विपुल रेगे। असग़र वजाहत के नाटक ‘गोडसे@गांधी.कॉम’ पर आधारित ‘गाँधी-गोड़से : एक युद्ध’ महात्मा गाँधी और नाथूराम गोड़से का काल्पनिक संवाद दिखाती है। इस काल्पनिक संवाद में आज़ादी के बाद का भारत बैकग्राउंड की तरह उभरता है। निर्देशक राजकुमार संतोषी की ये फिल्म ऐतिहासिक अनिवार्यता को यथावत रखते हुए गाँधी के कद को हिमालय की तरह रख गोड़से को उस हिमालय की तलहटी में खड़ा एक चीड़ का वृक्ष बना देती है।
गाँधी पर एक ईमानदार फिल्म बना लेना ऐसा ही है, जैसे एक फिल्म निर्देशक को ‘मोक्ष’ प्राप्त हो जाना। हालांकि राजकुमार संतोषी को ‘मोक्ष’ प्राप्त नहीं हुआ है। असग़र वजाहत ने ‘गोडसे@गांधी.कॉम’ सन 2011 में लिखा था। ये नाटक स्वतंत्रता पश्चात के भारत का वर्णन करता है। नाटक में असग़र ने एक नया प्रयोग करते हुए कथा को बदला। उन्होंने नाटक में दिखाया कि गोड़से द्वारा किये गए हमले के बाद गाँधी बच जाते हैं।
गाँधी बचने के बाद नाथूराम से मिलने की इच्छा जताते हैं। कांग्रेस की सरकार के निर्णयों के विरुद्ध भी वे खड़े हो जाते हैं। एक दिन ऐसा आता है, जब आवाज़ उठाने पर गाँधी को जेल भेजा जाता है, जहाँ वे नाथूराम के साथ रहते और वैचारिक जुगलबंदी करते हैं। मुख्यतः ये नाटक गाँधी और गोड़से के काल्पनिक संवाद पर आधारित है। निर्देशक राजकुमार संतोषी ने नाटक को फिल्म में जस का तस पेश किया है।
यहाँ उन्होंने कोई सिनेमेटिक लिबर्टी नहीं ली है। गांधी एक ऐसे ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं, जिन पर फिल्म बनाने को लेकर कोई निर्देशक सिनेमेटिक लिबर्टी नहीं ले सकता। जिस ढंग के गांधी फिल्म में दिखाए गए हैं, उससे स्पष्ट होता है कि असग़र वजाहत के आज़ादी के बाद के गांधी ‘नितांत यूटोपियाई’ थे। फिल्म की रिलीज से पूर्व गाँधी के नियमित विरोधी इस भ्रम में रहे कि फिल्म गोड़से का कद ऊंचा दिखाएगी।
हालाँकि फिल्म रिलीज होने के बाद पता चला कि ये पेशकश भी गाँधी की महानता का बखान करती है। गाँधी और गोड़से की बातचीत में गाँधी का कद ही ऊंचा किया गया है। नाथूराम गोड़से के ज्वलंत प्रश्न गाँधी के महिमामंडन में कहीं छुप जाते हैं। चिन्मय मंडलेकर ने नाथूराम की भूमिका निभाई है और गाँधी का किरदार दीपक अंतानी ने निभाया है। दीपक गाँधी के किरदार में घुसने में असफल रहे हैं।
अब तक कई अभिनेताओं ने गाँधी की भूमिका को परदे पर जीवंत किया है और उनमे बेन किंग्सले आज भी सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। चिन्मय मंडलेकर ने अच्छा अभिनय किया है। अभिनय में वे दीपक से अधिक प्रभावी दिखाई दिए हैं। पिछले दिनों फिल्म को लेकर कहा गया कि इसमें ‘संघी एजेंडे’ का प्रचार किया गया है लेकिन फिल्म देखने के बाद ये बात गलत सिद्ध होती है। राजकुमार संतोषी ने पूर्णतया ‘गांधीगिरी’ दिखाई है।
उन्होंने असग़र वजाहत के लिखे को फॉलो करते हुए नाथूराम का किरदार अजीब सा बनाया है। ये वाला नाथूराम बात-बात पर गुस्सा हो जाता है। वह असहनशील दिखाया गया है। वजाहत के नाटक में नाथूराम का हृदय परिवर्तन होते दिखाया गया है। ये वजाहत की कोरी कल्पना ही है, कि गोड़से गाँधी के विचारों को मानने लगते हैं। ये फिल्म अंततः गांधीवादियों को संतुष्ट करेगी।
संतोषी ने अपनी फिल्म में कहीं भी गांधीवाद आहत नहीं होने दिया है। ये फिल्म कुछ गांधीवादियों को पसंद आ सकती है लेकिन आम दर्शकों को निराश ही करेगी। फिल्म मेकिंग में संतोषी चूक गए हैं। फिल्म देखते हुए ऐसा लगता है कि स्टेज पर नाटक देख रहे हो। इसमें से फिल्म वाली ‘फ़ीलिंग’ आती ही नहीं है। बीस करोड़ की लागत से बनाई गई ”गाँधी-गोड़से : एक युद्ध’ पहले दिन ही टिकट खिड़की पर दम तोड़ गई है।
इसकी लागत वापस आएगी, इसमें संदेह है। राजकुमार संतोषी की ये फिल्म महात्मा गाँधी पर बनी बीसियों फिल्मों में स्थान पा जाए, इतना दम नहीं रखती।