संदीप देव। गणतंत्र दिवस 26 जनवरी 2021 की सुबह से ही किसानों का प्रदर्शन उग्र होता जा रहा था। दिल्ली पुलिस ने जगह-जगह बैरिकेटिंग कर रखी थी। दिल्ली के डीडीयू मार्ग पर एक तथाकथित किसान नवनीत सिंह तेजी से ट्रैक्टर चलाकर बैरिकेट को तोड़कर पुलिस वालों को कुचलना चाहता था। बैरिकेट को तोड़ने की कोशिश में तेजी से मोड़ने के कारण उसका ट्रैक्टर पलट गया।
नवनीत उसके नीचे आ गया, जिस कारण उसकी मौत हो गई। सीसीटीवी में यह सारा वाकया कैद हो गया, परंतु समाचार चैनल ‘इंडिया टुडे’ के पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने नवनीत सिंह के शव के पास पहुंच कर तत्काल ही एक नई झूठी कहानी गढ़ी और फेक न्यूज फैला दिया।
राजदीप सरदेसाई ने तिरंगे में लिपटी मृतक की लाश की तस्वीर अपने ट्विटर अकाउंट से शेयर करते हुए लिखा कि इसकी मौत पुलिस की गोली से हुई है। राजदीप ने ट्विटर पर लिखा, “पुलिस फायरिंग में आईटीओ पर 45 साल के नवनीत की मौत हो गई है। किसानों ने मुझे बताया कि उसका ‘बलिदान’ व्यर्थ नहीं जाएगा।” इतना ही नहीं, इंडिया टुडे पर घटना स्थल से रिपोर्टिंग करते हुए बड़ी बेशर्मी से वह इस झूठ को बार-बार दोहराता रहा,लेकिन तब तक सोशल मीडिया पर नवनीत के ट्रैक्टर पलटने का वह वीडियो वायरल हो चुका था। अपनी झूठ पकड़े जाने पर कुछ समय बाद ही राजदीप ने अपना ट्वीट डिलीट कर दिया, लेकिन इसके कारण प्रदर्शन और उग्र हो चला था। देश की राजधानी दिल्ली में हिंदू-सिख दंगों की स्थिति उत्पन्न हो गई थी, और यह सब एक बड़े पत्रकार के फेक न्यूज फैलाने के कारण हुआ था।
बाद में दिल्ली पुलिस ने नवनीत की पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी जारी की, जिसमें कहीं भी उसे गोली लगने से मौत का जिक्र नहीं था, बल्कि यह जिक्र था कि वह कुचल कर मरा था। इसके विरुद्ध उप्र पुलिस ने नोएडा के सेक्टर-20 थाने में राजदीप सरदेसाई सहित सात लोगों के विरुद्ध झूठ फैलाकर दंगा भड़काने की साजिश का मामला भी दर्ज किया था।
फेक न्यूज पकड़े जाने और पुलिस में मामला दर्ज हो जाने के बाद इंडिया टुडे ने अपनी साख बचाने के लिए राजदीप सरदेसाई पर आंशिक प्रतिबंध भी लगाया, जिसे मामला शांत होने पर उसने कुछ दिनों बाद ही बड़ी बेशर्मी से हटा भी दिया। उधर, फेक न्यूज फैलाने के लिए काफी सारे मामलों में अदालतों में मुकदमा झेल रहे वामपंथी न्यूज पोर्टल ‘द वायर‘ ने इस झूठ को लगातार जिंदा रखा। यही नहीं, कांग्रेस की सर्वेसर्वा गांधी परिवार की प्रियंका वाड्रा ने इस झूठ को सच साबित करने के लिए नवनीत सिंह के घर पहुंच कर उसे शहीद का दर्जा भी प्रदान कर दिया, और अपने राजनीतिक स्वार्थ में फेक न्यूज को सच साबित करने का घृणित उपक्रम कर डाला।
हद तो तब हो गई कि एनडीटीवी के रिपोर्टर रवीश कुमार ने राजदीप सरदेसाई के विरुद्ध दर्ज प्राथमिकी का विरोध करते हुए एक तरह से उस फेक न्यूज के पक्ष में पूरा पोस्ट ही लिख मारा कि ‘गुलाम मीडिया के रहते कोई मुल्क आजाद नहीं होता। गोदी मीडिया से आजादी ही नहीं आजादी लाएगी।’ राजदीप सरदेसाई द्वारा फैलाए फेक न्यूज का विरोध करने की जगह रवीश कुमार दूसरे पत्रकारों व मीडिया हाउस पर दोषारोपण कर फेक न्यूज के पक्ष में माहौल बनाते दिखे। सच तो यह है कि वह भी कई बार फेक न्यूज फैलाते पकड़े जा चुके हैं, इसलिए राजदीप सरदेसाई के प्रति उनकी सहानुभूमि स्वभाविक थी।
फरवरी 2020 में दिल्ली में हुए दंगे के समय हाथ में पिस्तौल लिए एक पुलिस वाले को धमकाते दंगाई शाहरुख पठान को अनुराग मिश्रा साबित करने की बेशर्म कोशिश करते हुए रवीश कुमार को पूरा देश देख चुका है। सोशल मीडिया के कारण उस वक्त उनका झूठ भी ज्यादा देर नहीं टिक पाया था। बाद में दिल्ली पुलिस ने शाहरुख पठान को न केवल गिरफ्तार किया, बल्कि उसके विरुद्ध चार्जशीट भी दाखिल किया और उसे दंगा फैलाने का दोषी ठहराया।
यह दो उदाहरण दो बड़े पत्रकारों का यहां इसलिए दिया जा रहा है कि सोशल मीडिया के दौर में इन दोनों ने जानबूझ कर फेक न्यूज फैलाया, क्योंकि यदि उन्हें गलती का ऐहसास होता तो वह फेक न्यूज को जस्टिफाई करने के लिए कुतर्क गढते हुए बेशर्मी नहीं दिखाते, परंतु सोशल मीडिया के कारण दोनों पत्रकारों के झूठ का गुब्बारा कुछ मिनटों में ही फट गया। ऐसे ही कई बड़े और नामी पत्रकार फेक न्यूज फैलाते और लोगों द्वारा पकड़े जाते रहे हैं। सोशल मीडिया से मेनस्ट्रीम मीडिया और पत्रकारों की चिढ़ की सबसे बड़ी वजह यही है कि उनका झूठ और प्रोपोगंडा ज्यादा देर तक टिक नहीं पा रहा है।
अब हम 2002 में चलते हैं। 6 मई 2002 को ‘आउटलुक’ पत्रिका में करीब 6000 शब्दों का एक लेख कम्युनिस्ट लेखिका अरुंधति राय ने लिखा था। अरुंधति राय ने अपने इस लेख में बड़े ही नाटकीय ढंग से गुलबर्ग सोसायटी दंगे का शिकार हुए कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की बेटी को नग्न किए जाने और फिर उसे जलाकर मारने का ऐसा चित्र खींचा था कि जैसे वह खुद वहां एक प्रत्यक्षदर्शी की भूमिका में उपस्थित रही हो! उसने लिखा था- ‘‘दंगाईयों ने एहसान जापफरी की बेटी को पहले नंगा किया गया और फिर उसे जिंदा ही आग के हवाले कर दिया।’’
बड़ी सफाई से लिखी गई अरुंधति राय के इस फेक न्यूज का एहसान जाफरी के बेटे टी.ए.जाफरी ने ‘एशियन एज’ अखबार में दिए अपने साक्षात्कार में पर्दाफाश कर दिया। उसने बताया, ‘‘ मेरा भाई और मेरी बहन अमेरिका में रहती हैं और घटना के वक्त भी वह यहां से बाहर थीं। मेरी बहन सुरक्ष्ज्ञित है और वो अभी भी अमेरिका में ही हैं। मेरे पापा की हत्या जरूर हुई, लेकिन मेरी बहन के साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।’’ बाद मंअरुंधति ने चुपके से एक पत्र लिखकर जाफरी परिवार से माफी मांग लिया, लेकिन दुनिया भर में अपने इस लेख से जो गुजरात को बदनाम किया, उसके लिए उसने लेख लिखकर माफी नहीं मांगी।
यदि उस वक्त सोशल मीडिया अस्तित्व में रहता तो अरुंधति का झूठ उसी तरह और उसी दिन खुल जाता, जैसे रवीश कुमार या राजदीप सरदेसाई का झूठ तत्काल खुल गया था। लेकिन सोशल मीडिया नहीं होने के कारण आज भी बहुत सारे लोग अरुंधति के लिखे उस झूठ पर ही भरोसा करते हैं! सोशल मीडिया के अस्तित्व में आने के बाद इतने लंबे समय तक किसी झूठ को टिकाए रखना अब संभव नहीं रह गया है।
सोशल मीडिया के दौर में समाचार के क्षेत्र में आए बदलाव का यह दो बड़ा उदाहरण है। सोशल मीडिया नहीं होने के कारण लश्कर-ए-तोएबा की आतंकी इशरत जहां एनकाउंटर को मेनस्ट्रीम मीडिया ने 17 सालों से फेक एनकाउंटर बताकर पेश करने में जबरदस्त सफलता हासिल की थी, लेकिन 31 मार्च 2021 में सीबीआई अदालत का फैसला आते ही मेनस्ट्रीम मीडिया का दशकों से चल रहा यह झूठ पुनः बेनकाब हो गया।
अदालत ने इशरत जहां को आतंकी मानते हुए उसके एनकाउंटर को उचित ठहराया था। वैसे तो मेनस्ट्रीम मीडिया ने पूरी कोशिश की कि वह अदालत के निर्णय को अंडर-प्ले कर सके, लेकिन सोशल मीडिया के कारण उनका यह झूठ ज्यादा देर तक टिक नहीं सका 17 साल का झूठ एक दिन में धराशाई हो गया।
यह बात ठीक है कि सोशल मीडिया पर भी फेक न्यूज तेजी से फैलाया जाता है। नफरती पोस्ट, ट्वीट, वीडिया और व्हाट्सअप तेजी से फैलाई जाती है, लेकिन यह भी सच है कि यह झूठ एक दिन या अधिक से अधिक एक सप्ताह में ध्वस्त हो जाता है। कोई झूठ 17 साल तक नहीं चलता। भारत सरकार ने सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे फेक न्यूज को रोकने के लिए दिशा निर्देश भी जारी किया है और समय-समय पर फेक न्यूज फैलाने वालों पर कानूनी कार्रवाई भी होती रही है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि सोशल मीडिया पर फैलने वाली झूठ कुछ घंटों की मेहमान होती है।
अधिक से अधिक कोई झूठ कुछ दिन तक चल सकता है, लेकिन कोई न कोई व्यक्ति सोशल मीडिया पर ही उस झूठ का भंडाफोड़ कर देता है। लेकिन मेनस्ट्रीम मीडिया या पत्रकारों ने जिस तरह से दशकों तक झूठ फैलाया, उसे ध्वस्त करने का कोई मैकेनिज्म न होने के कारण 19 साल बाद आज भी यह झूठ चल रहा है कि 2002 के गुजरात दंगे में कौसरबानों का हिंदूवादियों ने गर्भ फाड़ दिया था, जबकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठिन एसआईटी की रिपोर्ट बताती है कि ऐसी कोई घटना कभी हुई ही नहीं। लेकिन आज भी कितने लोग इस सच को जानते हैं? मेनस्ट्रीम मीडिया के झूठ के कारण वाजपेयी सरकार में रक्षा मंत्री रहे जाॅर्ज फर्नांडीस जैसे नेता को मरणासन्न स्थिति में पहुंचा दिया था और आखिर में उनकी जान भी चली गई थी। यदि उस दौर में सोशल मीडिया होता तो ‘तहलका’ की पीत पत्रकारिता की चिंदी-चिंदी उड़ जाती।
आज भी मेनस्ट्रीम मीडिया के फेक न्यूज का आलम यह है कि ‘द हिंदू’ अखबार ने राफेल सौदे को रोकने के लिए आधे कागज उपर से और आधे कागज नीचे से मोड़ कर आधे-अधूरे दस्तावेज के जरिए लगातार और जमकर झूठ फैलाया, जो आखिर में सुप्रीम कोर्ट में धराशाई हो गया। इसी तरह जज लोया की मौत पर भी मेनस्ट्रीम मीडिया ने लगातार झूठ फैलाया। बाद में उसे भी सुप्रीम कोर्ट ने फेक और एकतरफा न्यूज कहा तो मेनस्ट्रीम पत्रकारों का एक गिरोह कांग्रेस-कम्युनिस्ट पार्टी व नेताओं के साथ मिलकर चार न्यायधीशों की प्रेस वार्ता आयोजित करने से लेकर तत्कालीन मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा के विरुद्ध महाभियोग लाने तक की तैयारी कर डाली थी।
आज स्थिति यह है कि फेक न्यूज फैलाने वाले मेनस्ट्रीम मीडिया और पत्रकारों की हिम्मत इतनी बढ़ गई है कि ये फेक न्यूज फैलाने के बाद बड़ी बेशर्मी से न केवल इसका बचाव करते हैं, बल्कि पूर्ण बहुमत की सरकार पर दबाव तक बनाने में सफल रहते हैं। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में अप्रैल 2018 में तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी ने पत्रकारों के लिए दिशानिर्देश जारी किए जिसके तहत कहा गया कि ऐसी खबरों के प्रकाशन पर उनकी प्रेस मान्यता रद कर दी जाएगी। सूचना एवं प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी ने ट्वीट कर कहा है कि ‘‘यह बताना उचित होगा कि फेक न्यूज के मामले पीसीआई और एनबीए के द्वारा तय किए जाएंगे, दोनों एजेंसियां भारत सरकार के द्वारा रेगुलेट या ऑपरेट नहीं की जाती हैं।’’
इसके बाद फेक न्यूज फैलाने पर पत्रकारों की मान्यता रद्द करने के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के फैसले को पीएम मोदी ने तुरंत वापस लेने का आदेश जारी कर दिया। पीएमओ ने पूरे मामले में दखल देते हुए सूचना प्रसारण मंत्रालय से कहा कि फेक न्यूज को लेकर जारी की गई प्रेस रिलीज को वापस लिया जाना चाहिए। यह पूरा मसला प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और प्रेस संगठनों पर छोड़ देना चाहिए। पीएमओ ने कहा कि ऐसे मामलों में सिर्फ प्रेस काउंसिल को ही सुनवाई का अधिकार है। यही नहीं, कुछ दिनों के उपरांत स्मृति ईरानी का मंत्रालय भी बदल दिया गया। माना गया कि फेक न्यूज रोकने की उनकी कोशिशों के कारण ही उन पर गाज गिरी है। आज भी सरकार फेक न्यूज रोकने के लिए कोई कानून नहीं ला पाई है।
सच तो यह है कि भारत सरकार भी फेक न्यूज का भंडाफोड़ करने के लिए सोशल मीडिया के भरोसे ही बैठी है। ‘पीआईबी फैक्ट चेक’ ट्वीटर एकाउंट सरकार के इसी सोच का परिणाम है। सरकार चाहती है कि एक फेक न्यूज को कोई दूसरा सोशल मीडिया हैंडल ध्वस्त कर दे। लेकिन जिस तरह से शाहीन बाग और किसान आंदोलन के नाम पर दो समुदायांे के बीच फेक न्यूज के जरिए बड़े मीडिया संस्थानों और पत्रकारों ने दंगा कराने की कोशिश की, वह बेहद गंभीर और सोचनीय है।
यदि सरकार फेक न्यूज को रोकने के लिए कानून नहीं बनाती है और केवल दिशा निर्देश बनाकर ‘चोर को ही कोतवाल’ बनाने का काम करती है तो निकट भविष्य में दो समुदायों में सामाजिक वैमनस्यता बढ़ने से लेकर देश में बड़े पैमाने पर दंगा-फसाद तक हो सकते हैं। सरकार को फेक न्यूज रोकने के लिए कठोरता से कानून बनाना चाहिए जो मेनस्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया, दोनों पर लागू हो।