गुंजन अग्रवाल। ईसाइयत (Christianity) के जनक कहे जानेवाले ईसामसीह अपने 12वें वर्ष से लेकर 30 वर्ष तक क्या करते रहे अथवा कहाँ थे, इस विषय में बाइबल (नवविधान, New Testament) में कुछ भी लिखा नहीं मिलता। (The gospels have accounts of event surrounding Jesus’s birth, and the subsequent flight into Egypt to escape the wrath of Herod (Matthew 2:13-23). There is a general reference to the settlement of Joseph and Mary, along with the young Jesus, at Nazareth (Matthew 2:23; Lk. 2:39-40). There also is that isolated account of Joseph, Mary, and Jesus’s visit to the city of Jerusalem to celebrate the Passover, when Jesus was twelve years old (Luke 2:41-50)). यह समय उन्होंने ज्ञानार्जन, धर्म-चिन्तन और प्रवास में निकाला— ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है । इस अवधि मंक उनका बौद्ध-भिक्षुओं से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं हुआ होगा— ऐसा कौन कह सकता है, क्योंकि उस समय बौद्ध-भिक्षु यूनान तक पहुँच चुके थे! इतिहास से यह सिद्ध होता है कि सिकन्दर के समय से आगे— और विशेषकर अशोक के समय में ही पूर्व की ओर मिश्र के अलेक़्जेंड्रिया तथा यूनान तक बौद्ध-यतियों की पहुँच हो चुकी थी। (श्रीमद्भगवद्गीतारहस्य, पृ. 593, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, प्रकाशक : तिलक-बन्धु)।
‘ईसा भारत गए थे’— यह विचार सर्वप्रथम चन्दननगर के प्रधान न्यायाधीश (1865-’69) और फ्रांसीसी-लेखक लुई ज़क़ोलियट (Louis Jacolliot : 1837-1890) ने सन् 1869 ‘La Bible dans l’Inde, ou la Vie de Iezeus Christna’ (‘भारत में बाइबल’) नामक ग्रन्थ में व्यक्त किया। अगले वर्ष उसका अंग्रे़ज़ी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ। उस ग्रन्थ में विद्वान् लेखक ने यह भी सिद्ध किया कि संसार की सभी प्रधान विचारधाराएँ प्राचीन आर्य-विचारधारा से निकली हैं। उसने भारतभूमि को मानवता की जन्मदात्री (Cradle of Humanity) बताया— ‘प्राचीन भारतभूमि! मानवता की जन्मदात्री! नमस्कार। पूजनीय मातृभूमि! जिसको शताब्दियों से होनेवाले नृशंस आक्रमणों ने अभी तक विस्मृति की धूल के नीचे नहीं दबाया, तेरी जय हो। श्रद्धा, प्रेम, काव्य एवं विज्ञान की पितृभूमि! तेरा अभिवादन। हम अपने पाश्चात्य भविष्य में तेरे अतीत के पुनरागमन का जय-जयकार मनावें।’ (‘Land of ancient India! Cradle of humanity, hail ! Hail, revered motherland, whom centuries of brutal invasions have not yet buried under the dust of oblivion. Hail, Fatherland of faith of love, of poetry and of secience; may we hail a revival of thy past in our Western future.’ —Refer to quatation from Winternitz in para 3 from the beginning of this chapter. Probably Winternitz refers to Jacolliot.)
ज़क़ोलियट के पश्चात् एक रूसी कज़ाक़ (Cossack) अधिकारी, गुप्तचर एवं पत्रकार निक़ोलस नोटोविच (1858-?) को लद्दाख के ‘हेमिस’ नामक तिब्बती बौद्ध-मठ से ईसा का एक प्राचीन हस्तलिखित जीवनचरित प्राप्त हुआ था। वह तिब्बती-भाषा में था और दो बड़ी-बड़ी जि़ल्दों में समाप्त हुआ था। रूस में पुस्तक पर रोक लग जाने के कारण नोतोविच ने उस ग्रन्थ का फ्रांसीसी-अनुवाद (‘La vie inconnue de Jesus Christ’ (French, 1887); ‘The Unknown Life of Jesus Christ : By the discoverer of the Manuscript’ (English, 1890/1894), by Nicolas Notovith, translated from French by J. H. Connelly & L. Landsberg, Published by R. F. Fenno, New York, USA.) प्रकाशित किया था। प्रकाशन के बाद नोटोविच को रूसी-सरकार ने दो साल के लिए साइबेरिया के बर्फीले रेगिस्तान में कैद कर दिया।
इस अनुवाद से ज्ञात होता है कि ईसाइयत के जनक कहे जानेवाले ईसा मसीह भारतीयता के भक्त तथा स्वयं भारत के दीक्षित शिष्य रहे थे। उनका जन्म इज़राइल के एक ग़रीब धर्मनिष्ठ परिवार में हुआ था। बचपन से ही उनकी वृत्ति धार्मिक थी। बारह वर्ष की अवस्था में वह अपने माँ-बाप से रूठकर घर से भाग निकले और किसी व्यापारिक कारवें के साथ सिंध (भारत) आए। यहाँ जैनियों ने उनका स्वागत किया था। ईसा ने पुरी, राजगृह, काशी, मथुरा, काश्मीर, नेपाल, लद्दाख एवं तिब्बत में रहकर भारतीय पण्डितों से योग-संबंधी हिंदू एवं बौद्ध-सिद्धान्तों का अध्ययन किया। उन्होंने बौद्ध-भिक्षुओं से पाली सीखी और बौद्ध-दर्शन में विशेषज्ञता प्राप्त की। उन्होंने फ़ारस की यात्रा करके पारसियों को भी आर्य-धर्म का उपदेश दिया। 29-30 वर्ष की अवस्था में वह स्वदेश लौटे। वह अपने देशवासियों के लिए भारत के विवेक का सन्देश लेकर आये। उन्होंने ‘ओल्ड टेस्टामेण्ट’ के सिद्धान्त- ‘आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत, हाथ के बदले हाथ और पाँव के बदले पाँव (The Torah’s first mention of the phrase “an eye for an eye, a tooth for a tooth, a hand for a hand, a foot for a foot” appears in Exodus 21:22–27) के स्थान पर भारत के ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का सन्देश दिया। स्वदेश में उन्हें ग़वर्नर पाइलेट (Pilate) ने कारागार में डाल दिया। बाद में उन्हें क्रूस पर लटका दिया गया। कहते हैं, उनकी मृत्यु हो गयी, किन्तु तीन दिनों पश्चात् उनकी कब्र खुली हुई मिली और उनका कुछ पता न चला कि वह कहाँ गये।
‘ज़र्मन एसोसिएशन फ़ॉर अमेरिक़न स्टडीज़’ के वरिष्ठ निदेशक तथा माडगे़बर्ग़ विश्वविद्यालय में अमेरिक़ी-साहित्य एवं संस्कृति के प्राध्यापक होल्ज़र क़र्स्टन ने नोतोविच के काम को आगे बढ़ाया तथा अनेक वर्षों तक काश्मीर, लद्दाख, नालन्दा और काशी में छानबीन की। क़र्स्टन ने इन सभी स्थानों से अनेक प्रमाण इकट्ठे किए और सिद्ध किया कि ईसा अपनी माँ मेरी के साथ तुर्की, पर्शिया, पश्चिमी यूरोप और सम्भवतः इंगलैण्ड होते हुए भारत आए थे। उन्होंने न केवल सोलह वर्षों तक भारत में अध्ययन किया, बल्कि उनका निधन भी भारत में हुआ। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘ज़ीसस लिव्ड इन इण्डिया’ (Jesus Lived in India : His Unknown Life Before and After the Crucifixion, by Holger Kersten, Published by Element Books, 1994, ISBN 1852305509, 978-1852305505) में तथ्यों और तर्कों से प्रमाणित किया है कि ईसामसीह सूली से बच निकलकर पुनः भारत आ गये और काश्मीर में उन्होंने जीवन का अन्तिम समय व्यतीत किया । उन्होंने बताया कि मारी (पाकि़स्तान) में मेरी की और काश्मीर में ईसा की समाधि बनी हुई है। उन्होंने ‘भविष्यमहापुराण’ के प्रतिसर्गपर्व के चतुर्थ खण्ड के द्वितीय अध्याय के अन्तिम 12 श्लोकों को भी उद्धृत किया है।
एक ब्रिटिश फि़ल्म-निर्माता क़ेंट वाल्विन (Kent Walwin) कहते हैं, ”बचपन में ईसा के परिवार का नाज़रथ (Nazareth, इज़रायली शहर) में रहने के प्रमाण मिलते हैं, लेकिन जब उन्हें दूसरी बार नाज़रथ में देखा गया, तब वह 30 वर्ष के थे। यीशू ने कहा था कि जितने दिन वह गायब रहे, उन्होंने अपनी बुद्धि के कद में विकास किया।’ वर्ष 2009 में ‘दयावती मोदी कला, संस्कृति एवं शिक्षा पुरस्कार’ लेने भारत आए वाल्विन ने बताया कि उनकी अगली फि़ल्म ‘यंग़ ज़ीसस : द मिसिंग़ ईयर्स’ (Young Jesus : the missing years) ‘एपोस्टोलिक़ ग़ास्पेल्स’ Apostolic Gospels, ईसा के जीवन पर प्राचीन धार्मिक वर्णन) और अभिलेखीय सामग्री पर आधारित है। ग़ास्पेल्स के अनुसार ईसा को 13-14 वर्ष की उम्र में अन्तिम बार पश्चिम एशिया में देखा गया था। वाल्विन का कहना है कि फि़ल्म का पहला हिस्सा ग़ास्पेल्स पर और दूसरा हिस्सा पूरी तरह अभिलेखीय सामग्रियों पर आधारित होगा, जिसमें ईसा के भारत से सम्पर्क के कई सन्दर्भ मिलते हैं।
भविष्यमहापुराण (प्रतिसर्गपर्व, चतुर्थ खण्ड, द्वितीय अध्याय) में ईसामसीह और भारतीय नरेश शालिवाहन की भेंट का वृत्तांत आया है। इसके अनुसार उज्जयिनी-नरेश सम्राट् शकारि विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन एक बार हिमशिखर पर गये। उन्होंने हूणदेश के मध्य स्थित पर्वत पर एक सुन्दर पुरुष को देखा। उसका शरीर गोरा था और वह श्वेत वस्त्र धारण किए था। उस व्यक्ति को देखकर शकराज ने प्रसन्नता से पूछा— ‘‘आप कौन हैं ?’’ उसने कहा, “मैं ईशपुत्र हूँ और कुमारी के गर्भ से उत्पन्न हुआ हूँ।’’ राजा ने पूछा— “आपका कौन-सा धर्म है?” ईशपुत्र ने कहा— ‘‘महाराज! सत्य का विनाश हो जाने पर मर्यादारहित म्लेच्छ प्रदेश में मैं ईसामसीह बनकर आया हूँ।”
भविष्यमहापुराण में दी हुई परमार-नरेशों की वंशावली के अनुसार उज्जयिनी-नरेश शकारि विक्रमादित्य ने 100 वर्ष, उनके पुत्र देवभक्त ने 10 वर्ष और देवभक्त के पुत्र शालिवाहन ने 60 वर्षों तक शासन किया। यह तो विदित ही है कि शकारि विक्रमादित्य का राज्यारोहण 57 ई.पू. में हुआ था। उसी वर्ष उन्होंने ‘विक्रम संवत्’ या ‘कृत संवत्’ का प्रवर्तन किया था, जिसका ईसवी सन् 2017 में 2074वाँ वर्ष चल रहा है। इसके अनुसार विक्रमादित्य ने 57 ई.पू. से 43 ई. तक शासन किया। उनके बाद उनके पुत्र देवभक्त ने 43 से 53 ई. तक शासन किया। तत्पश्चात् 53 ई. में शालिवाहन का शासन प्रारम्भ हुआ, जिन्होंने 78 ई. में ‘शालिवाहन शक संवत्’ प्रारम्भ किया। इस प्रकार महाराज शालिवाहन का समय ईसा की प्रथम शताब्दी (ईसा मसीह के समकालीन) ही है। भविष्यमहापुराण में दी हुई वंशावली एवं हमारी कालगणना एकदम सटीक एवं इतिहास-सम्मत है।
अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान् प्रो. (डॉ.) हरवंशलाल ओबराय (1925-1983) ने प्रतिपादित किया है कि ईसा और ईसाई गहराई से श्रीकृष्ण की भगवद्गीता से प्रभावित रहे हैं। वस्तुतः ईसा (Jesus) ईसाइयत के पैगंबर का नाम था और ‘क्राइस्ट’ (Christ) तो केवल उनका उपनाममात्र था। ज़ीसस से पूर्व ‘क्राइस्ट’ नाम के किसी व्यक्ति की ज़ानक़ारी नहीं है, जबकि यहूदियों में ‘ज़ीसस’ नाम काफ़ी प्रचलित था। तब उन्होंने ‘क्राइस्ट’ नाम कहाँ से पाया? यह शब्द ‘कृष्ण’ से व्युत्पन्न है। बंगाली लोग ‘कृष्ण’ का उच्चारण ‘क्रिष्टो’ करते हैं। वे भजन गाते हैं— ‘हरे क्रिष्टो हरे क्रिष्टो, क्रिष्टो-क्रिष्टो हरे हरे’। आज भी उनके नाम हैं— क्रिष्टो मुखर्जी, क्रिष्टो दास इत्यादि। संस्कृत में कई बार ‘ण’ का रूप बदलकर ‘ट’ हो जाता है, जैसे- षट्+कोण = षट्कोण, किन्तु षट्+मुख = षण्मुख (छः मुखोंवाला अर्थात् कार्तिकेय)। ज़मशेदपुर का एक प्रसिद्ध क्षेत्र ‘बिष्टुपुर’ कहलाता है, किन्तु वह मूलतः ‘विष्णुपुर’ है।
(‘Christ and Christianity were deeply influenced by Bhagwad Gita. Infact Jesus was the name of the prophet of Christianity and Christ was only his title. There was no person known as Christ before Jesus although Jesus was a popular name among the Jews. Where did they get the name of Christ, It is derived from Krishna, Bengalies pronounce Krishna Krishto. They chant Hare Krishto, Hare Krishto, Krishto Krishto Hare-Hare. They have names untill today as Krishto Mukherjee. Krishto Das etc. In Sanskrit also N. (ण) Changes into T (ट) many times. Shat + Kon = Shat-kon (Hexagon), but Shat + Mukha = Shanmukha (The six faced God Karitikeya or Subrahmanya). A famous area of TATA NAGAR (BIHAR) Indies called BISHTUPURA original being VISHNUPURA.’ —Influence of Hindu Culture on Various Religions, pp. 3-4). पुरुषोत्तम नागेश ओक (1917-2007) ने भी अपने ग्रन्थ ‘वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास’ (खण्ड 2, पृ. 272) में ऐसा ही उल्लेख किया है । यही नहीं, उन्होंने अपने एक अन्य ग्रन्थ ‘क्रिश्चियनिटी कृष्ण-नीति है’ में सविस्तार वर्णन किया है कि अपने-आपको कृस्ती या ईसाई माननेवाले लोग कृष्ण ईश् या ईश कृष्ण-पंथ के लोग हैं।
साभार: गुंजन अग्रवाल