
छुआ-छूत पर ब्राह्मणों की झूठी बदनामी !

शंकर शरण ई.पू. तीसरी सदी के मेगास्थनीज से लेकर हुएन सांग, अल बरूनी, इब्न बतूता, और 17वीं सदी के चार्ल्स बर्नियर तक दो हजार सालों के भारतीय जनजीवन का वर्णन देखें। उन्होंने ब्राह्मणों और हिन्दू समाज की छोटी-छोटी बातों का भी उल्लेख किया है। लेकिन किसी ने यहाँ छुआ-छूत नहीं पाया था। फिर, देशी अवलोकनों में हमारा अपना विशाल साहित्य है। प्रसिद्ध भाषाविद और 11 खंडों की ‘इन्साइक्लोपीडिया ऑफ हिन्दुइज्म’ के लेखक प्रो. कपिल कपूर ने भारत में एक हजार साल के भक्ति साहित्य का आकलन किया है। उन्होंने पाया कि अधिकांश भक्त-कवि ब्राह्मण या सवर्ण भी नहीं थे। किन्तु संपूर्ण हिन्दू समाज ने उन्हें पूजा।
हिन्दू विचारों की गलत व्याख्या और उस में झूठी बातें जोड़ने का काम विदेशियों ने जाने-अनजाने शुरू किया। उस में चर्च मिशनरियों ने बड़ी भूमिका निभाई। फिर, स्वतंत्र भारत में राजनीतिक दलों ने स्वार्थवश उन का मनमाना दुरूपयोग किया, बल्कि दुष्प्रचार को बढ़ाया। प्रमाणिक बातें भी दबाई जाने लगी, क्योंकि वह दलीय स्वार्थों के प्रतिकूल पड़ती है। इस तरह, अपने ही हाथों हिन्दू समाज के एक हिस्से को दूसरे का विरोधी बनाया जाता है।
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जबकि ‘छुआ-छूत’ की शब्दावली ही हाल की है। भारत पर इस्लामी हमलों के बाद, एक मुस्लिम समुदाय बनने-जमने के बाद ही इस का चलन हुआ। उस से पहले यह यहाँ लौकिक व्यवहार में नहीं मिलता। यहाँ छुआ-छूत के आरंभ पर शोध होना चाहिए था, किन्तु इस्लामी इतिहास की लीपापोती करने के लिए उस काल के अध्ययन को ही हतोत्साहित किया गया। बदले में हिन्दू-निन्दा परियोजना चली, जिस का उदाहरण छुआ-छूत को वेदों और मनुस्मृति के मत्थे डालना भी है।
वस्तुतः, राजयोग में केवल यम-नियम है। अर्थात्, अंदर-बाहर की स्वच्छता। इसीलिए हिन्दू कुछ स्थानों को विशेष पवित्र रखते और कई चीजों से बचते हैं। इस में बाहरी लोगों के साथ-साथ, परिवार सदस्यों तक से व्यवहार शामिल है। विदेशी इसे भी छुआ-छूत बताते हैं। जैसे, भोजन जूठा न करना, जूठा नहीं खाना-पीना, बिना नहाए रसोई घर में प्रवेश न करना, बाहर से आने पर हाथ-पैर धोकर ही बैठना, जूते घर के बाहर उतारना, आदि। कई हिन्दू स्वयं-पाकी भी होते थे। केवल अपने हाथ से बनाया हुआ खाने वाले। महाकवि ‘निराला’ इस के समकालीन उदाहरण थे। यह एक आत्मानुशासन था। पर हिन्दू विचारों को विजातीय नजर से देखने पर यही चीजें छुआ-छूत लगती है।

वैसे भी, हिन्दू समाज में सामाजिक व्यवहार के रूप में छुआ-छूत पहले नहीं मिलता। इस का ठोस प्रमाण विदेशियों के प्रत्यक्षदर्शी विवरण हैं, जो उन्होंने वर्षों भारत में रहने के बाद लिखे थे। ई.पू. तीसरी सदी के मेगास्थनीज से लेकर हुएन सांग, अल बरूनी, इब्न बतूता, और 17वीं सदी के चार्ल्स बर्नियर तक दो हजार सालों के भारतीय जनजीवन का वर्णन देखें। उन्होंने ब्राह्मणों और हिन्दू समाज की छोटी-छोटी बातों का भी उल्लेख किया है। लेकिन किसी ने यहाँ छुआ-छूत नहीं पाया था।
फिर, देशी अवलोकनों में हमारा अपना विशाल साहित्य है। प्रसिद्ध भाषाविद और 11 खंडों की ‘इन्साइक्लोपीडिया ऑफ हिन्दुइज्म’ के लेखक प्रो. कपिल कपूर ने भारत में एक हजार साल के भक्ति साहित्य का आकलन किया है। उन्होंने पाया कि अधिकांश भक्त-कवि ब्राह्मण या सवर्ण भी नहीं थे। किन्तु संपूर्ण हिन्दू समाज ने उन्हें पूजा। उन कवियों ने हमारी अनेक सामाजिक कमजोरियों पर ऊँगली रखी। किन्तु किसी ने छुआ-छूत का उल्लेख नहीं किया।
अलग जीवन-शैली या खान-पान के कारण कुछ समूहों के अलग रहने की बात जरूर मिलती है। लेकिन इसी कारण, न कि किसी जोर-जबर से। अलग बस्तियों में रहना दूसरी चीज है। आज भी वनवासी, मछुआरे, या असामान्य मांस भोजी लोग अपनी बस्तियों में रहते हैं।

बल्कि, आज तो हिन्दुओं के सात्विक खान-पान को उन के खिलाफ हथियार बनाकर मुहल्ले कब्जा करने की तकनीक में बदल दिया गया है। जैसे, गो-मांस खाने-पकाने का जानबूझ कर प्रदर्शन करके पड़ोसी हिन्दुओं को भागने पर विवश करना। इसे जम्मू से मैसूर तक असंख्य शहरों में देखा गया है। दिल्ली में ही गत तीन दशकों में दर्जनों मुहल्ले हिन्दुओं से खाली हो गए। पर जिक्र नहीं होता। कोई करे तो उलटे हिन्दुओं पर ही किसी के ‘फूड-हैबिट’ के प्रति असहिष्णुता होने का दोष मढ़ा जाता है।
अतः शास्त्रीय से लेकर वर्तमान, सभी उदाहरण हिन्दू रहन-सहन में स्वच्छता का ही संकेत करते हैं। हालाँकि, महाभारत में ब्राह्मण अश्वत्थामा को अस्पृश्य कहने का मिलता है, क्योंकि उस ने पांडवों के शिशुओं का वध किया था। आज भी अपनी जाति में किसी को अत्यंत अनुचित काम का दंड देने के लिए उस का ‘हुक्का-पानी बंद’ करने का चलन मिलता है।
हालिया सदियों में जिस छुआ-छूत का जन्म हुआ, उस का मुख्य कारण इस्लामी हमलों के बाद हिन्दू जीवन का भयावह विध्वंस था। हमलावरों के शिकार असंख्य हिन्दुओं को अपने ही समाज से वितृष्णा झेलनी पड़ी। अनेक स्थानों पर अकल्पनीय उत्पीड़न, और ब्राह्मणों के आम संहार से सभी प्रकार के हिन्दू अपने सहज जीवन व मार्गदर्शन से वंचित हो गए। बहुतों ने किसी तरह अपना धर्म, परिवार बचाने की चिंता की। कई बार अपमान, बलात्कार, और अपहरण की धमकी के सामने उन्हें मुसलमान या गुलाम बनकर रहने का विकल्प था। कुछ को विजातीय शासकों का मैला उठाने जैसे काम के एवज हिन्दू बने रहने की इजाजत मिली। फलतः वे हिन्दू तो रहे, किन्तु अपने समाज से दूर हो गए। अमृतलाल नागर के उपन्यास ‘‘नाच्यो बहुत गोपाल’’ में एक ब्राह्मणी की कथा इसी पृष्ठभूमि में है। आज भी पाकिस्तान में यह देख सकते हैं। भारत-विभाजन के बाद पाकिस्तान ने उन हिन्दुओं को भारत आने से जबरन रोका, कि ‘उन का काम’ कौन करेगा? यानी, स्वयं मुसलमान अपना मैला नहीं उठाएंगे। इस प्रत्यक्ष उदाहरण के बाद भी हिन्दू समाज को दोष देना मूढ़ता या क्रूरता है।
किसी हिन्दू शास्त्र, पुराण, आदि में जाति-आधारित छुआ-छूत का निर्देश नहीं। वरना सभी हिन्दू-विरोधियों, वामपंथियों ने उसे प्रसिद्ध पोस्टर-सा लाखों बार लहराया होता। इस के बदले वे शंबूक या एकलव्य की कथा से काम चलाते हैं, जो भी अन्य प्रसंग के उदाहरण है, जिसे खास रंग दे हिन्दू धर्म को लांछित किया जाता है।

तुलसीदास की पंक्ति ‘‘ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी/ सकल ताड़ना के अधिकारी’’ भी वैसा ही उदाहरण है, जिसे मनमाना अर्थ दिया गया। रामचरितमानस सुंदरकांड के 59वें दोहों में वह पंक्ति है। जब राम के कोप से भयभीत समुद्र क्षमायाची विनती कर रहा है। अतः पहले तो, प्रसंग से वह वाक्य नायक नहीं, बल्कि खलनायक का है। दूसरे, उस दोहे से ठीक पहले समुद्र ने ‘‘गगन समीर अनल जल धरनी/ इन्ह कई नाथ सहज जड़ करनी’’ भी कहा। अर्थात् उस ने वायु, अग्नि, जल, और धरती को ‘स्वभाव से ही जड़’ बताया। दोनों बातें एक साँस में। इस प्रकार, ये चार बड़े देवी-देवता भी ढोल, गवाँर, सूद्र, पसु, नारी की श्रेणी में ही हैं! अतः या तो पूरी श्रेणी को ‘ताड़न के अधिकारी’ मानते हुए उसे खलनायक का कुतर्क समझें। अथवा सूद्र, पसु, नारी, को धरती, अग्नि, वायु और जल की तरह गया-गुजरा मान लें। केवल सूद्र या नारी उठाकर, उसे मनमाना रंग देना प्रपंच है।
अतः शास्त्र या लोक, अतीत या वर्तमान, देशी या विदेशी साक्ष्य, कहीं भी छुआ-छूत हिन्दू धर्म का अंग होने, या ब्राह्मणों की दुष्टाता का प्रमाण नहीं है। फिर, इस छुआ-छूत को भी खत्म करने का काम स्वयं हिन्दू समाज के अंदर हुआ। स्वामी दयानन्द, विवेकानन्द और श्रद्धानन्द जैसे मनीषियों योद्धाओं की पूरी श्रृंखला है, जिन्होंने विजातीय प्रकोप से आई इस कुरीति को दूर करने का बीड़ा सफलता पूर्वक उठाया। वे सभी वेदों से अनुप्राणित थे। स्पष्टतः वैदिक धर्म में ऐसे छुआ-छूत का कोई स्थान नहीं। अन्यथा वे मनीषी कोई पार्टी-नेता नहीं थे, जिन्होंने लोक-लुभावन नाटक किये। उन्होंने केवल दुष्काल में आई कुरीतियों को दूर किया, जो हमारे धर्म-विरुद्ध थी। यदि वे धर्म-अनुरूप होतीं, तो अनगिन हिन्दू मनीषियों, सन्यासियों ने उस के विरुद्ध बीड़ा न उठाया होता।
इसलिए, हमें अपनी परंपरा अपने शास्त्रों के प्रकाश में ही जाननी-समझनी चाहिए। अभी तक हम ‘कौआ कान ले गया’ वाली फितरत में दूसरों द्वारा हर निंदा पर अपनी ही छाती पीटने लगते हैं। हमें अपने शास्त्रों को अपनी कसौटी पर देखना चाहिए। कम से कम, कोरोना आतंक के बाद हाथ जोड़कर नमस्कार, शारीरिक स्पर्श से बचने, जूते-चप्पल घर के बाहर रखने, शाकाहार अपनाने, क्रूरतापूर्वक तैयार ‘हलाल’ मांसाहार से बचने, आदि सुझाव सारी दुनिया को मिले हैं। क्या इस के बाद भी हमारे नेतागण और मीडिया छुआ-छूत के बारे में झूठा प्रचार सुधारेंगे?
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