रे भारत मैं तेरी बेटी,तुलसी तेरे आँगन की,
जन जन की भाषा हूँ,परिभाषा हूँ सत्य सनातन की,
सकल विश्व का संवर्धन हूँ,दुविधा का निस्तारण हूँ,
नवजातों के मुख से निकला मैं पहला उच्चारण हूँ,
तुलसी के मानस का दर्पण,गीता का सम्बोधन हूँ,
मैं रहीम की दोहावलि हूँ,कबिरा का उद्बोधन हूँ,
कृष्ण प्रेम हूँ रसखानों का,मीरा की परिपाटी हूँ,
भक्ति मार्ग पर विचरण करते सूरदास की लाठी हूँ,
मैं दिनकर का इंकलाब हूँ,जय शंकर की छाया हूँ,
प्रेमचंद का गाँव,महादेवी की निर्मल काया हूँ,
मातृभूमि का हूँ सिंगार मैं तीन रंग की चोली हूँ,
सत्तावन से सैतालिस तक आज़ादी की बोली हूँ,
मेरी गरिमा,मान मेरा,अपनों ने ही बिसराया है,
नए दौर के चाल चलन ने मुझको ही ठुकराया है,
भारत हुआ इंडिया,सबको बहुत परायी लगती हूँ,
अंग्रेजो की अंग्रेजी से आज सताई लगती हूँ,
नए ज़माने की माताएं,होड़ लगाने वाली हैं,
अंग्रेजी की मैराथन में दौड़ लगाने वाली हैं,
माँ से मम्मा कहलाने में ज्यादा अच्छा लगता है,
और पिता को डैडी कहना ज्यादा सच्चा लगता है,
ट्विंकल ट्विंकल रटा रहे हैं,चन्दा मामा दूर हुए,
जॉनी जॉनी यस पापा भी हर घर में मशहूर हुए,
हल्लो हाय मची पड़ी है,और नमस्ते छूट गया,
जिंगल बैल बजी,दादी का उड़न खटोला टूट गया,
हिंदी फिल्मो से जिनकी मैं रोटी दाल चलाती हूँ,
उन्ही हिरोइन हीरों के हाथो से मारी जाती हूँ,
जिस हिंदी को बोल करोङो रुपये रोज कमाते हैं,
वो अपनी दिनचर्या में उस हिंदी को खा जाते हैं,
हिंदी है सम्मान वतन का,बस फ़िल्मी व्यापार नही,
जो हिंदी ना बोले उसको अभिनय का अधिकार नही,
ये गौरव चौहान कहे,भारत की सब संतानो से,
निज भाषा की उन्नति सीखो चीन और जापानों से,
मैं हिंदी,घायल हूँ,खुद ही ज़ख्मो को सहलाती हूँ,
मुझको मेरा मान दिला दो,मैं झोली फैलाती हूँ,
रचनाकार- कवि गौरव चौहान