विपुल रेगे। द फैमिली मैन का नायक श्रीकांत तिवारी पत्नी और बच्चों को खुश करने के लिए टॉस्क फ़ोर्स की नौकरी छोड़ दस से पांच की नौकरी करने लगा है। इसके बावजूद पत्नी खुश नहीं है। पगलैट फिल्म की नायिका संध्या अपने पति की मौत के एक सप्ताह बाद बाज़ार में गोलगप्पे खाने गई है। करण जौहर की फिल्म गुंजन सक्सेना :द कारगिल गर्ल को लगता है कि वायुसेना के साथी अफसर और वरिष्ठ उससे इसलिए चिढ़ते हैं क्योंकि वह एक लड़की है। भारतवर्ष पर थोपा गया ये एक नए किस्म का नारीवाद है। ओटीटी पर प्रदर्शित होने वाली हर चौथी फिल्म इसी नारीवाद से ग्रसित है। नारी स्वतंत्रता या नारीवाद की परिभाषा भारत में शेष विश्व से अलग है। यहाँ फ़टी जींस पहनकर सिगरेट फूंकना भी एक किस्म का नारीवाद है।
भारत की पहली नारीवादी घोषित रुप से सावित्री बाई फुले थी। सन 1831 से लेकर 1897 तक वे महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्षरत रहीं। इन्होने ही देश में लड़कियों के लिए पहला स्कूल शुरु किया था। इनके बाद ताराबाई शिंदे और पंडित रमाबाई का नाम भी उल्लेखनीय है। इन्होंने ब्रिटिश भारत में नारी स्वतंत्रता और शिक्षा के लिए काम किया। ये वह समय था जब नारीवाद अपने सच्चे अर्थों में उपस्थित था।
सत्तर के दशक तक आते-आते नारीवाद भ्रष्ट होता चला गया। अब अमृता प्रीतम का स्वछन्द प्रेम कथाओं का लेखन भी नारीवाद की श्रेणी में आ गया था। यहीं से नारीवाद को वामपंथ ने डँसना शुरु किया। दहेज़ प्रथा को लेकर फिल्मों में कड़े प्रहार किये गए, जो आने वाले वर्षों में नारी को कम कपड़ों की स्वतंत्रता, सिगरेट-शराब पीने की सुविधा और मर्द को अपने से कमतर बताने में परिवर्तित होता चला गया।
अब तो नारीवाद का मुख्य ध्येय है पुरुषों को गाली देना। एक नारीवादी को ये मानने का अधिकार भी मिल गया है कि सभी पुरुष कमीने ही होते हैं। नए दौर में नारी समलैंगिकता भी नारीवाद में शामिल कर लिया गया है। हमारी फिल्मों में इसी बदले हुए नारीवाद के दर्शन हो रहे हैं। हमारी फिल्मों में नायिका अब शिक्षा के अधिकार के लिए नहीं लड़ती बल्कि उसे फटी उधड़ी जींस पहनने के अधिकार के लिए लड़ना है।
उसे पुरुषों की तरह ही शौचालय चाहिए। वह पति की मौत पर दुःख अनुभव नहीं करती, इसलिए उसका शुष्क व्यवहार जस्टिफाई किया जा सकता है। अंग्रेज़ी में लिखने वाले पत्रकार तो एकता कपूर की लस्ट स्टोरीज को भी सशक्त नारीवाद बताते हैं। अनुराग कश्यप की ‘देव डी’ की नायिका नायक से शारीरिक संबंध स्थापित करने के लिए साइकिल पर गद्दा लादकर खेत पर जाती है, इसे भी हमारे पत्रकार निर्भीक नारी सशक्तिकरण की संज्ञा देते हैं।
अठारहवीं सदी में एक पवित्र उद्देश्य को लेकर शुरु हुआ नारी आंदोलन आज कहाँ पहुँच गया है। आज नारी स्वतंत्र है , शिक्षा पा रही है, कानून ने उसे शक्तिशाली बनाया है किंतु नारीवादी आज भी ये मानते हैं कि भारत में नारी पर अत्याचार किया जाता है। ध्यान रहे फिल्म उद्योग कहता है कि फ़िल्में समाज का आइना होती हैं। उसके पास अपनी गंदगी को जस्टिफाई करने का ये सबसे बड़ा अस्त्र है।
आज भारतीय नारी इतनी आगे बढ़ रही है लेकिन उसकी सफलता की कहानी ओटीटी पर नहीं दिखाई जाती। गुंजन सक्सेना का संघर्ष तो एक तरफ रहा, फिल्म में उसे भी पुरुष सैनिकों द्वारा पीड़ित बता दिया गया था। ओटीटी एक स्वतंत्र मंच है। सरकार इसके प्रति हद से ज्यादा उदार रवैया दिखा रही है। जब इन फिल्म निर्माताओं को सरकार या समाज की ओर से कड़ा सन्देश नहीं दिया जाता, इस तरह की फिल्मों का निर्माण जारी रहने वाला है।