
फिल्म रिव्यू : थप्पड़ – थप्पड़ ऑडियंस ने निर्देशक को दे मारा है
‘विक्रम के घर पार्टी चल रही है। उसके और सीनियर के बीच तनाव हो गया है। विक्रम की पत्नी अमृता उसे पकड़कर खींचने लगती है और नशे में धुत विक्रम उसे सबके सामने एक थप्पड़ जड़ देता है। ऐसी गलती पर नब्बे प्रतिशत मर्द माफ़ी मांग लेते हैं लेकिन विक्रम निर्देशक अनुभव सिन्हा का क्रिएट किया हुआ किरदार है, इसलिए वह माफ़ी नहीं मांगता। एक उच्च मध्यमवर्गीय परिवार में ये थप्पड़ ऐसा कहर बरपाता है कि लड़ाई अदालत की चौखट तक जा पहुंचती है।’ शुक्रवार को तापसी पन्नू की फिल्म ‘थप्पड़‘ प्रदर्शित हुई और उसका वही हश्र हुआ, जो अनुभव सिन्हा की फिल्मों का होता आया है।
इस देश में महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं, इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता लेकिन विषय भी तो ऐसा होना चाहिए, जो दिल को छू जाए। एक महिला और उसके पति के बीच एक थप्पड़ दूरियां ले आया है। महिला भूल नहीं पा रही कि पति ने सबके सामने उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाई है।अमृता के माता-पिता का मानना है कि एक तमाचे के कारण दूरियां बढ़ा लेना कहाँ तक उचित है। इस फिल्म को देखते हुए मैं समझ नहीं पाया कि निर्देशक इस कहानी को भारत की असंख्य महिलाओं से कैसे रिलेट कर सकता है। ये एक निजी व्यथा हो सकती है लेकिन सबकी कहानी इसमें खोजना नादानी है। ये ‘थप्पड़’ उच्च मध्यमवर्गीय बैकग्राउंड के साथ मैच नहीं करता। इसके लिए निम्न मध्यमवर्गीय बैकग्राउंड होना चाहिए था। निर्देशक को एक ऐसी फिल्म बनानी थी, जिसमे वह तमाम पुरुषों को खलनायक दिखा सके, सो उन्होंने ये काम बखूबी कर दिखाया है।
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फिल्म देखते हुए मुझे इसमें ज़रा भी ‘ग्रिप’ महसूस नहीं हुई। बिखरे हुए किरदारों में कोई केमेस्ट्री नहीं दिखाई देती। अमृता और विक्रम के बीच सहज केमेस्ट्री के दर्शन नहीं होते। ये इतनी ठहरी हुई फिल्म है कि मैंने युवा लड़कियों को बीच में थियेटर से बाहर जाते देखा। समझ रहे हैं न अनुभव सिन्हा, जिनके लिए आपने फिल्म बनाई थी, उन्हें ही पसंद नहीं आई।आप कहानी में कोई ट्विस्ट नहीं डालते, आप अमृता के कोर्ट जाने की स्ट्रांग सिचुएशन नहीं डालते इसलिए अमृता को ‘पड़ा थप्पड़’ भी वास्तविक नहीं लगता। मनोरंजन के नाम पर फिल्म कुछ डिलीवर नहीं कर पाती, जबकि इसके लिए ही तो दर्शक ने 300 रूपये खर्च कर महंगी टिकट खरीदी थी।
निर्देशक के तौर पर अनुभव सिन्हा के खाते में अब तक केवल एक हिट फिल्म आई है और वह सन 2005 में प्रदर्शित हुई थी। ये फिल्म थी अभिषेक बच्चन की ‘दस’। सिर्फ एक हिट फिल्म को लेकर आप कितने चल सकते हैं। अनुभव की पिछली फिल्मों में ‘मुल्क’ और ‘आर्टिकल 15’ भी बॉक्स ऑफिस पर कोई चमत्कार नहीं दिखा सकी थी। थप्पड़ की नाकामी अनुभव को सदा के लिए घर बैठा सकती है। इस फिल्म से न तो अनुभव को कुछ मिलेगा, न तापसी पन्नू को। अनुभव सिन्हा को सोचना चाहिए कि वे दर्शकों की नब्ज क्यों नहीं पकड़ पा रहे हैं।
तापसी पन्नू एक ऐसी अभिनेत्री हैं, जो डेविड धवन की मसाला फिल्म में पहली बार नज़र आई थीं। इसके बाद उनके कदम डार्क सिनेमा की ओर मुड़ गए। 2015 में ‘बेबी‘ के बाद उनकी फ़िल्में नहीं चली हैं। तापसी ने अपनी सामाजिक छवि पर ध्यान नहीं दिया। कई राजनीतिक बयान देने का बुरा असर उनके स्टारडम पर भी हुआ है। ‘थप्पड़’ फिल्म पर भी उसी आंदोलन की काली छाया पड़ गई, जिसकी छाया दीपिका पादुकोण की ‘छपाक’ पर पड़ी थी। एक तो बुरी फिल्म और ऊपर से तापसी की बयानबाजी और तिस पर अनुभव का न झेला जाने वाला निर्देशन ‘थप्पड़’ को ले डूबा। ये थप्पड़ ऑडियंस ने निर्देशक को दे मारा है।
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