आत्महत्या की कोशिश कर चुका अनिरुद्ध का बेटा आईसीयू में अपनी वापसी की लड़ाई लड़ रहा है। अस्पताल के बाहर अनिरुद्ध कहता है ‘उस दिन मैंने कहा था तू सिलेक्ट हो जाएगा तो साथ मिलकर सेलिब्रेट करेंगे लेकिन उसे ये नहीं बताया था कि यदि सिलेक्ट नहीं हो सका तो क्या करना है। हर साल प्रतियोगी परीक्षाओं में दस लाख बच्चे बैठते हैं और केवल दस हज़ार सिलेक्ट होते हैं। बाकी नौ लाख नब्बे हज़ार समझते हैं कि वे ज़िंदगी की लड़ाई हार चुके हैं।’
ये किस्सा भारत के लिए नया नहीं है। पढ़ाई के दबाव और माता-पिता के साथ अंडरस्टैंडिंग न होने के कारण सैकड़ों बच्चें हर साल अपना जीवन खत्म कर लेते हैं। नितेश तिवारी की ‘छिछोरे’ इस विषय को एक नए एंगल के साथ प्रस्तुत करती है। अतीत में बीती संघर्ष की सशक्त कहानियां कमज़ोर वर्तमान को प्रेरणा देने के लिए आगे आती हैं।
‘दंगल निर्देशक’ नितेश तिवारी की ‘छिछोरे’ एक नवीन प्रयोग के साथ सिनेमाघरों में प्रस्तुत हुई है। प्रयोग ऐसा कि एक दृश्य वर्तमान में चल रहा है तो अगला दृश्य फ्लैशबैक में चला जाता है। फिल्म में दो कहानियां एक साथ चलती हैं। कहानियां दो हैं मगर एक दूसरे में गुंथी हुई। इन कहानियों के मेल से जो निर्मल आनंद उपजता है, वहीं ‘छिछोरे’ का समग्र प्रभाव है।
एक पल में आप हंस पड़ेंगे और अगले पल में एक आंसू पलकों से लुढ़क आएगा। अनिरुद्ध का बेटा राघव एंट्रेंस एग्ज़ाम के तनाव से गुज़र रहा है। जब राघव का सिलेक्शन नहीं हो पाता, तो वह इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाता और बिल्डिंग से कूद जाता है। राघव धीरे-धीरे मौत के मुंह में जा रहा है। अनिरुद्ध उसे बचाने के लिए कॉलेज के पुराने दोस्तों को अस्पताल लेकर आता है। मकसद ये है कि उनकी कहानी सुनकर शायद राघव वापस आ जाए।
अतीत की कहानी में कुछ चमकदार नहीं है लेकिन खुद पर से ‘लूजर्स’ का टैग हटाने की दास्तान है, जो जीवन की उम्मीद हार चुके राघव में फाइटिंग स्पिरिट भर सकती है। इस फिल्म को देखते हुए युवा दर्शक रो पड़ते हैं क्योंकि किरदारों में वे कहीं न कहीं खुद को खड़ा पाते हैं।
बहुत दिनों बाद मैंने किसी फिल्म के अंत में तालियों की गूंज सुनी। ऐसा तभी होता है, जब दर्शक फिल्म को दिल की गहराइयों में जीता है। दंगल से प्रसिद्ध हुए नितेश तिवारी दूसरी फिल्म में भी बहुत धारदार दिखाई दिए हैं। एक ऐसा स्क्रीनप्ले, जिसका हर दूसरा सीन फ्लेशबैक में ले जाता हो, उसका निर्देशन करना कोई आसान काम नहीं होता। यहाँ निर्देशक ने अपना सौ प्रतिशत दिया है।
गौर करने वाली बात ये है कि फिल्म की स्टार कॉस्ट इतनी दमदार नहीं थी कि पहले दिन की भीड़ खींच सके। निर्देशक ‘दंगल’ से सफल हो चुके थे और चाहते तो भारी-भरकम सितारों को लेकर फिल्म बना सकते थे लेकिन कहानी की मांग के अनुसार ही कलाकारों का चयन किया गया है।
हर किरदार को अच्छा फुटेज दिया गया है, यहाँ तक कि कॉलेज के चाय वाले को लेकर भी मनोरंजक दृश्य गढ़े गए हैं।
नितेश जानते हैं कि भारत में युवा वर्ग को कोई कड़वा सन्देश देना हो तो उसे मीठी गोली में लपेटकर दिया जाना चाहिए। कड़वा सन्देश सीधे-सीधे भारतीयों को हज़म नहीं होता।
लिहाज़ा निर्देशक ने पूरी फिल्म को दो हिस्सों में बाँट दिया है। वर्तमान कथा भावुकऔर दुःखद दृश्यों से भरपूर है तो अतीत की कहानी में जबरदस्त हास्य डाला गया है। हॉस्टल वाले दृश्य तो हंसी रुकने ही नहीं देते।
वरुण शर्मा ने संभवतः अपने कॅरियर का सबसे बेहतरीन परफॉर्मेंस ‘सेक्सा’ के किरदार से दिया है। तुषार पांडे और सहर्ष शुक्ला अपनी अदाकारी से चौंकाते हैं। सहर्ष शुक्ला ने बेवड़ा के किरदार में कमाल का अभिनय दिखाया है। सुशांत सिंह राजपूत और श्रद्धा कपूर की कैमेस्ट्री मन भावन है। ये केमेस्ट्री उनकी पिछली फिल्म में दिखाई नहीं दी थी।
छिछोरे युवा दर्शकों के साथ उन दर्शकों को भी देखना चाहिए, जिनकी संतानें प्रतियोगी परीक्षाओं के दौर से गुज़र रही हैं। कुछ उम्रदराज़ दर्शकों को फिल्म की ‘बोल्डनेस’ अखर सकती है लेकिन जो सन्देश निकलकर आता है, वह प्रेरणा लेने योग्य है। इस वीकेंड भरपूर मनोरंजन और सच्ची सीख देती फिल्म देखना चाहते हैं तो ‘छिछोरे’ का टिकट बेहिचक कटाइये। जब आप फिल्म देखकर बाहर आएँगे तो आँखें भीगी पाएंगे और चेहरे पर एक सात्विक मुस्कान होगी, जो निर्मल आनंद से उपजी होगी।