नीले आसमान के नीचे, सुनसान छत पर,
भरी दोपहरी में, एकदम से अकेला,
हवा की सांय-सांय जब कानों से टकराती है,
तो एहसास होता है, यह गांव है,
कोलाहल से दूर, यहां सुकून की छांव है,
यह मेरा घर है, यह मेरा गांव है।
काश! मैं कोई पंछी होता,
कभी यहां फुदकता, कभी वहां फुदकता,
कभी इस दीवार पर बैठता, कभी उस दीवार पर बैठता,
कभी घर के पास वाले बरगद की डाल से कुहकता,
गुजरते राहगीरों से पूछता,
क्या कहीं ऐसा पड़ाव है?
यही मेरा घर है, यही मेरा गांव है ।
चला जाऊंगा एक दिन,
दिल्ली का फिर से हो जाऊंगा एक दिन,
मेट्रो की भीड़ में, काम के बोझ में,
जिंदगी की आपाधापी में, कर्तव्यों की तपिश में,
आंखें उठाकर देखूंगा,
न वहां मेरा घर है, न वहां मेरा गांव है ।