गत रविवार को महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस का दिया गया बयान अब तक चर्चा का विषय क्यों नहीं बन सका है। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री ने राज्य के मीडिया प्रभारियों से कहा है कि एक साल बीतने पर भी वे विपक्ष की भूमिका में नहीं आ सके हैं। उनका कहना था कि कार्यकर्ता विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए तैयार रहें। फडणवीस के इस बयान के अर्थ निकाले जा सकते हैं।
एक तो वे उद्धव ठाकरे की शक्तिशाली और दुःसाहसी सरकार के विरुद्ध तेज़-तर्रार विपक्ष की भूमिका निभाने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं और अब मान चुके हैं कि उद्धव ठाकरे अगले चार साल मुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे। उनके बयान का दूसरा अर्थ ये होता है कि वे अपनी निष्क्रियता का बोझ महाराष्ट्र भाजपा के कार्यकर्ताओं पर डालना चाह रहे हैं।
विपक्ष के नेता के रुप में उनका एक वर्ष का कार्यकाल दिखा रहा है कि महाराष्ट्र के विभिन्न मुद्दों को उठाने में वे असफल ही सिद्ध हुए हैं। सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध हत्या, पालघर में साधुओं की नृशंस हत्या, बॉलीवुड में ड्रग्स काण्ड को लेकर देवेंद्र उदासीन ही बने रहे। ये तीन मुद्दे ऐसे थे, जिनको ठीक से उठाया जाता तो आज संभवतः उद्धव सरकार अस्तित्व में ही नहीं होती। विशेष रुप से पालघर काण्ड को महाराष्ट्र भाजपा ‘लाभ’ के रुप में अपने खाते में नहीं डाल सकी।
भाजपा के खेमे ये सुगबुगाहट उठती रही कि फड़नवीस एंड कंपनी की निष्क्रियता से आलाकमान असंतुष्ट है। बिहार चुनाव के समय फडणवीस को जिस तरह से बिहार भेजा गया, उससे इस बात की पुष्टि होती दिखाई दी। विधानसभा सत्र की बात करे तो वहां भी फडणवीस ने ज्वलंत मुद्दों पर राज्य सरकार को नहीं घेरा। दिसंबर में दो शीतकालीन सत्र के दो दिनों में उनका फोकस अधिकतर कोरोना और किसानों पर ही रहा।
अर्नब गोस्वामी और कंगना रनौत को लेकर बड़े ही हलके ढंग से विरोध जताया। और पालघर का मुद्दा तो महाराष्ट्र भाजपा ने लगभग बिसरा ही दिया है। महाराष्ट्र में इतना कुछ हो गया लेकिन फड़नवीस एंड कंपनी का विपक्ष के रुप में प्रदर्शन बहुत लचर रहा। सुशांत सिंह राजपूत और कंगना रनौत के मुद्दे पर तो ये लोग खुलकर सामने ही नहीं आए। ऐसा कैसे माना जा सकता है कि फड़नवीस एंड कंपनी को निष्क्रिय रहने के निर्देश भाजपा आलाकमान की ओर से मिले होंगे।
कौन पार्टी नहीं चाहेगी कि वह और राज्यों में अपनी सरकार स्थापित करे। सन 2020 का वर्ष महाराष्ट्र के विपक्ष के लिए सत्ता पर काबिज होने का स्वर्णिम अवसर था, जो महाराष्ट्र भाजपा ने गंवा दिया। मुंबई की सड़कों पर जब महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री के स्थान पर राम कदम जैसे कम अनुभवी नेता भाजपा का झंडा थामे निकलते हैं तो समझ में आता है कि आलाकमान और महाराष्ट्र के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
शिवसेना नेता संजय राउत से उनकी गुपचुप मुलाक़ात और उसके बाद सुशांत केस में सीबीआई के ढीला पड़ जाने का कनेक्शन भी देवेंद्र के लिए तकलीफ का सबब बना हुआ है। अब वे अपने कार्यकर्ताओं को नसीहत दे रहे हैं कि विपक्ष में लंबे समय तक बैठने के लिए तैयार रहे।
ऐसा निराशाजनक निर्देश देने का अर्थ यही है कि विपक्ष के नेता के रुप में वे पराजय स्वीकार कर चुके हैं। क्या भाजपा आलाकमान को अब ऐसा नहीं लगता कि उसे महाराष्ट्र के संगठन में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। सुशांत केस में तीन जाँच एजेंसियां किसी परिणाम पर नहीं पहुँच सकी। इसको लेकर भाजपा पर ‘मराठीवाद’ का आरोप लगाया जा रहा है।
सारे आरोपों पर पार्टी और संगठन एक वर्ष से मौन साधे हुए हैं। ये चुप्पी न केवल महाराष्ट्र में अपितु देश में भाजपा की छवि को बट्टा लगा रही है। क्या इसका समाधान वाया नागपुर होकर निकल सकता है?