
फिल्म रिव्यू: फार्मूला वाली अलमारी खाली हो चुकी है – पागलपंती
सन 1998 में निर्देशक अनीस बज़्मी ने ‘प्यार तो होना ही था’ बनाकर न केवल बॉक्स ऑफिस पर बादशाहत जमाई थी, बल्कि चार फिल्म फेयर अवार्ड जीतकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की थी। आज वही अनीस बज्मी ‘पागलपंती’ जैसी फिल्म बनाते हैं, जो न केवल दो दिन में ढेर हो जाती है बल्कि साल की सबसे बदतर फिल्मों में शीर्ष की ओर जाने की पूरी गुंजाईश भी दिखाती है। ये तय करना मुश्किल है कि हॉउसफुल:4 और पागलपंती में कौनसी ज़्यादा वाहियात है। अनीस बज़्मी की फार्मूला वाली अलमारी खाली हो चुकी है, सो थिएटर्स में ‘पागलपंती’ चल रही है और दर्शक नहीं हैं।
दरअसल इस समय फिल्म इंडस्ट्री एक बड़े बदलाव के दौर से गुज़र रही है। ‘स्माल टाउन फ़िल्में’ हिट हो रही हैं। छोटे बजट में अच्छी फ़िल्में बनाकर एक सप्ताह में लागत वसूल करने का चलन बढ़ रहा है।आयुष्यमान खुराना और कार्तिक आर्यन जैसे अभिनेता इन छोटी बजट फिल्मों के जरिये दर्शकों के दिलों दिमाग पर छाए हुए हैं और ऐसे में अनीस बज्मी जैसे पुराने चावल बदले ज़माने की चाल चलने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं। फार्मूले बदल रहे हैं। पागलपंती अनीस बज्मी की ही पिछली फिल्मों की ऐसी भेल है, जिसे दर्शक ने चखने से इंकार कर दिया है।
तीन दोस्त राजकिशोर, जंकी और चंदू बिजनेस में पैसा लगाते हैं लेकिन फेल हो जाते हैं। ज्योतिष उसका कारण राजकिशोर की साढ़ेसाती बताते हैं। ये तीनों एक डॉन वाईफाई भाई और राजा साहब के पास चले जाते हैं तो इन लोगों के भी बुरे दिन शुरू हो जाते हैं। इस बेरहम कहानी में तीन अदद हीरोइन और दो बेमज़ा विलेन भी रखे गए हैं, जो किसी भी तरह की अनुभूति नहीं देते। जो तमाशा डेढ़ घंटे में समाप्त हो जाता, उसे तीन घंटे तक खींचकर दर्शकों पर सितम किया गया है। आखिरकार ये साल की सबसे बदतर फिल्म ऐसे ही नहीं बन गई। इसमें भगोड़े नीरव मोदी से प्रेरित एक पात्र क्रिएट किया गया है, जिसका नाम फिल्म में ‘नीरज मोदी’ रखा गया है। यहीं किरदार समूची फिल्म को निगल गया है।
जब चाहा गाना रख दिया, जब चाहा एक्शन सीक्वेंस डाल दिया। यहाँ तक कि फिल्म की शुरुआत ही एक गाने से हो रही है। जॉन अब्राहम ऐसी फिल्मे क्यों करते हैं, जिसमे उनके लिए कुछ होता ही नहीं। अनिल कपूर जैसे सितारे का ऐसा नास होता देख दुःख होता है। वाईफाई भाई का किरदार बेहद कमज़ोर गढ़ा गया है। सौरभ शुक्ला राजा साहब के किरदार में बिलकुल मिसफिट लगते हैं। अभिनेत्रियों का तो ज़िक्र करना ही बेकार है। एक अरशद वारसी थोड़े-बहुत बांधे रखते हैं लेकिन वह फिल्म चलाने के लिए काफी नहीं होगा। तकनीकी गलतियों की तो फिल्म में भरमार है।
बड़े सितारों को लेकर कमज़ोर फ़िल्में बनाने वाले ऐसे निर्देशक ‘स्माल टाउन’ फिल्मों का मुकाबला नहीं कर पा रहे तो इस तरह की फूहड़ता से मैदान जीतने की कोशिशे जारी हैं। अव्वल तो दर्शक फिल्म ख़त्म होने तक थियेटर में नहीं ठहरता और ठहरता भी है तो एक भी यादगार सीन अपने साथ लेकर नहीं आता। ‘पागलपंती’ के लिए टिकट कटाना ही सबसे बड़ी पागलपंती होगी। अनीस बज़्मी जल्द ही अपना ट्रेक नहीं बदलते तो वे एक भुलाया हुआ अतीत बन जाएंगे। बड़े सितारों के सहारे फिल्म चलाना अब पुरानी बात हो गई। अब तो दर्शक कहानी में कंटेंट मांगने लगा है, उसे इस तरह की बचकानी फिल्मों से नहीं ललचाया जा सकता।
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