मूवी रिव्यू : गुल्लक (सीजन -2)
गुल्लक ‘लार्जर देन लाइफ’ नहीं होती। मिट्टी की गुल्लक में मध्यमवर्गीय सपनें बंद होते हैं, इस आस में कि किसी दिन गुल्लक टूटे और ख़्वाब पंख लगाकर उड़ जाए। मध्यमवर्गीय कहानियां मिट्टी की सौंधी महक लिए होती हैं। वह जो भारत अप्पो और वीवो के होर्डिंग के पीछे खो गया है, उसकी सच्ची तस्वीर कभी-कभी गुल्लक तोड़कर बाहर निकल आती है।
निर्देशक पलाश वासवानी की ये वेब सीरीज कोई विशेष कथानक प्रस्तुत नहीं करती। ये तो भारत के घर से निकल आई मासूम सी कथा लगती है, जिसे बॉलीवुड की लार्जर देन लाइफ कहानियां देखकर शर्मा सी गई हैं। इस कहानी में एक परिवार है। संतोष मिश्रा के परिवार की कहानी बहुत साधारण सी है लेकिन इसके ताने-बाने रेशम से बुने गए हैं। इसमें कोई बॉलीवुडिया ट्विस्ट नहीं है।
घर से दो पहिया पर बिजली विभाग में नौकरी के लिए जाता संतोष मिश्रा है। संतोष का बेटा अन्नू मिश्रा पढ़ाई में असफल रहा तो अब एक नेता की सेवा कर गैस एजेंसी का लाइसेंस पाना चाहता है। अन्नू का छोटा भाई अमन दसवीं का छात्र है। माँ शांति मिश्रा का समय चिड़िया के दाने जितने वेतन को फैलाने में ही निकल जाता है। पांच एपिसोड की वेब सीरीज की कहानियों के शीर्षक पर गौर कीजिये। ‘बिजली का बिल’, चीनी कम पानी ज़्यादा, ‘सपरिवार’, ‘कल बोर्ड का पेपर है’, ‘किराना’।
इनके शीर्षक से ही पता चल जाता है कि ये हमारी आम ज़िंदगियों से जुड़ी कहानियां हैं। लेखक दुर्गेश सिंह ने इन कहानियों में मध्यमवर्गीय परिवार की समस्याएं, उनकी मानसिकता, उनके आपसी प्रेम की शक्ति को दर्शाया है। वे बड़ी बारीक़ लकीर पकड़ते हैं। जैसे ‘सपरिवार’ में संतोष का साला पत्रिका में नाम लिखने में जानबूझकर गलती करता है। इसका बदला परिवार के केवल एक सदस्य को विवाह में भेजकर लिया जाता है। आयुष्यमान खुराना की फिल्म ‘बधाई हो’ से फिल्मों में मध्यमवर्ग की सशक्त वापसी हुई थी।
दक्षिण भारतीय फिल्मों के रीमेक बनाते-बनाते बॉलीवुड भूल ही गया कि इस देश में एक मध्यमवर्ग भी रहता है। इस वर्ग की देश में क्या दशा है, बताने की आवश्यकता नहीं है। ‘गुल्लक-2’ बॉलीवुड को एक अध्याय सिखाने में सफल रही है। फिल्म बनाने के लिए साउथ की रीमेक और सौ करोड़ लेने वाले अक्षय कुमार की आवश्यकता नहीं है। आपकी फिल्म में कंटेंट हो, दर्शक को छूने की ताकत हो तो उसे सफल होने से कोई नहीं रोक सकता।
आधे-आधे घंटे के ये पांच एपिसोड आपको मनोरंजन के साथ एक गहन शांति का अनुभव कराते हैं। ज़मील ख़ान, गीतांजलि कुलकर्णी, वैभव राज गुप्ता, हर्ष मायर और सुनीता राजवर ने स्वाभाविक अभिनय दिखाया है। इनमे मुझे वैभव राज गुप्ता में भविष्य का सितारा दिखाई देता है। ये एक सामान्य सी, सुंदर सी कहानी है, जिसे निर्देशक पलाश वासवानी ने अपने स्वर्णिम स्पर्श से असाधारण बना दिया है।
फिल्म के अंत में फैमिली फोटोग्राफ के समय फोटोग्राफर कहता है ‘फोटो ठीक नहीं आ रही, कुछ गड़बड़ है’। संतोष देखता है कि उसका बड़ा बेटा कुछ दूर खड़ा है। संतोष उसे खींचकर पास सटा लेता है। निर्देशक संकेत देता है कि मध्यमवर्गीय परिवारों में अनबन को गहरी खाई में नहीं बदलने दिया जाता। ऐसे ही सुंदर दृश्यों से परिपूर्ण है ये फिल्म।
निर्देशकीय कौशल देखिये। पलाश आपको ‘शीर्षक गीत’ से ही कहानी में उतार लेते हैं। इस सुंदर गीत के साथ परदे पर मध्यप्रदेश के भोपाल के दृश्य उभरते हैं। गलियों में दौड़ते बच्चें, छज्जे पर सूखती साड़ियां, पूरा पेस्ट निकालने की जुगत में काटकर रखा गया पेस्ट, जालों से लिपटे हुए बिजली के खंबे, छत पर सूखती मिर्ची और पापड़, पाइप से लटक रही फटी हुई पतंग।
इन छोटे-छोटे शॉट्स के साथ एक गीत चलता है ‘कभी अक्कड़ थी, कभी बक्कड़ थी, कभी टेढ़ी थी, कभी मेढ़ी थी, घुल जाए तो इलायची, घिस जाए तो अदरक थी’। इस गुल्लक में रोज़ के अफ़साने हैं। ये फिल्म देखते हुए आँखों से जो आंसू झलकेंगे, उन्हें आप मन की गुल्लक में जमा कर सकते हैं। निर्मल आनंद के कुछ सिक्के इस गुल्लक में रोज़ डाले जाए, ज़िंदगी भला और क्या चाहेगी।