पहुँच सकता पर भारत से “अहम ब्रह्मास्मि” सीखकर आये ईसा ने कह दिया कि मैं और मेरे पिता (ईश्वर) एक ही है। इन बातों ने वहां के धार्मिक समाज को कुपित कर दिया और उन्होंने ईसा को सलीब दिलवा दी। सलीब पर जब ईसा लटकाये गये तो उन्होंने वहां योग विद्या का सहारा लेकर खुद को समाधिस्थ कर लिया और लोगों ने समझा कि वो मर गये हैं। फिर सलीब से उतारे जाने के बाद वो अपनी माता और मरियम मगदलीनी के साथ पुनः भारत आ गये और जिन्दगी के शेष दिन उन्होंने यहीं गुजारा।
आज जो चर्च की असहिष्णुता है और वो मतान्तरण का जो व्यापार चला रहें हैं वो ईसा की शिक्षाओं में कहीं भी नहीं था। ईसा ने कभी भी किसी को ईसाई बनाने को नहीं कहा और न ही कभी दूसरों के मत-पंथों की निंदा की और न ही मूर्ति तोड़ने का आदेश दिया। जीसस क्राइस्ट को ईसा नाम हमारे ऋषियों ने ही दिया था, हमारे यहाँ से प्राप्त ज्ञान को उन्होंने यहूदी समाज में स्थापित करवाने की कोशिश की थी और जब असफल रहे थे तो फिर अपने असहिष्णु समाज को छोड़कर यहीं वापस आ गये थे ताकि समादर भाव रखने वाले हिन्दू समाज के साथ और उनके बीच अपनी जिन्दगी के शेष दिन गुजार सकें।
साभार: अभिजीत