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India Speaks Daily > Blog > मीडिया > फिफ्थ कॉलम > विदेशी फंड पर पल रहे NGOs की धुन पर नाचने वाली फरेबी मीडिया ने सोहराबुद्दीन और इशरत के लिए बुना था हमदर्दी का जाल!
फिफ्थ कॉलम

विदेशी फंड पर पल रहे NGOs की धुन पर नाचने वाली फरेबी मीडिया ने सोहराबुद्दीन और इशरत के लिए बुना था हमदर्दी का जाल!

Manish Thakur
Last updated: 2018/05/28 at 9:41 AM
By Manish Thakur 255 Views 19 Min Read
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19 Min Read
India Speaks Daily - ISD News
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वो सन 2003 की हलकी हलकी ठंढ वाली रात थी। अमर उजाला अखबार के दिल्ली ब्यूरो में देर रात की रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी मेरी थी। मैं दफ्तर में अकेला रिपोर्टर था (अखबार में ऐसा ही होता है 12 बजे रात तक आखिरी रिपोर्टर रोज होते हैं)। फोन की घंटी बजी फोन पर मेरे साथी सिनियर क्राईम रिपोर्टर नासिर खां थे। नासिर ने मुझ से कहा सरायकाले खां के पास के मिलेनियम पार्क मे दो आतंकी पुलिस मुठभेर में मारे गए हैं। मैं वहां पहुंच रहा हूं तुम भी पहुंचो फटाफट। मिनट भर के अंदर मैंने अपनी मोटरसाइकिल स्टार्ट की और कुछ ही मिनट में दरियागंज के अपने दफ्तर से मिलेनियम पार्क पहुंच गया। मेरे पहुंचने तक टीवी एक दो कैमरे लग गए थे।

पार्क के अंदर घुसते ही हमें दो लाशे दिखीं जिसके आसपास विदेशी पिस्टल थे। दिल्ली पुलिस ने उन्हें जैश ए मोहम्मद का आतंकी बताय़ा था। गोली नजदीक से लगी थी यह साफ था। हमेशा कि तरह किसी पुलिस वाले को कोई चोट नहीं थी। दिल्ली पुलिस के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट राजबीर सिंह ‘मौका ए वारदात’ पर थे। रिपोर्टरों में आपसी फुसफुसाहट चल रही थी। सब के सब निष्कर्ष पर थे कि बदमाशों को यहां ला कर मारा गया है। दिल्ली मुंबई के क्राईम रिपोर्टरों के लिए ये आए दिन का अनुभव था। मै उस वक्त कोर्ट रिपोर्टर था मेरे लिए यह सब नया था।

गुजरते वक्त के साथ मेरे लिए भी यह सब सामान्य सी बात हो गई। जब मैं दिल्ली में बतौर क्राइम रिपोर्टर देश के सबसे बडे क्राईम शो सनसनी में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी में था कई पुलिस अफसर से खुलकर इस पर बात भी हुई। क्राइम रिपोर्टर और आला पुलिस अधिकारी के बीच जब रिश्ते भरोशे के होते हैं तो सबको पता होता है कि ज्यादातर एनकाउंटर फर्जी होते हैं। हां एक बात पर सहमत हर कोई होते थे कि एनकाउंटर में मारे गए शख्स खूंखार अपराधिक प्रवृति के ही होते थे देश विरोधी गतिविधि में लिप्त रहते थे। पुलिस को आईबी व अपने खुफिया सूत्रो से उन अपराधियों के अपराधिक रिकार्ड के बारे में सब पता होता था। ऐसे ही अपराधियों को निपटाने का जूनून ने दिल्ली पुलिस के एसीपी राजबीर सिहं और मुंबई पुलिस के इंस्पेक्टर दयानायक को हीरो बनाया था। दुर्भाग्य से इन दोनो पुलिस अधिकारियों का अंत बेहद निराशाजनक रहा।

मुद्दे से बिना भटके बता दूं कि दिल्ली और मुम्बई से ज्यादा, एनकाउंटर के रिकार्ड उत्तर प्रदेश पुलिस के रहे हैं। पिछले कई सालों से जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर को छोडकर ज्यादातर राज्यों में एनकाउंटर अब अतीत की बातें हो गई है लेकिन #NHRC के रिकार्ड बताते हैं कि 2004 से 2014 तक उत्तर प्रदेश में 716 एनकाउटंर हुए जिसमे 131 फर्जी थे, महाराष्ट्र में 61 में 17,दिल्ली मे 22 में आठ वहीं गुजरात मे 20 में 12 फर्जी साबित हुए। जम्मू कश्मीर में दस और आसाम में 11 में एक भी फर्जी नहीं थे! आकंड़े हर राज्यों के हैं! सबको पता है कि ज्यादातर एनकाउंटर फर्जी होते हैं लेकिन भारत में सिर्फ 2004 में इशरत जहां और 2005 में सोहराबुद्दीन एनकाउंटर को ही फर्जी साबित करने के लिए पूरी केंद्र सरकार और उसकी पालतू मीडिया और एनजीओ गिरोह ने पूरी जुगत क्यों लगा दी? इस जुगत में किसके हित सधे और किसको इस जुगत से फायदा था यह अहम है जिस पर कभी विचार ही नहीं हुआ।

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दिल्ली में आतंकवादियों के वकील के नाम से चर्चित वकील और हमारे खास मित्र एम.एस खान के पास देश विरोधी गतिविधि में लिफ्त दर्जनो अपराधियों को बरी कराने का रिकार्ड है। दरअसल एमएस अपराधिक प्रवृति वाले लोगों को देश विरोधी गतिविधि में फसा कर अपना केस सुलझा लेने के लिए खुद का पीठ सहलाने वाले पुलिस अघिकारियों की रीढ में खुजली कराने में माहिर हैं। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल कई आतंकियों का एनकाउंटर के दौरान ही कुछ अपराधियों को पकड़ने का भी दावा करती थी। पुलिस का दावा होता था कि ये आतंकी कभी सचिन तेंदुलकर तो कभी अब्दुल कलाम तो कभी भाभा इंस्ट्टूट को उडाने आए थे। खान ने पुसिल फाइल में बंद लश्कर और जैश के उन सभी आतंकियों को बरी करा दिया क्यों पुलिस की कहानी में अक्सर झोल होते थे जिसे एम.एस पकड़ लेते थे। एम.एस अक्सर कहते हैं कि ये सब निर्दोष नही होते लेकिन पुलिस जिस मामले में उन्हे गिरफ्तार करती है उससे अक्सर उनका लेना देना नहीं होता । ऐसे मामले मे पुलिस अक्सर कड़ी जोडने में गलती करती है। एक बेहतर वकील को वहीं से अपने मुवक्किल को बचा ले जाने में महारत होना चाहिए।

लेकिन जैश के जिन आतंकियो के पुलिस मुठभेर में मारे जाने की कहानी हमने उपर आपको बतायी, 2003 के उस एनकाउंटर में जैश के जिस दो आतंकी को पुलिस ने गिरफ्तार किया उसे एम.एस बरी नहीं करा पाए। इसमे नूर मोहम्मद को उम्र कैद हुई बाकि 11साल जेल में बिताने के बाद अपने अच्छे व्यवहार के कारण छोड दिए गए। समझ सकते हैं कि पुलिस के आरोप में कितना दम रहा होगा। जबकि इसी मामले में दो आतंकी को पाकिस्तानी बता कर पुलिस एनकाउटर कर चुकी थी।

घटना स्थल पर मौजूद हम सब रिपोर्टर जानते थे कि पुलिस के इस एनकाउंटर की कहानी में कितना दम है ! लेकिन ‘पेज 3’ फिल्म के हीरो क्राइम रिपोर्टर की तरह हम सब इस सच को मानकर कि मारे गए लोग आतंकी थे जो देश के खिलाफ साजिश रचने आए थे हर रिपोर्टर ने संदेह के उस हिस्से पर पर्दा डाल दिया। “पेज 3” फिल्म का वह सीन याद है न आपको! जब पुलिस जीप में एक हिस्ट्रीसिटर को गिरफ्तार कर ले जा रही होती है , अपराधी बदतमिजी करते पुलिस को धमकाता है तो पुलिस हथकडी में ही उसे जीप से गिरा देती है फिर एनकाउंटर कर देती है। यह दिखाते हुए कि वो पुलिस कस्टडी से भाग रहा था। पीछे मोटरसाइकिल से आ रहे क्राइम रिपोर्टर ने सब देख लिया पुलिस डर गई। हालात देखते हालात देखते हुए रिपोर्टर ने कहा..खबर पूरी छेपेगी। पुलिस और डर गई। तब रिपोर्टर ने कहा लेकिन यह हिस्सा हटा लिया जाएगा।

रिपोर्टर के इस डायलॉग से जहां पुलिस को शुकुन मिलता है वहीं पुरा सिनेमा हाल तालियों से गूंज उठता है। दरअसल यही जनमानस की सोच है जिस जमीनी हकीकत को न समझते हुए कांग्रेस देश के खिलाफ साजिश रचने वालों की हमदर्द हो गई। एक विशाल मुसलिम समुदाय कांग्रेस के इस साजिशपूर्ण हमदर्दी में मरहम तलाशने लगी। गंभीर मामले के अपराधी के लिए सरकार और उसकी पालतू मीडिया का विदेशी फंडेड एनजीओ संग रची साजिश को देश की विशाल मानस ने भांप लिया फिर हीरो वो गया जिसे खलनायक बनाने के लिए देश के खिलाफ साजिश रचने वाले अराधियों को नायक – नायिका बनाने की साजिश रची जा रही थी। जिस एनकाउटंर के हम गवाह है उसमें पकड़े गए जैश के आतंकी नूर मोहम्मद के खिलाफ अपराध को पुलिस ने अदालत में साबित कर दिया।

भारत की सबसे बड़ी अदालत ने भी उसे उम्र कैद का अपराधी माना। हम सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ही सर आंखों पर रखते हैं। लेकिन साजिश करने वाले जब खुद की अदालत को सुप्रीम कोर्ट से भी बड़ा मानकर कानून के राज को नकारते हैं फिर जनता की नजरों से स्वतः गिरते हैं।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक पिछले 14 सालों में देढ हजार से ज्यादा एनकाउंटर हुए। अकेले 2009 से 2014 के बीच यूपीए 2 के दौरान लगभग छह सौ से ज्यादा इनकाउटंर हुए। जिसमें एक भी गुजरात में नही हुए। लेकिन गुजरात में 2004 में इशरत जहां और 2005 में सोहराबुद्दीन एनकाउंटर के अलावा किसी भी मामले पर कभी कोई हंगामा नहीं हुआ। किसी भी एनकाउंटर पर कभी कोई राजनीति नहीं हुई। देश की दो सर्वश्रेष्ठ खुफिया एजेंसी आईबी और सीबीआई को आपस में लड़ाने का काम नहीं हुआ। दोनो जांच एजेंसी को केंद्र की सरकार ने विदेशी फंडो से चलनेवाली एजेंसी और मीडिया को अपनी खुफिया एजेसी को बदनाम करने और हताश करने का खेल नहीं खेला। यह सब सिर्फ गुजरात के एक मुख्यमंत्री को बदनाम करने के लिए। यह बदनामी सिर्फ इस लिए ताकि देश में एक मुश्त मुस्लिम वोट की ठेकेदारी हो सके।

जैसा कि मैने आपको बताया कि देश में जितने भी एनकाउंट हुए उस पर कभी अपनी ही सरकार ने मारे गए आतंकी को संत और शहीद साबित करने का खेल नहीं खेला। इसके लिए अपनी ही सरकार ने अपनी जांच एजेसी के पीछे विदेशी फंडेड एनजीओ और मीडिया को नही छोड़ा। इशरत जहां लश्कर ए तोयबा की आतंकी थी। उसके पति जावेद शेख उर्फ प्राणेश पिल्लेई और साथी जीशान जौहर के मारे जाने पर पाकिस्तान के अखबार गाजबा टाइम्स ने भी छापा था कि लश्कर के तीन आतंकी गुजरात पुलिस ने शहीद कर दिया। 2009 में मनमोहन सरकार ने अपने अलफनामा में इशरत और उसके साथियों को आतंकी बताते हुए मामले की सीबीआई जांच विरोध किया था। लेकिन दो महिने के अंदर ही गृहमंत्री चिदंबरम के दबाव में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा बदल लिया। फिर चिदंबरम के पैसे से चलने वाले एनडीटीवी समेत वामपंथी मीडिया ने इशरत को संत साबित करने का ठेका ले लिया।

गुजरात पुलिस के बहाने नरेंद्र मोदी को घेरने का खेल शुरु हुआ जिसमें गुजरात दंगे में रोटी सेकने वाली तिस्ता सितलवाढ समेत जाबेद अख्तर व प्रशांत भूषण गिरोह ने हिस्सा लेना शुरु कर दिया।

केंद्र सरकार की खुफिया एजेसी आईबी के इनपुट के मुताबिक ईशरत जहां लश्कर के आत्मघाती दस्ते की महिला सदस्य थी। जो गुजरात के तत्कालिन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर आत्मघाती हमला करने आई थी। आईबी के संयुक्त निदेशक राजेंद्र सिंह की टीम इस इनपुट पर काम कर रही थी। हद तो यह कि संत बनाई जा रही लश्कर की आतंकी इशरत की मां की चाह पर राजेंद्र सिंह के प्रतिद्वंदी रहे सीबीआई के अधिकारी सतीश वर्मा को इशरत का केस दिया गया ताकि राजेंद्र सिंह पर नकेल कसा जा सके। देश के इतिहास में सीबीआई के अधिकारी चयन करने के लिए अपराधी के परिजन की चाह का ख्याल रखने का यह अनोखा मामला था।

इसी घटना के बाद आईबी के निदेशक एक मुसलमान को बनाया गया जिसकी मार्केटिंग खुद गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने करते हुए कहा “सोनिया जी के कारण ही एक मुसलमान देश का आईबी निदेशक बना।” यह सब पूरा खेल सिर्फ इशरत जहां को संत साबित कर मोदी पर नकेल कसने के लिए ताकि पूरे देश की मुस्लिम आबादी कांग्रेस के एहसान को मान सके इसके लिए कांग्रेस सरकार में प्रभावशाली मंत्री रहे पी.चिदंबरम के पैसे से चलने वाले एनडीटीवी ने कोई कसर नहीं छोडी थी। कोई ऐसा दिन नहीं होता था जिस दिन एनडीटीवी पर इशरत जहां को लेकर रिपोर्ट नहीं होता था। यह सब तब जब इशरत जहां पर भारत की सबसे बड़ी खुफिया एजेसी की रिपोर्ट साफ थी! ।

देश में दुसरा एनकाउंटर सोहराबुद्दीन शेख का था। जिसे भुनाने के लिए वही एनजीओ वही एनडीटीवी गिरोह अपनी ही सरकार के खुफिया एजेसी के रिपोर्ट को गलत साबित करने में लग गई। आजाद भारत में ऐसा कोई एनकाउंटर नहीं जिसे फर्जी साबित करने के लिए अरब से चलने वाली एनजीओ और एनडीटीवी जैसी देशी मीडियी ने पूरी उर्जा लगा दी। एक आम धारणा थी कि भारत का आम मुसलमान इशरत और सोहराबुद्दीन में खुद को देखने लगा। आतंकी को संत और शहीद मानकर इसे खुद के उपर अत्याचार मानने लगा। बहुसंख्य मुसलमान गुजरात दंगा के लिए मोदी को दोषी मानते हुए उनसे इस कदर नफरत करने लगे कि आतंकी इशरत और सोहराबुद्दीन की हमदर्दी में दीवाने होने लगे। यह जानते हुए कि इशरत की तरह सोहराबुद्दीन भी आतंकी था।

सोहराबुद्दीन को महाराष्ट्र,एमपी व गुजरात समेत पांच राज्यों की पुलिस तलाश रही थी। मध्यप्रदेश के उज्जैन जिला का हिस्ट्रीसशीटर सोहराबुद्दीन 26 नवंबर 2005 को अहमदाबाद मंश गुजरात पुलिस के हाथों एनकाउंटर में मारा गया। सोहराबुद्दीन पर 90 के दशक में हथियारों की तस्करी के कई आरोप थे। पुलिस ने 1995 में उसके घर से एक दो नहीं 40 एके 47 पुलिस ने बरामद किया था। 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद वो दाउद इब्राहिम के गुर्गे शरीफ खां पठान के लिए काम करने लगा था। मस्जिद गिरने का बदला लेने के लिए बरामद एके 47 पाकिस्तान के करांची से गुजरात के रास्ते अपने गांव ले गया जिसे उसके गांव में कुआं से बरामद किया गया। गुजरात पुलिस के मुताबिक सोहराबुद्दीन राज्य के मार्बल और हीरा व्यापारियों से फिरौती के लिए कुख्यात था। यह सब काम वो करांची में बैठे अपने आका शरीफ खां के लिए करता था. इस मामले में महाराष्ट्र पुलिस को भी सोहराबुद्दीन की तलाश थी।

पांच राज्यों की पुलिस द्वरा घोषित भगौडा जब गुजरात पुलिस के एनकाउंटर में मारा गया तो उसे शहीद साबित करने का खेल शुरु हुआ। हद तो तब हुई जब इस मामले को सीबीआई को सौंपने लिए पूरा एनजीओ गिरोह खुद केंद्र की सरकार ने पूरी ताकत लगा दी और इसके लिए सुप्रीम कोर्ट का सहारा लिया गया। सीबीआई द्वारा पीएफ घोटाले में आरोपी चल रहे जस्टिस तरुण चटर्जी ने अपने रिटायरमेंट से एक दिन पहले इस मामले को सीबीआई को सौंप दिया। यह भी भारतीय न्यायिक इतिहास का अनोखा मामला था। हद तो यह है कि एनकाउंटर के किसी मामले में देश में पहली बार किसी राज्य के गृह मंत्री को आरोपी बनाकर न सिर्फ गिरफ्तार किया गया बल्कि उसे अपने ही राज्य में इंट्री पर रोक लगा दी गई। इसके लिए केंद्र सरकार के मंत्री के पैसे चलने वाली एनडीटीवी ने सोहराबुद्दीन को शहीद बनाने के लिए लगातार फरेब की रिपोर्टिंग की।

[embedyt] https://www.youtube.com/watch?v=jZ8bhW1_BjU[/embedyt]

विदेशी फंडिग की एनजीओ,सरकारी फंडेड मीडिया और सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सोहराबुद्दीन मामले की जांच करने वाली केंद्र सरकार की एजेंसी सीबीआई भी सालों मशक्कत के बाद सोहराबुद्दीन को शहीद साबित नहीं कर पाई। सुप्रीम कोर्ट ने जब इस मामले में अपना फैसला दे दिया तो वामी पत्रिका कारवां और प्रणय जेम्स राय के एनडीटीवी ने पतीतपना का ऐसा खेल खेला जिसकी मिसाल नहीं। मामले के जिस जज की हर्ट अटैक से तीन साल पहले एक गेस्ट हाउस में मौत अपने साथी जजों के सामने हो गई थी उसकी कब्र सिर्फ सोराबुद्दीन को फिर शहीद साबित करने के लिए खेला। सालों से एक व्यक्ति के खिलाफ नफरत का बाजार चलाने की साजिश करने वालों उसी व्यक्ति को देश का हीरो बना दिया जिसे वो अपराधी साबित कर नष्ट कर देना चाहते थे। फिर सवाल लाजमी है कि जब सोहराबुद्दीन पांच राज्यों की पुलिस का वांटेड भगौड़ा था।

पाकिस्तान मे बैठे अपने आका दाउद के भाई के लिए काम कर रहा था। जब आईबी के इनपुट के मुताबिक इशरत फिदाइन थी जो जनता के चुने नेता की हत्या की साजिश व धार्मिक स्थलों को नष्ट करने की साजिश की हिस्सेदार थी उसके लिए भारत के बहुसंख्य मुसलमानो में इतनी हमदर्दी क्यों थी ? यदि मुसलमानो के बहुसंख्य समाज में सोहराबुद्दीन और इशरत जैसे आतंकियो के लिए हमदर्दी न होती तो क्या ये जुगत केंद्र की सरकार और उसकी फरेबी मीडिया विदेशी फंडेड एनीजीओ संग इतना पसीना बहाती?

सवाल अहम यह है कि इसका सौवां हिस्सा भी एनकांउटर के शिकार किसी और अपराधी के लिए कभी क्यों नहीं हुआ जो सोहराबुद्दीन व इशरत जैसे कुख्यात अपराधी के लिए हुआ। जबकि यह अघोषित सत्य है कि ज्यादातर एनकाउटंर फर्जी ही होते हैं। जब चीजें साफ हो गई है तो वोट बैंक की राजनीति के लिए देश की सुरक्षा से खेलने के इस खेल से पर्दा हटना चाहिए। इस खेल के शिकार और शिकारी हर किसी को इस पर चिंतन करना चाहिए। यदि वो इसे एक हार ही मानते हैं तो यह सोच कर कि हर हार एक सबक हैं। लोकतंत्र में जनता तो अपने आदेश से ही सबक देती है।

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TAGGED: foreign funds NGOs, Ishrat Jahan encounter case, Left-wing Media
Manish Thakur December 6, 2017
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