टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व संपादक दिलीप पडगांवकर की आज मृत्यु हो गई। पत्रकारों का फेसबुक वॉल उन्हें श्रद्धांजलि देने से भरा पड़ा है। वह एक वरिष्ठ पत्रकार थे, उन्हें पत्रकारों की ओर से श्रद्धांजलि मिलनी ही चाहिए! लेकिन भारतीय परंपरा श्रद्धांजलि समाज के हित में काम करने वालों को देती है, समाज के विरुद्ध कर्म करने वालों को नहीं! मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो किसी की मौत पर उसकी हर गलती को भूल कर ‘वह बहुत अच्छे इंसान थे’ का झूठ बोलता हो! यह कर्म प्रधान देश है। इसीलिए मैं लोगों से अधिक उनके कर्म को याद रखता हूं! दिलीप पडगांवकर जैसे अभिमानी व पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के पैसे पर भारत की कश्मीर नीति को प्रभावित करने वाले पत्रकारों के लिए मेरे मन में कोई सम्मान नहीं है!
दिलीव पडगांवकर 1988 में टाइम्स ऑफ इंडिया कें संपादक बने थे। संपादक बनते ही उनके सिर पर सबसे बड़े पत्रकार और संपादक होने का अभिमान चढ़ आया था। उनका मशहूर कथन था- “भारत में प्रधानमंत्री पद के बाद सबसे महत्वपूर्ण पद टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक का है!” उनके इस कथन में अहंकार का टंकार था! भारत की विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और भारत की आम जनता के प्रति इसमें हिकारत का भाव था!
देश से बड़ा कोई मीडिया हाउस या पत्रकार नहीं हो सकता, लेकिन दिलीप पडगांवकर को यह गुमान था कि टाइम्स ऑफ इंडिया ही देश है और वह देश चलाने वाले दूसरे महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं! बाद में टाइम्स ऑफ इंडिया के मैनेजमेंट ने संपादकों की हैसियत ब्रांड मैनेजर के पिछलग्गू की बना दी और यही दिलीप पडगांवकर जैसे पत्रकारों के अहंकार पर असली चोट था, जो एक पत्रकार होने के बावजूद आम जनता को कीड़े-मकड़े से अधिक नहीं समझते थे। बाद में TOI मैनेजमेंट ने संपादकों को कीड़े-मकोड़े होने का ऐहसास अच्छी तरह से करा दिया!
पद से हटकर भी दिलीप पडगांवकर का देश और देश की जनता के प्रति हिकारत का भाव नहीं गया! मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने कश्मीर मुद्दे पर उन्हें वार्ताकार बनाया था। कश्मीर मुद्दे पर उन्हें अलगाववादियों से बात करनी थी, लेकिन वह तो पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के पक्ष में कश्मीर मुद्दे को मोड़ने में जुटे थे!
वर्ष 2011 में अमेरिका ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ISI के एजेंट गुलाम नबी फई को गिरफ्तार किया था। गुलाम नबी फई कश्मीर अमेरिकन काउंसिल के जरिए आईएसआई के पैसे पर पूरी दुनिया में कश्मीर के लिए लॉबिंग करता था और उसे पाकिस्तान का हिस्सा बताने और साबित करने के लिए सभा-सेमिनार से लेकर बैठकों का आयोजन करता था। उन वैश्विक सभा-सेमिनार में भाग लेने वालों के विमान से आने-जाने, पांच सितारा होटल में रहने-ठहरने, खाने-पीने और खरीददारी तक का खर्च आईएसआई उठाती थी। आरोप है कि कश्मीर पर वार्ताकार श्रीमान दिलीप पडगांवकर आईएसआई के पैसे पर कश्मीर को पाकिस्तान के पक्ष में बताने वाले सभा-सेमिनारों में भाग लेते और उसमें भाषण देते थे! भारत सरकार द्वारा कश्मीर पर वार्ताकार नियुक्त होने के बावजूद दिलीप पडगांवकर के पेपर एवं भाषणों का झुकाव कश्मीरी अलगाववादियों के पक्ष में होता था और यही ISI की असली जीत थी!
अमेरिका द्वारा गिरफ्तार किए जाने पर गुलाम नबी फई ने उन भारतीय बुद्धिजीवियों, समाजसेवकों और पत्रकारों का नाम लिया, जिसे वह कश्मीर पर पाकिस्तानी लॉबिंग के लिए इस्तेमाल करता था! आरोप है कि उसमें एक दिलीप पडगांवकर भी थे! अमेरिका ने इन बड़े भारतीय लॉबिस्टों का नाम तत्कालीन मनमोहन सरकार को दिया था, लेकिन मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने इनसे पूछताछ तक नहीं किया!
आरोपों के मुताबिक ISI के ‘पे-रोल लॉबिस्टों’ में दिलीप पडगांवकर के अलावा पत्रकार व तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार हरीश खरे, कभी इंडियन एक्सप्रेस के संपादक रहे कुलदीप नैयर, गौतम नवलखा, इंडिया टुडे ग्रुप के हरिनदर बवेजा, कश्मीर टाइम्स के वेद भसीन, रीता मनचंदा, अल्पसंख्यकों को लेकर यूपीए सरकार द्वारा गठित सच्चर कमेटी के प्रमुख जस्टिस राजेंद्र सच्चर, अलगाववादी मीरवाइज उमर फारूक व यासीन मलिक, सामाजिक कार्यकर्ताओं में- गेरुआ वस्त्रधारी व अन्ना आंदोलन वाले स्वामी अग्निवेश, रेमॉन मेग्सेसॉय अवार्डी संदीप पांडे, अखिला रमन, बड़े तथाकथित बुद्धिजीवियों व प्रोफेसरों में अंगना चटर्जी, कमल मित्र चिनॉय जैसे बड़े भारतीय नामों का खुलासा गुलाम नबी फई ने किया था।
इन सभी से जब कभी किसी ने पूछा, इनका यही जवाब होता था कि इन्हें नहीं पता था कि गुलाम नबी फई आईएसआई का एजेंट था! जिन पत्रकारों पर देश के सामने सच्ची खबर लाने की जिम्मेदारी होती है, वही यदि कहें कि उन्हें यह नहीं पता था कि वह किसके पैसे पर विदेशों में घूम रहे थे, किसके पैसे पर पांच सितारा होटलों में ठहर रहे थे और किसके पैसे से खरीददारी कर रहे थे तो यह क्या विश्वास करने लायक है?
इन्हें कम से कम अपने लिखे और बोले शब्दों के बारे में तो पता ही होगा कि ये लोग कश्मीर पर पाकिस्तान की लाइन लेते हुए भारतीय अलगाववादियों के पक्ष में हर सभा-सेमिनारों में बैटिंग किया करते थे! अब ऐसे लोगों में शामिल दिलीप पडगांवकर को आज के पत्रकार दे दना-दन श्रद्धांजलि दिए जा रहे हैं! या तो आज के पत्रकार दिलीप पडगांवकर जैसे ही ताकतवर लॉबिस्ट बनने की हसरत रखते हैं या फिर उन्हें इनकी सच्चाई ही पता नहीं है!
भारतीय परंपरा में राष्ट्र के खिलाफ जाने वालों को श्रद्धांजलि देने का रिवाज नहीं है! मेरे लिए दिलीप पडगांवकर, कुलदीप नैयर, हरीश खरे जैसे पत्रकार कभी सम्मानित नहीं हो सकते! मैं इनकी मृत्यु पर भी झूठी संवेदना व्यक्त नहीं कर सकता, क्योंकि मेरे व्यक्तित्व में झूठ कहीं नहीं है! सच कड़वा होता है, इसलिए कुछ लोगों, खासकर पत्रकारों को यह लेख कड़वा डोज जैसा लगेगा!
that is not a private matter of anyone this is a matter of followers of ashutosh maharaj. they have faith on his guru”he will return from samadhi.and most important this is that they were not create any violation they they Peace fully want to their human rights