यह सच है कि हम स्वाधीन हैं
अर्थात हम “स्व” के आधीन हैं
लेकिन आखिर यह स्व है कौन
नश्वर तन या फिर यह चपल मन
कदाचित इन दोनों में कोई नहीं है
“स्व” तो हमारी अजर-अमर आत्मा है
नियामक जिसका अनंत-अगोचर परमात्मा है
इसलिए हम निरंकुश कदापि नहीं हैं
स्पष्ट है कि हम ईश्वर के आधीन हैं
अपने जीवन के लिये हम ईश्वर व प्रकृति पर निर्भर हैं
अत: हमारी आज़ादी की सीमाएं हैं
जैसे सूर्य का नियत समय पर उगना
अनासक्त ऱह पृथ्बी पर जीवन देना
न कि आसक्ति के ताप से जीवन झुलसाना
जैसे सागर का मेघिल उच्छवास से जल बरसाना
और धरती पर जीवन की प्यास बुझाना
न कि आसक्ति के आगोश में जीवन डुबोना
जब कभी आज़ादी की सीमा का होगा उल्लंघन
बिगड़ जायेगा सृष्टि का सूक्ष्म संतुलन
प्रकृति नहीं करेगी इसको सहन
और आहत होगा निरीह जीवन
अत: हमें आज़ादी की सोच को सवारना होगा
प्रकृति व ईश्वर के और निकट आना होगा
कोमल मानवीय संवेदनाओं को छूना होगा
धर्म व कर्म का सही मर्म समझना होगा
इस संसार में कर्मफल का सिद्धांत सत्य और अटल है
जैसा बोया जाता है बीज वैसी ही कटती फसल है
अत: आज़ादी की सतत अभिव्यक्ति के लिये
हमें प्रकृति के साथ चलना होगा
यह बाजारू अति भोगवाद छोड़कर
प्रकृति के नियमों का अनुपालन करना होगा
अधिकार और कर्तव्य के बीच में
एक सही ताल-मेल बिठाना होगा
मानवता को ही स्वधर्म बनाकर
कमल सा निर्लिप्त हो कर
इस जगत में हमको रहना होगा
तभी धरती पर हमारा जीवन सुरक्षित रह पायेगा
तभी हमारी आज़ादी को भी
एक परमअर्थ मिल पायेगा
राधा कृष्ण उनियाल