️श्वेता पुरोहित। नारीधर्म- स्वतन्त्रता के लिये स्त्रियों की अयोग्यता
– तत्वचिन्तामणि
स्त्री-जाति के लिये स्वतन्त्र न होना ही सब प्रकार से मंगलदायक है। पूर्व में होनेवाले ऋषि-महात्माओं ने स्त्रियों के लिये पुरुषों के अधीन रहने की जो आज्ञा दी है वह उनके लिये बहुत ही हितकर जान पड़ती है। ऋषिगण त्रिकालज्ञ और दूरदर्शी थे। उनका अनुभव बहुत सराहनीय था। जो लोग उनके रहस्य को नहीं जानते हैं वे उनपर दोषारोपण करते हैं और कहते हैं कि ऋषियों ने जो स्त्रियों की स्वतन्त्रता का अपहरण किया, यह उनके साथ अत्याचार किया गया। ऐसा कहना उनकी भूल है परन्तु यह विषय विचारणीय है। स्त्रियों में काम, क्रोध, दुःसाहस, हठ, झूठ, कपट, कठोरता, द्रोह, ओछापन, चपलता, अशौच, दयाहीनता आदि विशेष अवगुण होने के कारण वे स्वतन्त्रता के योग्य नहीं हैं। तुलसीदास जी ने भी स्वाभाविक कितने ही दोष बतलाये हैं
नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं।
अवगुन आठ सदा उर रहहीं ॥
साहस अनृत चपलता माया।
भय अबिबेक असौच अदाया ॥
अतएव उनके स्वतन्त्र हो जाने से- अत्याचार, अनाचार, व्यभिचार आदि दोषों की वृद्धि होकर देश, जाति, समाज को बहुत ही हानि पहुँच सकती है। इन्हीं सब बातों को सोचकर मनु आदि महर्षियों ने कहा है—
बालया वा युवत्या वा वृद्धया वापि योषिता ।
न स्वातन्त्र्येण कर्तव्यं किंचित्कार्यं गृहेष्वपि ॥
बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत्पाणिग्राहस्य यौवने।
पुत्राणां भर्तरि प्रेते न भजेत्स्त्री स्वतन्त्रताम्॥
(मनु० ५ । १४७-१४८)
‘बालिका, युवती वा वृद्धा स्त्री को भी (स्वतन्त्रता से बाहर में नहीं फिरना चाहिये और) घरों में भी कोई कार्य स्वतन्त्र होकर नहीं करना चाहिये। बाल्यावस्था में स्त्री पिता के वश में, यौवनावस्था में पति के आधीन और पति के मर जाने पर पुत्रों के आधीन रहे, किन्तु स्वतन्त्र कभी न रहे।’ यह बात प्रत्यक्ष भी देखने में आती है कि जो स्त्रियाँ स्वतन्त्र होकर रहती हैं वे प्रायः नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। प्रायः विद्या, बुद्धि एवं शिक्षा के अभाव के कारण भी स्त्री स्वतन्त्रता के योग्य नहीं है।
मनुष्यमात्र के कर्तव्य
मनुष्यमात्र के सामान्य धर्म संक्षेप से निम्नलिखित हैं – स्त्रियों को इनके भी पालन करने की कोशिश करनी चाहिये। महर्षि पतंजलि ने यम-नियम के नाम से और मनु ने धर्म के नाम से ये बातें बतायी हैं।
यम
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।
(योगदर्शन २ । ३०)
१. किसी प्राणी को किसी प्रकार भी किंचिन्मात्र कभी कष्ट न देनेका नाम अहिंसा है।
२. हितकारक प्रिय शब्दों में न अधिक और न कम अपने मन के अनुभव का जैसा-का-तैसा निष्कपटता पूर्वक प्रकट कर देने का नाम सत्य है।
३. किसी प्रकार भी किसी की वस्तु को न छीनने और चुराने का नाम अस्तेय है।
४. सब प्रकार के मैथुनों का त्याग करके वीर्य की रक्षा करनेका नाम ब्रह्मचर्य है।
५. शरीर निर्वाह के अतिरिक्त भोग्य पदार्थों का कभी संग्रह न करने का नाम अपरिग्रह है।
ये पाँच यम हैं। इन्हीं को महाव्रत भी कहते हैं।
नियम
शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।
(योगदर्शन २ । ३२)
१. सब प्रकार से बाहर और भीतर की पवित्रता का नाम शौच है।
२. दैवेच्छा से प्राप्त सुख-दुःखादि में सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहने का नाम सन्तोष है।
३. मन और इन्द्रिय-संयमरूप धर्मपालन के लिये कष्ट सहन करने का नाम तप है।
४. ईश्वर के नाम और गुणों का कीर्तन एवं कल्याणप्रद शास्त्रों के अध्ययन का नाम स्वाध्याय है।
५. सर्वस्व ईश्वर के अर्पण करके नित्य उसके स्वरूप का ध्यान रखते हुए उसकी आज्ञा-पालन करने का नाम ईश्वरप्रणिधान है।
ये पाँच नियम हैं।
धर्म के दस लक्षण
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
(मनु० ६ । ९२)
१. भारी दुःख आ पड़नेपर भी बुद्धि के विचलित न होने और धैर्य धारण करने का नाम धृति है।
२. अपकार करने वाले से बदला लेना न चाहने का नाम क्षमा है।
३. मनको वश में करने का नाम दम है।
४ और ५. अस्तेय और शौच का अर्थ ऊपर लिखा ही है।
६. इन्द्रियों को वश में करने का नाम इन्द्रिय-निग्रह है।
७. सात्त्विक बुद्धि का नाम धी है।
८. सत्य और असत्य पदार्थके यथार्थ ज्ञानका नाम विद्या है।
९. सत्य का अर्थ भी ऊपर दिया जा चुका है।
१०. मन की प्रतिकूलता में वृत्तियों के उत्तेजित न होने का नाम अक्रोध है।
इसलिये ईश्वर भक्ति, योग्यता और शक्ति के अनुसार सेवा करना, काम-क्रोध-लोभ-मोहादि दुर्गुणों का त्याग, लज्जा, शील, समता, सन्तोष, दया, सरलता, शान्ति, कोमलता, निर्भयता आदि सद्गुणों का सेवन, चोरी, जारी, झूठ, कपट, हिंसा आदि दुराचारों एवं मादक वस्तुओं का तथा परनिन्दा आदि दुर्व्यसनों का त्याग करना मनुष्यमात्र का कर्तव्य है।
शास्त्रों में मनुष्य मात्र के लिये आत्मा के उद्धार के प्रायः तीन उपाय बतलाये हैं – कर्म, उपासना और ज्ञान। उनमें ज्ञान का मार्ग कठिन होने के कारण स्त्रियों के लिये कर्म और उपासना – ये दो ही सरल, सुसाध्य हैं। अतएव स्त्रियाँ निष्काम भाव से कर्म और उपासना (ईश्वरभक्ति) करके ही आत्मा का शीघ्र उद्धार कर सकती हैं।
भगवान्ने गीता में कहा है कि अपने-अपने कर्मों के द्वारा ईश्वरको पूजकर मनुष्य परमगति को प्राप्त होता है।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
(१८ । ४६)
‘हे अर्जुन! जिस परमात्मा से सर्व भूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है।’
अतएव स्वार्थ का त्याग करके सभी स्त्रियों को उत्तम कर्मों का आचरण निष्काम भाव से करना चाहिये। निष्काम भाव से सदाचार का पालन करने से शीघ्र ही आत्मा का कल्याण हो सकता है।
जिस आचरण से यावन्मात्र जीवों को सुख पहुँचे उसी का नाम सदाचार है।